Jan Gan Man: Places of Worship Act क्या हिंदू विरोधी है? मठों मंदिरों के पैसे आखिर सरकार क्यों ले लेती है?

By नीरज कुमार दुबे | Feb 08, 2023

नमस्कार प्रभासाक्षी न्यूज नेटवर्क के खास कार्यक्रम जन गण मन में आप सभी का स्वागत है। उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 को निरस्त करने और देशभर के मठों-मंदिरों की संपत्तियों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कराने की आवाज फिर जोर पकड़ रही है। हम आपको बता दें कि अभी पिछले सप्ताह राज्यसभा में भाजपा सांसद हरनाथ यादव ने निजी तौर पर उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) निरस्त विधेयक, 2022 को पेश करना चाहा था। इसे उच्च सदन में पेश करने के लिए सूचीबद्ध भी किया गया था लेकिन अडाणी मुद्दे पर विपक्षी सदस्यों के हंगामे के बाद सदन की कार्यवाही को दिन भर के लिए स्थगित कर दिया गया था, इसलिए यह विधेयक सदन में पेश नहीं किया जा सका। हालांकि कांग्रेस ने इस विधेयक को पेश किये जाने से रोकने की तैयारी भी कर ली थी क्योंकि कांग्रेस सांसद नसीर हुसैन ने आपत्ति जताते हुए राज्यसभा सचिवालय को नोटिस दिया था। अपने नोटिस में उन्होंने कहा था कि उन्हें इस विधेयक पर आपत्ति है क्योंकि यह हमारे समाज के सामाजिक ताने-बाने, साझा जीवन और सदियों पुराने भाईचारे पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है और सांप्रदायिक वैमनस्य पैदा करता है।


यही नहीं, हाल ही में आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की बैठक में भी एक प्रस्ताव पारित किया गया कि इबादतगाहों से संबंधित 1991 का कानून खुद हुकूमत का बनाया हुआ कानून है, जिसे संसद ने पारित किया है इसलिए उसको कायम रखना सरकार का कर्तव्य है। बोर्ड ने 1991 के कानून की याद दिलाते हुए कहा है कि ‘उपासना स्थल अधिनियम-1991’ को बरकरार रखने के लिए बोर्ड पैरवी कर रहा है। हम आपको बता दें कि वाराणसी में ज्ञानवापी और गौरी श्रृंगार विवाद तथा मथुरा में श्रीकृष्ण जन्म भूमि और शाही ईदगाह जैसे कुछ मामले हाल में सामने आये हैं जिनमें इस अधिनियम का हवाला दिया गया। यह अधिनियम कहता है कि 15 अगस्त 1947 से पहले अस्तित्व में आए किसी भी धर्म के उपासना स्थल को, किसी दूसरे धर्म के उपासना स्थल में नहीं बदला जा सकता और यदि कोई इसका उल्लंघन करने का प्रयास करता है तो उसे जुर्माना और तीन साल तक की जेल भी हो सकती है। यह कानून तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव के नेतृत्व वाली सरकार 1991 में लेकर आई थी, यह कानून तब आया जब बाबरी मस्जिद और अयोध्या का मुद्दा बेहद गर्म था।


हम आपको यह भी बता दें कि उपासना स्थल अधिनियम यानि प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट 1991 के प्रावधानों पर सवाल उठाते हुए सुप्रीम कोर्ट से इसे असंवैधानिक घोषित करने की गुहार भी लगाई गई है। वरिष्ठ अधिवक्ता और भारत के पीआईएल मैन के रूप में विख्यात अश्विनी उपाध्याय ने अपनी याचिका में कहा है कि प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट 1991 के प्रावधान मनमाने और असंवैधानिक हैं। याचिका में कहा गया है कि यह एक्ट हिंदू, जैन, सिख और बौद्ध लोगों को उनके पूजा स्थल पर अवैध अतिक्रमण के खिलाफ दावे करने से रोकता है और उन्हें अपने धार्मिक स्थल दोबारा पाने के लिए विवाद की स्थिति में कोर्ट जाने से रोकता है।

