By सुखी भारती | Mar 15, 2025
संसार की भी बड़ी विचित्र रीति है। सीस पर अगर मुकुट सजवाना हो, तो हर कोई तैयार है। किंतु अगर उसी सीस को देश व धर्म पर न्योछावर करना हो, तो आटे में नमक जितने ही सीस देखने को मिलेंगे।
समुद्र मंथन में भी जब अमृत की जगह कालकूट विष निकला, तो हर कोई उसे अपनाने से मना करने लगा। न देवता उसे ग्रहण करना चाह रहे थे, और न ही दानव। अन्य बड़े बड़े ईष्ट भी अपनी असमर्थता जता चुके थे। किंतु वहीं, जब भगवान शंकर को निवेदन किया गया, तो उनसे धरातल के समस्त जीवों का दुख देखा न गया। रोते कर्राहते जीवों की रुदनता, उन्हें अथाह कष्ट पहुँचा रही थी। कालकूट विष का दुष्प्रभाव ऐसा था, कि कोई भी उससे अछूता नहीं रह पा रहा था। यूँ भासित हो रहा था, मानों पृथवी कुछ ही क्षणों में समाप्त हो जायेगी। देवता और दानव सब ने दोनों हाथ जोड़ कर करुण प्रार्थना की, कि हे शंभूनाथ! अब तो आप ही एक अंतिम आश्रर्य बचे हैं। कहीं किसी ने सहायता नहीं की। सबको अपने प्राणों से प्रेम है। हर कोई अपने प्राणों को बचाना चाह रहा है। किंतु यह भी कटु सत्य है, कि कोई भी अपने प्राण बचा नहीं पायेगा। हम तो हर घाट का पानी पीकर थककर आपकी शरण पहुँचे हैं। केवल तो केवल बस आप ही हैं, जो कोई उपाय कर सकते हैं।
भगवान शंकर से धराधाम के जीवों का कष्ट देखा न गया। उन्होंने उसी समय एक महान संकल्प लिया, एवं एक दिव्य घटना को साकार किया। उन्होंने अपने दोनों हाथों से अँजुलि बनाई, और उस विष को अँजुलि के माध्यम से अपने गले में उतारने लगे। वे उस विष को घटाघट पीने लगे। जैसे जैसे विष उनके भीतर उतर रहा था, ठीक वैसे वैसे धराधाम पर से विष का प्रभाव कम होते जा रहा था। जीवों को अब घुटन नहीं हो रही थी। उनका दम नहीं निकल रहा था। वनस्पति भी फिर से श्वाँस लेने लगी थी। प्राणियों को भी मानों प्राण आ गये थे। जो जीव अंतिम यात्र में बस निकलने ही वाले थे, वे पुनः वापिस लौट पड़े। सभी आश्वस्त हो उठे, कि भगवान शंकर ने उस भयंकर कालकूट विष से मुक्ति दिला दी है। सभी प्रसन्न होकर भगवान शंकर की स्तुतियां करने लगे। एक दूसरे के गले लगने लगे। इन सबसे दूर भगवान शंकर उस विष को निरंतर पीये जा रहे हैं। वे एक भी बूँद को धरा पर रहने नहीं देना चाह रहे थे।
इसी बीच कुछ देवता और दानवों ने एक विचित्र दृष्य देखा। वे क्या देख रहे हैं, कि विष भगवान शंकर के श्रीमुख से उनके भीतर तो उतर रहा है। किंतु वह विष केवल गले तक आकर ही अटके जा रहा है। गले के नीचे उस विष का उतरना ही नहीं हो रहा है। जिस कारण भगवान शंकर का कंठ विष के प्रभाव से पूर्णत नीला पड़ गया। किंतु भगवान शंकर बिना उस विषप्रभाव को देखे, उस विष को तब तक पीते रहे, जब तक कि संपूर्ण धराधाम, विष के प्रभाव से रहित नहीं हो गया। उसी समय व क्षण से भगवान शंकर का एक और सुंदर नाम अस्तित्व में आया। और वह था ‘नीलकंठ भगवान’।
नीलकंठ भगवान ने परहित हेतु अपने प्राणों की परवाह न करते हुए विषपान कर लिया। जिससे सभी देवता दानव किन्नर आदि उनकी स्तुति करने लगे, और सुख को प्राप्त हुए।
क्रमशः
- सुखी भारती