कभी आंसू कभी ख़ुशी बेची हम गरीबों ने बेकसी बेची, चंद सांसें खरीदने के लिए रोज थोड़ी सी जिन्दगी बेची... कहने के लिए तो ये एक शायरी है लेकिन ये शब्द गरीबी के दर्द को बया करते हैं। इस दर्द को हर कोई नहीं समझ सकता, ये बस वो ही समझ सकता है, जो भूख की तड़प को जानता हो, जिसने बच्चे को भूख से तड़प कर मरते देखा हो, औरत को इज्जत ढंकने के लिए कपड़े के कतरन को बटोरते देखा हो, गरीबी को बस वही समझ सकता है।
कहने के लिए गरीबों की बेबसी का सहारा लेकर हमारे देश की सरकारें खड़ी होती हैं लेकिन जब बात उनके लिए कुछ करने की आती है तो जाति के नाम पर आरक्षण देती है। खैर ये तो सियासी बाते हैं। सरकार जो करती है उसका एक हिस्सा ही गरीबों के घर पहुंचता है बाकी तो रास्ते में अमीरों के घर चला जाता है। ये सिलसिला तो चलता रहेगा।
लेकिन इस दिवाली गरीबों के घर भी रोशनी के दिये जल सकें इस लालसा के साथ दिल्ली के पीतमपुरा में रहने वाले मोहित सतीजा कुछ ऐसा काम कर रहे हैं जो काफी अलग है। मोहित पेशे से एक बिजनेसमैन हैं उनका बेटरीज का काम है लेकिन वो अपने काम से वक्त निकाल कर गरीबों के लिए काम कर रहे हैं।
इस दिवाली मोहित काम से वक्त निकाल कर खुद सजावटी दिये बना रहे हैं और इन दीयों को बाजार में बेच रहे हैं, और दिये बेचकर जो भी कमाई होती है उससे वो गरीबों के घर खाने पीने का सामान भेजते हैं। जब से दिपावली का बाजार लगा है मोहित अपने हाथों से रोज दिये बनाते हैं और उसे बाजार में बेचते हैं और जरूरत मंदों की मदद करने का एक सफल प्रयास कर रहे हैं।
कहते हैं कि अगर आपके पास बहुत पैसा है और आप गरीबों की मदद करते हो तो ये एक साधारण बात है लेकिन खुद हाथ से दिये बनाकर बाजार में दिये बेचना और बेचे गये दियों की कमाई से किसी गरीब के घर को रौशन करना ये असाधरण है। मोहित को इस कदम के लिए शुभकामनाएं।