By सुखी भारती | Sep 18, 2025
भगवान शंकर, जो स्वयं अद्वितीय महादेव हैं, जिनके मस्तक पर गंगाधारा शोभित है, जिनके कंठ में हलाहल का विष अलंकृत है, और जिनकी जटाओं में अनन्त ब्रह्माण्डों की ध्वनियाँ गूँजती रहती हैं—वे ही आज अपने पावन श्रीमुख से जगतपावनी श्रीरामकथा का अमृतपान करवाते हैं। उनकी दिव्यवाणी से ऐसा प्रतीत होता है मानो किसी आकाशगंगा से अमृत के निर्झर फूट रहे हों, और जगतजननी पार्वती उसी अमृत को श्रद्धापूर्वक, आदरभाव से, घूँट-घूँट पी रही हों।
भोलेनाथ जब कथा का आरम्भ करते हैं, तो उनके अधरों से वेदवाणी समान पवित्र चौपाई प्रस्फुटित होती है—
“सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए।
बिपुल बिसद निगमागम गाए।।
हरि अवतार हेतु जेहि होई।
इदमित्थं कहि जाइ न सोई।।’’
हे पार्वती! वेद-शास्त्रों ने अनादि काल से ही भगवान विष्णु के चरित्रों का गान किया है। वे चरित्र शीतल चन्द्रकिरणों के समान निर्मल, जीवनदायिनी और परमार्थ को आलोकित करने वाले हैं। श्रीहरि का अवतरण क्यों होता है, इसका एक मात्र कारण बताना सम्भव नहीं। प्रभु के अवतारों के अनन्त कारण हो सकते हैं, जिन्हें सीमित बुद्धि वाला कोई प्राणी पूर्ण रूप से जान ही नहीं सकता।
जगद्गुरु शंकर आगे समझाते हैं कि जो लोग यह दावा करते हैं कि ईश्वर के अवतरण का केवल एक ही कारण है, वे वस्तुतः उसी प्रकार हैं जैसे कोई अज्ञानी व्यक्ति महासागर की एक बूँद को हथेली पर रखकर यह कह दे कि उसने सागर की सम्पूर्ण गहराई नाप ली। यह मूर्खता और अल्पज्ञान का ही परिचायक है। सागर की तरह ईश्वर की महिमा भी अगाध है, उसकी प्रत्येक बूँद में नूतन रहस्य और गूढ़ तत्त्व छिपे हैं।
यद्यपि भगवान शंकर स्वयं सर्वज्ञ, सर्वव्यापक और साक्षात् ईश्वर हैं, तथापि विनम्रता उनका अलंकार है। वे अपनी विराटता का बखान करने में तनिक भी संकोच न रखते हुए भी, पार्वती से बड़े विनीत भाव से कहते हैं—
“तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही।
समुझि परइ जस कारन मोही।।
जब जब होई धरम कै हानी।
बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी।।
करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी।
सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी।।
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा।
हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।।’’
अर्थात्—हे सुमुखि! मुझे जो कारण समझ में आता है, वही मैं तुम्हें सुनाता हूँ। जब-जब धर्म की हानि होती है और अधम, अभिमानी असुर अत्याचारों से भर उठते हैं; जब-जब वे अपने अन्याय और दुष्टकर्मों से ब्राह्मणों, गौओं, देवताओं और धरती माता को पीड़ा पहुँचाते हैं, तब-तब कृपानिधान भगवान विविध प्रकार के दिव्य अवतार धारण करके सज्जनों की रक्षा करते हैं।
देवी पार्वती शंकर की वाणी सुनकर गहन चिन्तन में पड़ जाती हैं। उनके अंतर्मन में प्रश्न उठता है—“आख़िर दुष्ट जन पाप करने के लिए विवश क्यों होते हैं? वे भी तो भक्तों की तरह शान्तिपूर्वक, सौहार्द्र से, सबके साथ मिलकर क्यों नहीं रहते? यदि वे सहजता और भलाई का मार्ग अपनाएँ तो समस्त चराचर को सुख मिल सकता है।”
तब वे समझती हैं कि यह प्रश्न भी स्वयं स्वभाव और संस्कार के बन्धन में उलझा है। प्रत्येक प्राणी अपने स्वभाव, गुण और कर्म से बँधा होता है। जैसे अग्नि का स्वभाव जलाना है और जल का स्वभाव शीतलता देना, वैसे ही दुष्टों का स्वभाव कष्ट पहुँचाना ही होता है। स्वभाव परिवर्तन दुर्लभ है, क्योंकि वह अनादि कर्मों का परिणाम है।
यद्यपि प्रत्येक प्राणी को अपने मतानुसार जीने का अधिकार है, किन्तु जब किसी का स्वभाव समाज की शान्ति और धर्म की मर्यादा पर चोट करने लगता है, जब उसका आचरण निर्दोष जीवों को आँसुओं में डुबो देता है, तब उसका निवारण अनिवार्य हो जाता है। यही धर्म का न्याय है।
यदि कोई साधारण पुरुष दुष्टों के अत्याचार का प्रतिकार करता है तो वह समाजसेवी कहलाता है। परन्तु उसकी सामर्थ्य सीमित होती है, क्योंकि मनुष्य सीमाओं से बँधा है। किन्तु जब वही कार्य स्वयं परमेश्वर करते हैं, जब वे मानव रूप धारण कर सज्जनों की रक्षा और दुष्टों का संहार करते हैं, तब उस दिव्य प्राकट्य को “अवतार” कहा जाता है।
रामावतार भी इसी सनातन धर्म का मूर्तिमान रूप है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का अवतरण केवल रावण वध तक सीमित नहीं था। उनके जीवन की प्रत्येक लीला में आदर्श, कर्तव्यपरायणता और धर्म का संदेश निहित है। वे पुत्रधर्म का निर्वाह करने वाले, भ्रातृप्रेम के प्रतिमान, मित्रता के सच्चे अनुयायी, प्रजावत्सल राजा और करुणासागर भगवान हैं। उनके चरणों में सम्पूर्ण मानवता के लिए आचरण का सजीव मार्गदर्शन है।
इसीलिए भगवान शंकर बार-बार यह संकेत देते हैं कि ईश्वर के अवतार का एकमात्र कारण खोजना व्यर्थ है। कारण अनेक हैं, जो अनन्त हैं, और जिन्हें केवल वही जान सकता है जो सर्वज्ञ है।
पार्वती अब समझने लगती हैं कि संसार का संचालन केवल कर्म और फल के न्याय से नहीं, बल्कि ईश्वर की करुणा से भी होता है। जब दुष्टों की अन्यायपूर्ण प्रवृत्ति असह्य हो जाती है और सज्जन प्राणी आश्रु बहाने लगते हैं, तब प्रभु का अवतरण निश्चित हो जाता है। यही उनकी अनुकम्पा का नियम है।
रामकथा केवल युद्ध और वध की कथा नहीं है, यह धर्म और मर्यादा की कथा है। यह कथा सिखाती है कि अन्याय के विरुद्ध खड़ा होना भी उतना ही आवश्यक है जितना कि करुणा और प्रेम का पालन करना।
अवतार का रहस्य इतना गहन है कि शंकर जैसे सर्वज्ञ देवता भी केवल एक अंश का ही वर्णन कर पाते हैं। यह वही रहस्य है जिसे सुनकर जगतजननी पार्वती भी समाधि में लीन हो जाती हैं।
अवतार का यह अद्भुत रहस्य अगले प्रसंग में और अधिक प्रकाश में आएगा—
क्रमशः...
- सुखी भारती