By सुखी भारती | Nov 20, 2025
भगवान शंकर ने अपनी दिव्य दृष्टि से देख लिया था कि नारद मुनि के हृदय को अहंकार का सर्प डस चुका है। उस विष की ज्वाला अभी मंद नहीं थी; बल्कि तीव्र वेग से उनके मन-मंदिर में फैलती चली जा रही थी। भोलेनाथ के मन में करुणा उमड़ पड़ी—यदि मुनि इसी प्रकार विकृत कथा को लेकर श्रीहरि के समक्ष उपस्थित होंगे, तो उनके कल्याण की राह स्वयं वे ही रोक बैठेंगे।
शंकर ने सोचा—चाहे मुझे कितनी ही विनय क्यों न करनी पड़े, चाहे हाथ-पैर जोड़ कर रोकना पड़े, पर इन्हें इस मार्ग पर नहीं जाने दूँगा।
इसी भावना से भगवान शंकर ने विनम्र स्वर में कहा—
"बार-बार मैं विनय करूँ, हे मुनि!
जैसी कथा तुमने मुझे सुनाई,
वैसी उलट-पुलट बात प्रभु हरि के समक्ष
कभी मत कहना।
यदि कभी प्रसंग उठे, तो
सौम्यता से विषय बदल देना।"
अब इससे अधिक स्पष्ट भला और क्या कहा जा सकता था? किंतु मुनि के भीतर चल रही विचारों की आँधी कुछ और ही कथा बुन चुकी थी। उन्हें लगा—आह! महादेव को मेरे पराक्रम से जलन हो रही है। कहीं ऐसा न हो कि संसार मुझे परमयोगी कहने लगे और उनकी प्रतिष्ठा कुछ दब जाए; अतः इसी भय से वे मुझे रोक रहे हैं।
यह सोचकर मुनि कैलाश से अवश्य निकल आये, पर मन के भीतर कुत्सा के काँटे चुभते ही रहे—भगवान शंकर को क्या आवश्यकता थी मुझे रोकने की? ईर्ष्या की यह कैसी प्रवृत्ति, जिससे देवता तक मुक्त नहीं? पर हमें क्या? समाधि लगाई तो हमने उनके पूछने पर थोड़े ही। बैकुण्ठ भी कोई अनुमति लेकर ही जाते हैं?
इन्हीं उलझे हुए भावों के साथ वे श्रीहरि के धाम पहुँचे। वहाँ चित्र-विचित्र लीला करते भगवान विष्णु ने दूर से ही उन्हें देखकर प्रसन्नता से अपना आसन छोड़ दिया और हर्षोल्लास से आगे बढ़े—
हरषि मिले उठि रमानिकेता,
बैठे आसन मुनि सहित समेता।
हँसकर बोल उठे चराचर नाथ—
बहुत दिनों बाद मुनिवर,
आपकी कृपा प्राप्त हुई।”
श्रीहरि के मुखकमल पर अंकित उस सहज स्नेह ने नारद मुनि का हृदय हिला दिया। उन्हें लगा—वाह! भगवान तो सीधे-सीधे मानो पूछ रहे हों कि इतने दिन मैं कहाँ था। अब मैं क्या छिपाऊँ? अंर्तयामी हैं, सब जानते होंगे; पर मेरे पराक्रम की कथा अवश्य सुनना चाहते होंगे।
और यही वह दुर्भाग्यपूर्ण क्षण था… वही काली घड़ी… जब मुनि ने भगवान शंकर की कठोर चेतावनी को भुलाकर, राम-चरित के स्थान पर काम-चरित सुनाना आरम्भ कर दिया—
जबकि शंकर ने कहा था—
"काम-चरित की चर्चा से बचना,
और प्रसंग बदल देना।"
पर श्रीहरि महान हैं—वे रामभक्त होते हुए भी काम-कथा को अपने कानों तक आने दिया। उनके भीतर अरुचि अवश्य थी, किंतु बाहर सौम्यता ही थी। शब्दों में कोमलता, पर भावों में गंभीर विषाद।
गोस्वामी तुलसीदास इसी दृश्य को अमूल्य शब्दों में बाँधते हैं—
“रुख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान।
तुम्हरे सुमिरन ते मिटहिं मोह, मार, मद, मान।।’’
श्रीहरि ने मधुर वाणी में कहा—
“हे मुनिराज! आपका स्मरण करते ही कहीं का मोह, कहीं का काम, कहीं का अहंकार—सब मिट जाता है। आपका तो क्या ही कहना!
जिसके हृदय में ज्ञान और वैराग्य न हो, उसी के भीतर मोह जन्म लेता है। आप तो ब्रह्मचर्यव्रती महात्मा हैं, धीर-गंभीर हैं। भला कामदेव आप पर क्या प्रभाव डालेगा?”
ऐसा मधुर स्वागत, इतनी सराहना—मुनि पहले कभी इससे अभिषिक्त नहीं हुए थे। वे भाव-विभोर हो उठे। मन में फूलों के गुच्छे खिलने लगे। उन्हें लगा—शूद्रबुद्धि वाले शंकर ने नाहक ही मुझे रोका था। श्रीहरि को तो मेरी कथा अत्यंत प्रिय लगी।
अहंकार का तरु अब अंकुर से वृक्ष बनने लगा था। मुनि ने कहा—
“हे भगवन! यह सब आपकी ही कृपा है।”
किन्तु इनके स्वर में विनय से अधिक अहंभाव का कंपन था। श्रीहरि सब जान रहे थे।
करुणानिधान भगवान ने मन ही मन सोचा—
“इनके हृदय में गर्व का भारी अंकुर फूट आया है।
यदि अभी इसे न उखाड़ा गया,
तो यह महान विपत्ति का कारण बनेगा।
सेवक का हित करना हमारा धर्म है।
अब कोई ऐसा उपाय करना होगा
जिससे इनका कल्याण भी हो
और मेरी लीला भी फलीभूत हो।”
भगवान की आँखों में कौतुक की चंचल ज्योति चमक उठी—एक दिव्य योजना, एक अद्भुत खेल… जो न केवल नारद के अहंकार को शमन करेगा, बल्कि उन्हें पुनः भगवत्पथ पर प्रतिष्ठित भी करेगा।नारद मुनि अभी भी अपने अहंकार के नशे में चूर थे। वे समझ न सके कि प्रभु के वचन जितने मधुर थे, वे उतने ही गहरे भी थे। वह किसी सम्मान का प्रमाण न होकर, एक गहरी परीक्षा की भूमिका थी।
इधर श्रीहरि ने मन ही मन तय कर लिया—
“अब समय आ गया है नारदजी को अहंकार से उबारने का।
मेरा यह खेल उन्हें जगाएगा,
सिखाएगा, और अंत में
उन्हें पुनः मेरे ही चरणों में ले आएगा।"
और इस प्रकार, मंच तैयार था—अहंकार के विनाश और कल्याण की उस दिव्य लीला के लिए
जिसे दुनिया नारद-मोह प्रसंग के नाम से जानती है।
क्रमशः…
- सुखी भारती