उपचुनावों में सियासी समीकरण को दूर से परखना चाहती हैं मायावती

By अजय कुमार | Mar 31, 2018

हाल फिलहाल में हुए उप−चुनावों में इलाहाबाद और फूलपुर की दो लोकसभा सीटों पर समाजवादी पार्टी को मिली जीत का श्रेय सपा से कहीं अधिक बसपा को जाता है। बसपा सुप्रीमो मायावती ने समय रहते सपा प्रत्याशी का समर्थन करके पूरी साफगोई के साथ अपना परम्परागत वोट सपा के पक्ष में न ट्रांसफर करा दिया होता तो नतीजों का सूरत−ए−हाल कुछ और होता। लेकिन इसके बदले में बसपा को वह नहीं मिला जिसकी वह हकदार थी। अच्छा रहता अगर सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव राज्यसभा चुनाव में अपनी प्रत्याशी जया बच्चन से पहले बसपा प्रत्याशी भीमराव अम्बेडकर को जिताने की कोशिश करते, लेकिन उन्होंने ऐसा करना उचित नहीं समझा, जिसके चलते बसपा प्रत्याशी को हार का सामना करना पड़ा। इसे मायावती की मजबूरी कहा जायेगा कि उन्होंने इस सियासी घटना का उतनी गंभीरता से नहीं लिया जितनी गंभीरता से बीजेपी यह मसला उठा रही थी। हाँ, मायावती ने प्रेस कांफ्रेंस में अखिलेश के तजुर्बे पर सवाल खड़ा करके काफी कुछ संकेत जरूर दे दिये।

सब जानते हैं कि बसपा−सपा के बीच का समझौता दिल मिले से अधिक मौकापरस्ती की दोस्ती है। 2019 में मोदी के विजयी रथ को रोकने के लिये माया−अखिलेश का साथ आना उनकी राजनैतिक और वजूद बचाने की मजबूरी है लेकिन मायावती ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कैराना लोकसभा और नूरपुर विधान सभा सीट पर जल्द होने वाले चुनाव के लिये किसी दल का समर्थन न करने की घोषणा करके सपा की नींद तो उड़ा ही दी है। बसपा सुप्रीमो मायावती ने यह दूरी यूं ही नही बनाई है। इसके पीछे अखिलेश को उनकी हैसियत समझाने के साथ−साथ समाजवादी पार्टी के बिना पश्चिमी यूपी का सियासी गणित समझने और उस आधार पर आगे की रणनीति पर काम करना भी है। मायावती खासतौर से पश्चिमी उप्र का मुस्लिम मन समझना चाहती हैं। साथ ही जाट व दलितों के रूख और उससे बनने वाले ही जाट व दलितों के रूख और उससे बनने वाले समीकरण की शक्ति को परखना चाहती हैं।

 

भाजपा सांसद हुकुम सिंह और विधायक लोकेन्द्र चौहान के निधन के चलते ये दोनों सीटे रिक्त हुई हैं। राजनैतिक पंडितों को लगता है कि मायावती यह पक्का कर लेना चाहती हैं कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुसलमानों का उनके प्रति झुकाव बरकरार है। नगर निकाय चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ और मेरठ की मेयर सीट बसपा के खाते में गई थी तो इसकी बड़ी वजह मुसलमानों का बसपा के पक्ष में मतदान करता था। मायावती उप−चुनावों में सपा से दूरी बनाकर एक बार फिर मुस्लिम वोटरों के मिजाज को पढ़ना चाहती हैं।

 

गौरतलब है कि विधानसभा चुनाव के समय भाजपा ने कैराना से हिंदुओं के पलायन को मुद्दा बनाया था। उस समय भाजपा के स्टार प्रचारक योगी आदित्यनाथ ने पश्चिमी उप्र की लगभग सभी सभाओं में कहा था, 'कैराना को कश्मीर नहीं बनने देंगे', इस मुद्दे के सूत्रधार कैराना से सांसद हुकुम सिंह (अब दिवंगत) थे, उन्होंने तत्कालीन सपा सरकार पर निशाना साधते हुए उसकी मुस्लिम तृष्टीकरण नीति को हिंदुओं के पलायन की वजह बताया था। इससे पूर्व लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी ने मुजफ्फरनगर दंगा, हिंदुओं के उत्पीड़न और मुस्लिम तुष्टिकरण का मुद्दा उठाया था। पश्चिमी यूपी में इस मुद्दे के चलते वोटों का जबरदस्त ध्रुवीकरण हुआ। यह और बात थी कि इतना सब करने के बाद भी हुकुम सिंह कैराना से बेटी मृगांका को विधानसभा चुनाव जिता नहीं पाये थे।

 

आंकड़ों की बात की जाये तो कैराना लोकसभा सीट पर चार लाख से अधिक मुस्लिम, लगभग डेढ़ लाख जाटव और लगभग इतने ही जाट मतदाता हैं। पिछले कुछ समय से यहां जाट और मुस्लिम समाज के कुछ लोग गांव−गांव बैठकें करके स्थानीय स्तर पर तनाव कम करने की कोशिश कर रहे हैं, जिससे यहां की परिस्थितियां बदली भी हैं। मायावती इन्हीं बदले हालात की जमीनी सच्चाई पढ़ना चाहती हैं। अभी यह नहीं पता कि कैराना में कांग्रेस की क्या भूमिका रहेगी। सवाल यह भी है कि यहां सपा अपना प्रत्याशी उतारेगी या फिर गठबंधन को महागठबंधन बनाने के लिये वह रालोद या कांग्रेस को भी मौका दे सकती है।

 

बहरहाल, यहां जो भी पार्टी लड़ेगी उसके नतीजे बसपा की भविष्य की रणनीति की राह तैयार कर सकते हैं। मुस्लिम और जाट यदि भाजपा के खिलाफ एकजुट होकर वोट करेगा तो मायावती को पता चल जाएगा कि इन दोनों वर्ग में वैसा बंटवारा अब नहीं है जैसा 2014 और 2017 में था। ऐसे में वह पश्चिमी उप्र की कई सीटों पर दलितों और उनमें खासतौर से जाटव की बड़ी मौजूदगी के सहारे भावी गठबंधन से जाट व मुस्लिम के वोटों को जोड़कर भविष्य की तैयारी कर सकती हैं। अगर जाट व मुस्लिम एक साथ न दिखे तो वह कुछ और फैसला करेंगी। वैसे, अजित सिंह ने राज्यसभा चुनाव में बसपा को वोट न देने वाले अपने विधायक को पार्टी से निकाल कर यह संदेश दिया है कि मायावती के प्रति वह भी लचीला रूख अख्तियार किये हुए हैं। बीजेपी इसकी काट के लिये हिन्दुत्व का बड़ा दांव चल सकती है।

 

-अजय कुमार

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