ब्राह्मण होते हुए भी आचरण से क्षत्रिय क्यों हुए भगवान परशुराम

By अमृता गोस्वामी | Apr 25, 2020

हिन्दु धर्म के अनुसार शौर्य और पराक्रम के प्रतीक योग, वेद और नीति में पारंगत परशुराम विष्णु के दस अवतारों में से छठे अवतार थे। इनका जन्म अक्षय तृतीया को हुआ था। इनके पिता भृगुवंशीय ऋषि जमदग्नि तथा माता का नाम रेणुका था। भगवान परशुराम को पृथ्वी पर समाज में समानता और न्याय की स्थापना के लिए भी जाना जाता है इन्हें इनके पिता जमदग्नि जो महान सप्तऋषियों में से एक गिने जाते हैं से आशीर्वाद प्राप्त था कि जगत में वे सदा अमर रहेंगे। परशुराम ने महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के पास शिक्षा प्राप्त की। विभिन्न प्रकार के अस्त्र शस्त्रों की विद्या में माहिर परशुराम जी का बचपन का नाम राम था, वे शिवजी के अनन्य भक्त थे। भगवान शिव ने उनके तप और भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें वरदान स्वरूप एक अमोघ दिव्य शस्त्र परशु प्रदान किया था जिसके पश्चात जगत में उनका नाम परशुराम विख्यात हुआ। 


एक पौराणिक कथा के अनुसार भगवान परशुराम ने एक तीर चलाकर गुजरात से लेकर केरल तक समुद्र को पीछे धकेल कर नई भूमि का निर्माण किया था। पितामह भीष्म, ऋषि द्रोणाचार्य व महारथी कर्ण जैसे महान योद्धाओं को अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा परशुराम जी ने ही दी थी। विष्णु की कृपा और शिव जी के आशीर्वाद से इन्हें इतनी शक्ति और बल प्राप्त था कि उन्होंने महिष्मति के राजा कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन जिसके पास सहस्त्रों भुजाएं थी और जिसे रावण भी परास्त नहीं कर सका था के अत्याचार से कुपित होकर उसका संहार किया था। 

 

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जैसा कि कहा जाता है कि परशुराम ब्राम्हण के घर में जन्में थे किन्तु उनमें गुण क्षत्रियों वाले थे इसके पीछे परशुराम के जन्म से पहले की एक कहानी पुराणों में कही गई है। आईए आज भगवान परशुराम जी की जयंति पर जानते हैं इस पौराणिक कथा को जिसमें बताया गया है कि ब्राह्मण पुत्र होते हुए भी परशुराम जी में क्षत्रिय आचरण का समावेश कैसे हुआ। 


पौराणिक वृत्तांतों के अनुसार कन्नौज के राजा गाधि की पुत्री सत्यवती बहुत ही सुंदर, सुशील और गुणवती थी उसका विवाह भृगु ऋषि के पुत्र ऋचीक के साथ संपन्न हुआ। विवाहोपरांत जब भृगु ऋषि ने अपनी पुत्रवधु को वरदान मांगने के लिए कहा तो सत्यवती ने अपनी माता व स्वयं के लिए पुत्र की कामना की। भृगु ऋषि ने दो चरु पात्र सत्यवती को देते हुए कहा कि इसमें से एक पात्र तुम्हारे लिए है और दूसरा पात्र तुम्हारी माता के लिए है। शुद्ध अवस्था में तुम गूलर के वृ़क्ष के समक्ष अपने चरू पात्र को लेकर पुत्र की कामना करना वहीं तुम्हारी माता को कहना कि वह अपने चरू पात्र को लेकर पीपल के वृक्ष के समक्ष पुत्र की कामना करे इससे तुम दोनों को पुत्र की प्राप्ति होगी। 


सत्यवती ने प्रसन्न होकर भृगु ऋषि को प्रणाम किया और दोनों चरू पत्र लेकर सारा वृतांत अपनी माता को कह सुनाया। सत्यवती की माता यह सुनकर बड़ी प्रसन्न हुई और समय आने पर सत्यवती और उसकी माता ने भृगु ऋषि के कहे अनुसार चरू पात्र लेकर अपने अपने लिए पुत्र की कामना की किन्तु गलती से दोनों के पात्र बदल गए थे। जो चरू पात्र सत्यवती का था वह उसकी मां ने ले लिया था वहीं सत्यवती की मां का चरू पात्र सत्यवती के पास था जिसे लेकर उसने पुत्र की कामना की। 


भुगु ऋषि अपनी योगमाया से यह सारा मामला जान गए थे। उन्होंने सत्यवती को बताया कि बेटी, तुम्हारी माता की गलती से तुम्हारे चरु पात्र का सेवन उनके द्वारा कर लिया गया है और तुम्हारी माता वाले पात्र को तुमने ग्रहण किया है। परिणामवश तुम्हारी संतान अब जन्म से भले ब्राह्मण हो लेकिन उसका आचरण एक क्षत्रिय जैसा होगा। वहीं तुम्हारी माता की संतान क्षत्रिय होते हुए भी ब्राह्मण आचरण वाली होगी।

सत्यवती समझ न पाई कि यह सब कैसे हो गया उसने हाथ जोड़कर भृगु ऋषि से प्रार्थना की कि क्षमा करें, कृपया मुझे आशीर्वाद दें कि मेरे पुत्र में ब्राह्मण के गुण ही आएं भले ही मेरे पौत्र में क्षत्रिय के गुण आ जायें। सत्यवती की प्रार्थना पर महर्षि भृगु ने उसकी विनती स्वीकार ली और उसे उसके अनुसार आशीर्वाद दिया। 

 

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समय आने पर सत्यवती को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम जमदग्नि रखा गया। जिसे महर्षि जमदग्नि के नाम से जाना गया। जमदग्नि का विवाह राजा प्रसेनजित की कन्या रेणुका से हुआ, जिनकी पांच संताने हुई जिनमें एक परशुराम थे और जैसा कि इनकी बड़ी माता सत्यवती को आशीर्वाद मिला था, महर्षि भृगु के प्रपौत्र, ऋषि ऋचीक के पौत्र और जमदग्नि के पुत्र परशुराम ब्राम्हण होते हुए क्षत्रिय आचरण वाले हुए। वहीं कालांतर में सत्यवती की माता के पुत्र विश्वामित्र हुए जो जन्म से क्षत्रिय होने के बावजूद कर्म से ब्राह्मण आचरण वाले हुए।


अमृता गोस्वामी

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