हिन्दी रंगमंच का पिछड़ना समाज के लिए ठीक नहीं, सरकार ध्यान दे

By डॉ. दीपकुमार शुक्ल | Apr 03, 2018

साहित्य की विभिन्न विधाओं में नाटक सर्वाधिक लोकप्रिय विधा मानी जाती है क्योंकि नाटक के दृश्यों को देखकर दर्शकों को जो आनन्द प्राप्त होता है, वह कविता और उपन्यास पढ़कर नहीं मिलता। दर्शकों के मन पर इसका सीधा प्रभाव पड़ता है। भारत में नाटक साहित्य की एक लम्बी परम्परा रही है। नाट्यशास्त्र की रचना सबसे पहले भारत में ही हुई। यहाँ नाट्यशास्त्र के अनेक आचार्य हुए हैं, जिन्होंने साहित्य की इस विधा पर बड़े ही विस्तार और गम्भीरतापूर्वक विचार करते हुए इसे अभिव्यक्ति का सर्वाधिक पुष्ट माध्यम बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इनमें भरतमुनि, धनञ्जय, रामचन्द्र, गुणचन्द्र, अभिनवगुप्त, विश्वनाथ आदि के नाम अधिक प्रसिद्ध हैं।

आचार्य धनञ्जय द्वारा प्रतिपादित नाटक की परिभाषा के अनुसार 'अवस्था की अनुकृति नाटक है।' डॉ. वासुदेवनन्दन प्रसाद नाटक की इस परिभाषा को सर्वाधिक सार्थक, व्यावहारिक और उपयोगी मानते हैं। क्योंकि नाटक में अनुकरण तत्व की ही प्रधानता है। साहित्य की सभी विधाओं में नाटक ही वह विधा है, जिसमें अनुकरण पर सर्वाधिक बल दिया गया है। यह अनुकरण, कार्य अर्थात मानवीय जीवन के क्रियाशील कार्यों का होता है। मनुष्य अनेक परिस्थितियों से हर क्षण गुजरता है। उसकी विभिन्न अवस्थाएँ होती हैं। भिन्न−भिन्न अवस्थाओं में रहने के कारण उसके जीवन−रंगमंच पर अनेक दृश्य आते−जाते रहते हैं। नाटककार नाटक की रचना करते समय इन्हीं दृश्यों अर्थात स्थितियों का ही अनुकरण करता है। जीवन के यथार्थमूलक अनुकरण के साथ−साथ नाटककार की सर्जनात्मक कल्पना का भी नाटक में समावेश होता है। यह कल्पना ही नाटक को साहित्य की विशिष्ट विधा के रूप में प्रतिष्ठित करती है। शिक्षण और मनोरंजन के साथ−साथ नाटक का उद्देश्य जीवन की विभिन्न समस्याओं का उद्घाटन करते हुए मानवीय संवेदनाओं को प्रकाश में लाना भी होता है।

 

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के शब्दों में 'नाटक शब्द की अर्थग्राहिता यदि रंगस्थ खेल में ही की जाए तो हम इसके तीन भेद करेंगे काव्यमिश्र, शुद्ध कौतुक और भ्रष्ट। शुद्ध कौतुक यथा कठपुतली या खिलौने आदि से सभा इत्यादि का दिखलाना, गूंगे−बहिरे का नाटक, बाजीगरी या घोड़े के तमाशे में संवाद, भूत−प्रेतादि की नकल और सभ्यता की अन्यान्य दिल्लगियों को कहेंगे। भ्रष्ट अर्थात् जिनमें अब नाटकत्व नहीं शेष रहा है यथा भांड, इन्द्रसभा, रास, यात्रा, लीला और झांकी आदि। पारसियों के नाटक, महाराष्ट्रों के खेल आदि यद्यपि काव्यमिश्र हैं तथापि काव्यहीन होने के कारण वे भी भ्रष्ट ही समझे जाते हैं। नाटक पठन या दर्शन में स्वभावरक्षा मात्र एक उपाय है जो पाठक और दर्शक के मनःसमुद्र को भाव तरंगों से आस्फलित कर देता है। साथ ही शिक्षाप्रद भी होता है।' रामचन्द्र 'सरोज' के अनुसार नाटक की सम्यक अभिव्यक्ति अभिनय द्वारा होती है। जिसमें शरीर के अंगों, उपांगों एवं प्रत्यंगों के सञ्चालन को, भावनाओं एवं मनःस्थितियों पर केन्द्रित कर, विभिन्न मुद्राएं एवं भंगिमाएं निश्चित की गयी हैं। भारत ही नहीं समस्त एशिया के रंगमंच की यही विशेषता है कि इसमें वे मूल तत्व अब भी विद्यमान हैं जो कभी रंगमंच की विकास−प्रक्रिया के प्रारम्भिक दौर में स्वीकृत हुए थे।' अविनाशचंद्र के शब्दों में 'भरत ने अपने नाट्यशास्त्र में रस, भाव, अभिनय, धर्मी, वृत्ति, प्रवृत्ति, सिद्ध, स्वर, वाद्य, गान एवं रंगमंच− ग्यारह नाट्यांगों की चर्चा की है। फिर धर्मी के भी दो भेद बताये हैं। पहला लोकधर्मी और दूसरा नाट्यधर्मी। लोकधर्मी नाट्य आज की यथार्थवादी नाट्य शैली से मेल खाता है और नाट्यधर्मी उन सभी नाट्यशैलियों से, जो सांकेतिक हैं।'

