क्रान्तिकारी इतिहास के अध्येताओं में नाम सुविख्यात है वचनेश त्रिपाठी का

By विजय कुमार | Jan 24, 2018

क्रान्तिकारी इतिहास के अध्येताओं में वचनेश त्रिपाठी का नाम सुविख्यात है। उनके भाषण का विषय साहित्य, धर्म, संस्कृति हो या कुछ और; पर उसमें भगतसिंह, आजाद, बिस्मिल और सुभाष पहुंच ही जाते थे। 24 जनवरी, 1914 को संडीला (जिला हरदोई, उ.प्र.) में श्री महावीर प्रसाद त्रिपाठी के घर में जन्मे वचनेश जी का मूल नाम पुष्करनाथ था। उनकी लौकिक शिक्षा कक्षा बारह तक ही हुई; पर व्यावहारिक ज्ञान के वे अथाह समुद्र थे। उन्होंने कई जगह काम किया; पर उग्र स्वभाव और खरी बात के धनी होने के कारण कहीं टिके नहीं। अटल बिहारी वाजपेयी जब संघ के विस्तारक होकर संडीला भेजे गये, तो वे वचनेश जी के घर पर ही रहते थे। इससे वे दोनों अभिन्न मित्र बन गये।

लखनऊ से जब मासिक राष्ट्रधर्म, साप्ताहिक पांचजन्य और दैनिक स्वदेश का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ, तो इन सबका काम अटल जी पर ही था। उन्होंने वचनेश जी की लेखन प्रतिभा को पहचान कर उन्हें लखनऊ बुला लिया। 1960 में वे ‘तरुण भारत’ के सम्पादक बने। 1967 से 73 तथा 1975 से 84 तक वे राष्ट्रधर्म के तथा 1973 से 75 तक पांचजन्य के सम्पादक रहे। क्रान्तिकारी इतिहास में अत्यधिक रुचि के कारण वे जिस भी पत्र में रहे, उसके कई ‘क्रान्ति विशेषांक’ निकाले, जो अत्यधिक लोकप्रिय हुए। 

 

वचनेश जी ने अनेक पुस्तकें लिखीं। कहानी, कविता, संस्मरण, उपन्यास, इतिहास, निबन्ध, वैचारिक लेख..; अर्थात लेखन की सभी विधाओं में उन्होंने प्रचुर कार्य किया। पत्रकारिता एवं साहित्य में उनके इस योगदान के लिए राष्ट्रपति श्री के.आर. नारायणन ने 2001 ई. में उन्हें ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया। लखनऊ में लम्बे समय तक रहने तथा पत्रकारिता करने के कारण उनका सभी दलों के बड़े नेताओं से अच्छा परिचय था। सब लोग उनका सम्मान भी करते थे; पर वचनेश जी ने इससे कभी कोई लाभ नहीं उठाया।

 

वचनेश जी का क्रान्तिकारियों से अच्छा सम्पर्क था। जयदेव कपूर, शिव वर्मा, काशीराम, देवनारायण भारती, नलिनीकिशोर गुह, मन्मथनाथ गुप्त, पंडित परमानन्द, रमेश चन्द्र गुप्ता, रामदुलारे त्रिवेदी, भगवानदास माहौर, वैशम्पायन, भगतसिंह के भाई कुलतार और भतीजी वीरेन्द्र सन्धू, शचीन्द्रनाथ बख्शी, रामकृष्ण खत्री, सुरेन्द्र पांडे, यशपाल आदि से उनकी बहुत मित्रता थी। वचनेश जी ने स्वतन्त्रता संग्राम में क्रान्तिकारियों के योगदान को लिपिबद्ध करा कर उसे राष्ट्रधर्म, पांचजन्य आदि में प्रकाशित किया। देवनारायण भारती ने उन्हें छद्म नाम ‘बदनेश’ दिया था, जो आगे चलकर वचनेश हो गया।

 

वचनेश जी जब क्रान्तिकारी इतिहास पर बोलते थे, तो उसे कोई चुनौती नहीं दे सकता था; क्योंकि अधिकांश तथ्य उन्होंने स्वयं जाकर एकत्र किये थे। 1984 में सम्पादन कार्य से अवकाश लेने के बाद भी उनकी लेखनी चलती रही। पांचजन्य, राष्ट्रधर्म आदि में उनके लेख सदा प्रकाशित होते रहे। कोलकाता की प्रसिद्ध संस्था ‘श्री बड़ाबाजार कुमार सभा’ ने उन्हें ‘डा. हेडगेवार प्रज्ञा पुरस्कार’ से अलंकृत किया। खादी का कुर्ता-पाजामा और कंधे पर थैला उनकी स्थायी पहचान थी। 92 वर्ष के सक्रिय जीवन के बाद 30 नवम्बर, 2006 को लखनऊ में उनका देहान्त हुआ। उनकी स्मृति में राष्ट्रधर्म मासिक की ओर से वार्षिक व्याख्यानमाला का आयोजन किया जाता है। कविवर रामकृष्ण श्रीवास्तव की निम्न पंक्तियां वचनेश जी पर बिल्कुल सही उतरती हैं।

 

जो कलम सरीखे टूट गये पर झुके नही, 

यह दुनिया उनके आगे शीश झुकाती है।

जो कलम किसी कीमत पर बेची नहीं गयी, 

वह तो मशाल की तरह उठायी जाती है।।

 

- विजय कुमार

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