लोग बेचारे समस्याओं से घिरे हैं, ये फिट रहने की सलाह दे रहे हैं

By तारकेश कुमार ओझा | Jun 09, 2018

वातानुकूलित कमरों में बैठ कर चिंतन-मनन करने वाले खाए-पीए और अघाए नेता के लिए लोगों की मुश्किलों को समझ पाना वैसा ही है मानो शीतलवादियों के आगोश में रहने वाला कोई शख्स तपते रेगिस्तान की फिक्र करे। ट्रेनों में आपात कोटे के आरक्षण के लिए रिक्यूजिशन भेजने वाले वीआइपी उन यात्रियों की परेशानी भला क्या समझेंगे जिनका महीनों पहले आरक्षण कराने के बावजूद सीट कंफर्म नहीं हो पाता और बेचारे नारकीय परिस्थितियों में सफर करने को मजबूर होते हैं। परिवार के चार सदस्य यात्रा कर रहे होते हैं लेकिन भारी मगजमारी के बावजूद सीट दो का ही कंफर्म हो पाता है।

बेशक उपवास, सत्याग्रह और अनशन जैसे अहिंसक आंदोलनों ने अंग्रेज हुकूमत की चूलें हिला दी थीं। लेकिन आज के दौर के राजनेताओं का यह ड्रामा लोगों में कोफ्त पैदा करता है। पहले से हैरान-परेशान जनता को यह जख्मों पर नमक छिड़कने जैसा प्रतीत होता है। क्योंकि सब को पता है कि अपने साथ पेंट्री कार का काफिला लेकर चलने वाले राजनेताओं की उपवास की राजनीति भी जनहित में नहीं बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से स्वहित में है। मुझे लगता है कि उपवास की राजनीति के तीसमार खां यदि इसके बजाय रोज कम से कम पांच साधारण लोगों से मिलने और उनकी तकलीफों को जानने का प्रयास करें तो यह स्वयं उनके हित में भी होगा। क्योंकि इससे उन्हें जनता की नब्ज समझने में सहुलियत होगी।

 

समस्याओं के मकड़ जाल में उलझे लोगों को योग और पुशअप से स्वयं को फिट रखने की सलाह मुझे अजीब लगती है। क्योंकि मेरा मानना है कि जिस तरह भूखा व्यक्ति खाने की कल्पना करके अपनी क्षुधा शांत नहीं कर सकता, उसी तरह अभाव की जिंदगी झेल रहे लोगों की प्राथमिकता अपनी विकट समस्याओं का निस्तारण है न कि फिटनेस। बाहर से सामान्य नजर आने वाले लोग भी किस कदर पारिवारिक-आर्थिक समस्याओं में बुरी तरह से उलझे हैं इसका अहसास मुझे आज एक नाई से हजामत बनाते वक्त हुआ। आपात स्थिति में मुझे शहर के बीचोंबीच स्थित सैलून में हजामत के लिए जाना पड़ा। पहली बातचीत में मुझे

लगा कि इस नाई की आमदनी अच्छी खासी होगी। लेकिन जैसे ही उसे मेरे कलमकार होने की जानकारी हुई उसने मुझसे कोई प्राइवेट नौकरी दिला देने की अपील की। उसकी बातें मुझे अजीब लगीं क्योंकि प्राइवेट नौकरी से परेशान होकर स्व रोजगार ढूंढने की आस रखने वाले तो मैंने बहुत देखे थे। लेकिन यह तो अपना खुद का काम धंधा छोड़ कोई भी नौकरी करने को तैयार बैठा है।

 

उसे समझाने की मेरा तमाम कोशिशें बेकार हुईं। अपनी परेशानी बताते हुए उसने कहा कि ज्यादातर लोग अब फैशनेबल हो चुके हैं और घर पर ही हजामत बनाने के तमाम उपकरण मौजूद हैं। लिहाजा उसके सैलून पर हजामत बनाने कम लोग ही आते हैं। इसका बुरा असर उसके काम-धंधे पर पड़ा है। तिस पर उसकी पारिवारिक जिम्मेदारियां चरम पर हैं। बेटी पढ़ रही है। बेटा गरीबी के बावजूद पढ़ाई में अच्छा है। उसके शिक्षकों ने भी उसे सलाह दी है कि यदि उसे विज्ञान विषय में उच्च शिक्षा दिलाई जाए तो परिणाम अच्छा हो सकता है। हालांकि तंग माली हालत के मद्देनजर उसने बेटे को कई बार किसी ऐसे संकाय से आगे की

पढ़ाई करने को कहा जिसका खर्च वह आसानी से वहन कर सके। लेकिन बेटे ने जिद पकड़ ली है कि वह उच्च शिक्षा हासिल करेगा तो विज्ञान विषय में। वर्ना पढ़ाई छोड़ कर किसी छोटे-मोटे काम-धंधे से जुड़ जाएगा। बेटे की इस जिद ने उसे विचित्र धर्मसंकट में डाल रखा है। इसलिए वह अब अपने पुश्तैनी धंधे से छुटकारा चाहता है। उसे तत्काल कोई नौकरी चाहिए। जिससे उसे निश्चित मासिक आमदनी की गारंटी मिल सके।

 

उसकी समस्या सुन मैं सोच में पड़ गया। सोचने लगा मैं क्या इसे पुशअप कर अपना वीडियो सोशल मीडिया में शेयर करने की सलाह दे सकता हूं। यदि ऐसा करुं तो इसकी प्रतिक्रिया क्या होगी। देश में लाखों लोग इस प्रकार की समस्याओं से परेशान होंगे। क्या हमारे राजनेताओं को इसका अंदाजा भी है। क्या वे ऐसे हैरान-परेशान लोगों की कोई मदद करेंगे... उनकी ऐसी कोई सदिच्छा है भी....

 

-तारकेश कुमार ओझा

(लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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