 

उपरोक्त विचारों से स्पष्ट होता है कि नाटक अभिव्यक्ति का एक अति प्रभावी माध्यम है। जीवन के प्रत्येक सन्दर्भ का व्यावहारिक प्रतिरूपण करने की अद्भुत क्षमता नाटक में विद्यमान है। हजारों की भीड़ को मार्गदर्शित करते हुए नवीन विचारधारा का सफल संचरण कर सकने में यह पूर्ण सक्षम है। यह विपरीत विचारधाराओं को जोड़ने में भी हरदम सफल रहा है। विश्व की विभिन्न विचारधाराएँ आपस में कितनी भी विपरीत क्यों न हों परन्तु उनके मूल तत्व और उद्देश्य सदैव एक जैसे ही होते हैं और नाटक उस मूल तत्व को ही सतह पर लाकर खड़ा करता है तथा उद्देश्यों की एकरूपता का प्रभावशाली निरूपण भी करता है।

 

सामाजिक तथा राजनीतिक व्यवस्था के सफल सञ्चालन के लिए जन सामान्य की भावनाओं को धरातल पर लाना आवश्यक होता है। रंगमंच इस दिशा में सदैव महती भूमिका निभाता रहा है। स्वाधीनता आन्दोलन में नाटकों तथा लोकगीतों की महती भूमिका को भुलाया नहीं जा सकता है। 'अवध में राना भयो मरदाना। पहिली लड़ाई बक्सर मारयो, सिमरी के मैदाना।' जैसे लोकगीत जहाँ अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध मन्त्र फूंक रहे थे। वहीँ रामलीला, रासलीला तथा नौटंकी के माध्यम से आम जनमानस में क्रान्तिकारी विचारों का संचार हो रहा था। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने नाटक को नवजागरण का सबसे सशक्त माध्यम माना और राष्ट्रीय तथा जनवादी तत्वों को नाटक में समाविष्ट करते हुए स्वदेशी आन्दोलन का सूत्रपात किया।

 

स्वार्थपरक राजनीतिक कुचक्रों में निरन्तर फंसते जा रहे आम जनमानस को इससे उबारने की महती आवश्यकता है। रंगमंच इस दिशा में महती भूमिका निभा सकता है परन्तु अर्थयुग के बढ़ते प्रभाव के कारण आज रंगमंच का ही अस्तित्व खतरे में दिखाई दे रहा है। रंगमंच को प्रोत्साहित एवं संरक्षित करने वालों का निरन्तर अभाव होता जा रहा है। समाज का जो वर्ग रामलीला और रासलीला जैसे लोकनाट्यों को धार्मिक अनुष्ठान के रूप में प्रोत्साहित करता है, उनमें से अधिकांशतया इसे मनोरंजन के साधन के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए तत्पर हैं। आज ये लोकनाट्य, पारसी नाटकों की भ्रष्ट परम्परा का ही पोषण कर रहे हैं। इन लोकनाट्यों के पूर्ण व्यावसायिक कलाकार भी इसमें नकारात्मक भूमिका निभा रहे हैं। जिससे इन लोकनाट्यों का भविष्यगत अस्तित्व संकटपूर्ण दिखाई दे रहा है। मंहगे प्रेक्षागारों और संसाधनों के अभाव में भारतेन्दु जी की परम्परा वाले साहित्यिक और सामाजिक नाटकों का मंचन भी दुरूह हो गया है। यहाँ भी अधिकतर कलाकारों का दृष्टिकोण व्यावसायिक हो चुका है। सरकारी प्रोत्साहन भी नाममात्र का है। सरकारें हमेशा बजट का रोना रोती रहती हैं।

 

साहित्यकारों की रूचि भी अब रंगमंच से लगभग समाप्त हो रही है। देश में जिस गति से कवियों की संख्या बढ़ी है। नाटककारों की संख्या उस अनुपात में कहीं भी नहीं ठहरती है। एक समय ऐसा भी रहा है जब लगभग प्रत्येक साहित्यकार जहाँ एक अच्छा कवि होता था वहीँ वह एक उत्कृष्ट नाटककार भी होता था। परन्तु आज ऐसा नहीं है। इससे मौलिक तथा साहित्यिक दृष्टि से उत्कृष्ट नाटकों की कमी आज स्पष्ट दिखाई देती है।

 

भूमण्डलीकरण के इस दौर में जब भारत का शास्त्रीय संगीत, विश्व संगीत के सामने पूरे वजूद के साथ खड़ा है। हिन्दीभाषी अनेक कवि विश्वस्तरीय लोकप्रियता अर्जित कर रहे हैं। अन्य अनेक क्षेत्रों में भी भारत का डंका पूरे विश्व में बज रहा है। तब फिर हिन्दी रंगमंच का पिछड़ना अंत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा।  

      

डॉ. दीपकुमार शुक्ल

(रंगकर्मी एवं स्वतन्त्र पत्रकार)

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