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अश्विनी उपाध्याय की ओर से प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट 1991 की धारा 2, 3 और 4 को विशेष रूप से चुनौती देते हुए उसे असंवैधानिक घोषित करने की गुहार लगाई गई है। अश्विनी उपाध्याय की याचिका में कहा गया है कि यह प्रावधान संविधान के अनुच्छेदों 14, 15, 21, 25, 26 और 29 का उल्लंघन करते हैं। अश्विनी उपाध्याय ने कहा है कि यह एक्ट संविधान में दिए गए समानता के अधिकार, जीवन के अधिकार और धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार में दखल देता है। अश्विनी उपाध्याय का कहना है कि केंद्र सरकार ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर यह कानून बनाया है। अश्विनी उपाध्याय की याचिका में कहा गया है कि जिन धार्मिक स्थलों पर आक्रमणकारियों ने अवैध तरीके से अतिक्रमण किया है, उस अतिक्रमण को हटाने और अपने धार्मिक स्थल वापस पाने का कानूनी मार्ग प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट के माध्यम से बंद कर दिया गया है। अश्विनी उपाध्याय का कहना है कि केंद्र सरकार को यह अधिकार नहीं है कि वह किसी विषय पर लोगों का कोर्ट जाने का अधिकार छीन ले।


हम आपको बता दें कि प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट के खिलाफ याचिकाकर्ता ने जिन बिंदुओं को आधार बनाया है वह इस प्रकार हैं-


-इस अधिनियम में भगवान राम के जन्मस्थान को शामिल नहीं किया गया है, लेकिन इसमें भगवान कृष्ण का जन्मस्थान शामिल है, हालांकि दोनों ही भगवान विष्णु के अवतार हैं और पूरे संसार में समान रूप से पूजे जाते हैं। इसलिए यह एक्ट मनमाना, तर्कहीन और अनुच्छेद 14-15 का उल्लंघन करता है।


-याचिका में कहा गया है कि न्याय का अधिकार, न्यायिक उपचार का अधिकार, गरिमा का अधिकार अनुच्छेद 21 के अभिन्न अंग हैं, लेकिन यह अधिनियम उनका हनन करता है। 


-याचिका में कहा गया है कि हिंदू, जैन, बौद्ध और सिख को धर्म के प्रचार के अधिकार की गारंटी अनुच्छेद 25 के तहत दी गयी है। लेकिन यह अधिनियम इसका उल्लंघन करता है।


दूसरी ओर, बात यदि मठों-मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कराने की करें तो आपको बता दें कि इसके लिए साधु-संत बड़ा अभियान छेड़ चुके हैं। उत्तराखण्ड में जिस तरह से भाजपा सरकार ने देवस्थानम बोर्ड को भंग करने की मांग को मान लिया था उससे संतों को उम्मीद है कि लोकसभा चुनावों से पहले मठों-मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने को लेकर मोदी सरकार कोई बड़ा फैसला ले सकती है। माना यह भी जा रहा है कि संघ परिवार ने अयोध्या में श्रीराम मंदिर निर्माण का अभियान सफल होने के बाद अब मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कराने का बीड़ा उठाया है इसलिए इस अभियान से आम जनमानस को जोड़ा जा रहा है। एक ओर जहां संघ परिवार अपने मिशन को अपने तरीके से पूरा करने में लगा हुआ है वहीं दूसरी ओर संत समाज ने भी सरकार पर दबाव बनाने की रणनीति बनाते हुए अपना अभियान छेड़ दिया है।


संतों का कहना है कि सरकारें केवल मंदिरों का अधिग्रहण करती हैं, मस्जिद या चर्च का नहीं। संतों का यह भी कहना है कि यदि सरकार मंदिर को जनता की संपत्ति समझती है तो पुजारियों को वेतन क्यों नहीं देती? संतों का यह भी कहना है कि यदि मस्जिदें मुस्लिमों की निजी संपत्ति हैं, तो मौलवियों को सरकारी खजाने से वेतन क्यों दिया जाता है? संतगण साल 2014 में आये सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले का हवाला भी दे रहे हैं जिसमें अदालत ने तमिलनाडु के नटराज मंदिर को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने वाले आदेश में कहा था कि मंदिरों का संचालन और व्यवस्था भक्तों का काम है सरकारों का नहीं।

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