By अभिनय आकाश | Nov 14, 2025
वर्ष 2000 समय और सदी के साथ ही बिहार की राजनीति भी नई करवट ले रही थी। । लालू राज के 10 वर्ष पूरे हो गए थे। नीतीश और जॉर्ज फर्नांडिस की समता पार्टी अब एनडीए का हिस्सा हो चुकी थी और केंद्र में काबिज थी वाजपेई सरकार जो अब से 1 वर्ष पहले ही सत्ता में आई थी। और अब बारी थी बिहार के 12वें विधानसभा चुनाव की। अब पहले से जो लालू यादव अपने ठेट अंदाज और जमीनी राजनीति के लिए जाने पहचाने जाते थे इस समय तक 940 करोड़ के चारा घोटाले के लिए बेहद बदनाम हो चुके थे और इसी कारण लालू प्रसाद यादव को इस्तीफा भी देना पड़ा और सत्ता की गमान उनकी पत्नी राबड़ी देवी के हाथों में सौंप दी गई थी। राज्य की घटती तरक्की और बढ़ते अपराध दर ने लालू राबड़ी सरकार को जंगल राज का तमख दे दिया था। विपक्षी दल एनडीए के लिए भी यह सबसे बड़ा मुद्दा था और 2000 का विधानसभा चुनाव इसी मुद्दे के बल पर लड़ा गया। उम्मीद यह लगाई गई कि जनता जंगल राज साफ कर देगी।
26 फरवरी को चुनाव के नतीजे आते हैं। मगर एनडीए की उम्मीदों के विपरीत आरजेडी 124 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभर जाती है। और वहीं दूसरी तरफ एनडीए जिसमें नीतीश कुमार की समता पार्टी और बीजेपी शामिल थे मात्र 122 सीटों पर सिमट कर रह जाते हैं। उस समय बिहार की विधानसभा में कुल 324 सीटें हुआ करती थी। इस हिसाब से बहुमत के लिए 163 सीटों की दरकार थी और यह आंकड़ा किसी के पास भी नहीं था और यहीं से शुरू होती है राजनीतिक जोड़तोड़ और समीकरण साधने की राजनीति। राजनीतिक उथल-पुथल के बीच बिहार के तत्कालीन राज्यपाल विनोद चंद्र पांडे ने बहुमत ना होने के बावजूद एनडीए को सरकार बनाने का न्योता दे दिया। जिसके बाद 3 मार्च 2000 को नीतीश कुमार ने पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। वहीं दूसरी तरफ लालू प्रसाद यादव ने इस निर्णय के विरुद्ध बिहार बंद का आह्वान कर दिया। कई जगहों पर आरजेडी समर्थकों ने रेल की पटरिया तक उखाड़ दी।
शपथ लेने से सत्ता स्थापित करने के बीच एक बड़ा फासला तय किया जाना अभी बाकी था और वो था विश्वास मत यानी कि फ्लोर टेस्ट। दोनों ही पक्षों ने अपने-अपने ढंग से समर्थन जुटाना शुरू कर दिया। नीतीश कुमार को अपने राजनीतिक गणित पर पूरा-पूरा भरोसा था। 10 मार्च सन 2000 विधानसभा में बजट पेश किया जाता है। जिसके बाद विश्वास मत से पहले ही नीतीश कुमार इस्तीफा दे देते हैं। क्योंकि शपथ ग्रहण के 7 दिन बाद तक भी नीतीश कुमार के पास मात्र 151 विधायकों का ही समर्थन था और इसी के साथ नीतीश कुमार के बतौर मुख्यमंत्री उनके पहले सात दिवसीय कार्यकाल का अंत होता है।
बिहार की कमान एक बार फिर राजद के हाथों में आ गई और लालू के जोड़-तोड़ की बदौलत राबड़ी देवी फिर मुख्यमंत्री बनीं। उस दौर में तो यहां तक कहा जाता था कि समोसे में जब तक आलू रहेगा, तब तक बिहार की सत्ता में लालू रहेंगे। हालांकि, 2005 के चुनाव में स्थितियां पूरी तरह बदल गईं। ये स्थितियां ऐसी बदलीं की सात महीने के भीतर राज्य में दो बार चुनाव हुए। फरवरी 2005 में बिहार से झारखंड के अलग होने के बाद पहली बार चुनाव हुए। 243 सीटों वाली विधानसभा के लिए राजद ने 215 सीटों पर उम्मीदवार उतारे, लेकिन उसे 75 सीटें मिलीं। जदयू और भाजपा गठबंधन में 138 सीटों पर चुनाव लड़ा जदयू 55 सीटें हासिल कर सका। 103 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली भाजपा को 37 सीटें मिलीं। इस तरह 92 सीटें जीतने वाला एनडीए भी बहुमत से दूर रह गया। लोजपा किंगमेकर की भूमिका में थी। कहा जाता है कि नतीजों के बाद रामविलास पासवान इस बात पर अड़ गए कि वो किसी भी गठबंधन को समर्थन तभी देंगे जब किसी मुस्लिम को मुख्यमंत्री बनाया जाएगा।
लोजपा की शर्तों के आगे कोई समाधान नहीं निकल सका। अंतत: राज्य में नए सिरे से चुनाव हुए। लालू यादव उस वक्त केंद्र सरकार में मंत्री हुआ करते थे। उस वक्त उन्होंने कहा था कि नीतीश कुमार जीवन में कभी मुख्यमंत्री नहीं बन सकते हैं। उनकी किस्मत में मुख्यमंत्री बनन नहीं लिखा है। अक्तूबर-नवंबर में फिर चुनाव हुए। महज सात महीने बाद हुए इस चुनाव के बाद नीतीश कुमार एनडीए की जीत के बाद मुख्यमंत्री बने और ऐसे बने कि पिछले दो दशक से कुर्सी पर काबिज हैं। पिछले 20 सालों से बिहार की राजनीति उनके ईर्द गिर्द घूमती है। नीतीश कुमार की हैसियत ये है कि उनके बिना बिहार में किसी की सरकार नहीं बनती है।