दुनिया में मानव जीवन शुरू करने के लिए सृष्टि रचयिता ने आदम और हव्वा को धरती पर भेजा। सेब जैसे स्वादिष्ट फल का मज़ा उन्होंने लिया और उसके बाद जितने भी आदम और हव्वा पैदा हुए उन्होंने उत्पत्ति के सिद्धान्त का पीछा नहीं छोड़ा और अब हाल यह है कि पूरी दुनिया के कुछ देश तो इन दोनों के आकर्षण के परिणामों को बुरी तरह झेल रहे हैं। ज्यों ज्यों जनसंख्या बढ़ती रही इंसान ने अपने शौक व इच्छाओं के अनुरूप अपने अपने समूहों का स्थापन व विस्तार किया। कोई शक्तिशाली व्यक्ति समूह का मालिक बनता गया। कई ज़मानों तक यही माना जाता रहा कि सबका मालिक एक है। आशय नीली छतरी वाले मालिक से ही रहा होगा। लेकिन यह सोच अंदर खाते बदलती भी रही। सामाजिक व आर्थिक बदलावों व विकास के कारण, विश्वास के वृक्ष की शाखाएँ फैलती रहीं और उनमें उगी असंतुष्टि ने नए धर्म, विश्वास व आस्थाएँ पैदा कीं। हर आँगन से यही प्राचीन प्रवचन दोहराया गया कि सबका मालिक एक है।
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बड़े धर्म की बैठकों में जब काफी लोगों को परायापन और उपेक्षा मिली तो औपचारिकताएँ कम करने के लिए सादगी, सरलता, सहजता व समानता लाने के लिए नए संप्रदाय पैदा हुए। इन नए मालिकों के साथ लाखों लोग जुड़े। यहाँ स्पष्ट कह सकते हैं कि नए मालिक बनने लगे। ताक़त धन बटोरती है और धन ताक़त खरीदता है। नए मत, संप्रदाय व डेरों में परिवर्तित होने लगे तो धन प्रधान हो गए या कहिए धन उनका मालिक हो गया। यह समूह शक्ति केन्द्रित होते गए, ठीक इसी मोड पर राजनीति का धाकड़ प्रवेश हुआ जिसने इन मालिकों को ज़्यादा ताकतवर व प्रभावशाली होने का अवसर दिया। राजनेताओं, मंत्रियों ने इन्हें संभालना शुरू किया तो ठीक समानान्तर शैली में इन समूहों ने राजनीति को संभालना व आश्रय देना शुरू किया। पहले भगवान एक ही माने जाते थे अब तो ‘भगवान’ भी अनेक हो गए। हमारे यहाँ तो पहले से ही तैंतीस करोड़ देवी देवता हैं। इन तथाकथित भगवानों ने स्वयं को स्थापित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी और वस्तुतः हुए भी।
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धर्म के तालाब में राजनीति ने अपनी पैठ बनाकर काफी गाद इकट्ठी कर दी। शासक अपनी ज़रूरत व अवसर के हिसाब से समाज व जनता को धकियाने का प्रयास करते हैं और इसमें सफल भी रहते हैं, उनके पास शक्ति और धन के हथियार जो होते हैं। यह भी स्वाभाविक है कि समाज में जिस धर्म, मत व संप्रदाय के ज़्यादा लोग हैं उनके नियंत्रक व संचालक अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए दूसरे धर्म, मत व संप्रदाय के लोगों को नकारना शुरू कर देते हैं। हमारा देश और समाज भी इस परिवर्तन से अछूता नहीं है। हिन्दू धर्म में ही दर्जनों डेरे हैं जो कहते रहते हैं कि सबका मालिक एक है लेकिन व्यवहारिक रूप से यह मालिकाना हक छोटी छोटी रियासतों में बंटा हुआ है। यह छोटे मालिक, राग पीर पैगंबरों या इतिहास पुरुषों वाला अलापते हैं लेकिन सत्ताधारियों की गोद में बैठे रहने से इन्हें कोई परहेज नहीं होता। वस्तुतः यह लोग समाज की एकजुटता को खारिज करते रहते हैं ताकि इनका शासन चलता रहे।
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पिछले लगभग डेढ़ सौ बरसों से साईं बाबा की स्मृति में सद्भाव, समानता व एकजुटता की जो परंपरा चल रही है वर्तमान शक्तियाँ उन्हें भी अपने रंग में रंग रही हैं। दुनिया भर में जिनके दस हज़ार मंदिर हैं जिनकी सादगी, सहजता, सरलता और सौम्यता का ज़माना कायल रहा है, उनके संदेशों, प्रतीकों की भाषा को बदला जा रहा है। जो सर्व धर्म के प्रतीक रहे, जिनके पास हिन्दू मुस्लिम भक्त समान रूप से आशीर्वाद लेने अपनी समस्याओं का समाधान कराने, बीमारियों और मुसीबतों से छुटकारा पाने जाते रहे हैं। उनकी आस्था व विश्वास के रंग हटाए जा रहे हैं। जिन लोगों पर यह दायित्व है कि उनके सिद्धांतों को स्थापित रखें वही उनके साथ विश्वासघात कर रहे हैं क्योंकि वर्तमान शक्तिशाली राजनीति ने उन्हें अपने रंग में ढाल दिया है। राजनीति नए रंग भरने के साथ ऐतिहासिक रंगों को बदरंग करने का कुकर्म भी करती है। राजनीति मानती है कि उसने सब बदरंग कर दिया लेकिन समझने की बात यह है कि सीने में कहीं न कहीं आग सलामत रहती है। राम रहीम को एक ही माना जाता रहा है लेकिन व्यक्ति दो हैं न। क्या यह वही बात नहीं हुई जब हम देश की विविधता को खूबसूरती मानते हुए कहते हैं हम सब एक हैं लेकिन वास्तव में तो इतनी विविधता के कारण अनेक हैं हम। पहचान से पहचान लड़ रही है इसीलिए राम और रहीम को अलग करने का प्रयास किया जा रहा है। साईं बाबा तो हमेशा फक्कड़ फकीर रहे और सच्चा फकीर धर्म की राजनीति नहीं करता।
-संतोष उत्सुक