सहयोगी दलों को नाराज नहीं करेगी भाजपा, पर ज्यादा दबाव भी नहीं झेलेगी

By अजय कुमार | Jan 03, 2019

भारतीय जनता पार्टी गठबंधन के सहयोगियों की नाराजगी थमने का नाम ही नहीं ले रही है। भाजपा आलाकमान एक को मनाता है तब तक दूसरा रूठ जाता है। यह सिलसिला शिवसेना से शुरू हुआ था और उत्तर प्रदेश में भाजपा की गठबंधन सहयोगी अपना दल (एस) तक पहुंच चुका है। सभी सहयोगी दलों का अपना−अपना दुख−दर्द है। सबको कथित रूप से अपने समाज की अनदेखी किए जाने चिंता है। किसी को दलितों की तो किसी को पटेल, राजभर, जाट  समाज की चिंता सता रही है। यह दल बीजेपी को आंखें भी दिखा रहे हैं और दूसरी तरफ सत्ता की मलाई भी चाट रहे हैं। करीब पांच वर्षों तक सत्ता सुख भोगने के दौरान जो नेता अपनी कौम को भूल गये थे, वह ही आज अपनी कौम की हक दिलाने का ड्रामा करके अपनी सियासी रोटियां सेंकने में लगे हैं। हाल−फिलहाल तक बिहार में लोकजनशक्ति पार्टी के आका रामविलास पासवान नाराज चल रहे थे, लेकिन जैसे ही उनको मनमुताबिक सीटें मिल गईं उनकी नाराजगी खत्म हो गई। शिवसेना भी इसी तर्ज पर बीजेपी पर दबाव की राजनीति कर रही है, जिससे कि महाराष्ट्र में उसकी कुछ ज्यादा सीटों पर दावेदारी मजबूत हो जाये।

 

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उत्तर प्रदेश में भी भाजपा को इसी तरह की मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा है। सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के नेता और योगी कैबिनेट में मंत्री ओम प्रकाश राजभर तो शरू से ही मोदी−योगी सरकार की किरकिरी करा रहे थे, अब इसमें अपना दल का नया नाम भी जुड़ गया है। मोदी सरकार की सत्ता के एक और साझीदार अपना दल (एस) जिसकी नेत्री अनुप्रिया पटेल मोदी कैबिनेट में मंत्री भी हैं, ने भी भाजपा पर दबाव बनाना शुरू किया है, जिससे कि वह कुछ अधिक सीटों के हकदार हो सकें। अपना दल के अध्यक्ष और अनुप्रिया पटेल के पति आशीष पटेल ने भाजपा को तीन राज्यों के चुनाव से सीख लेने की नसीहत दी है। साथ ही कहा है कि यदि हमारा सम्मान नहीं रहेगा तो हम सहयोगी क्यों रहेंगे। इस बीच केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल का बागी तेवर अपनाते हुए भाजपा के साथ प्रस्तावित अपने सारे कार्यक्रम रद्द करना चर्चा का विषय बना हुआ है। इसी क्रम में गत सप्ताह वह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल के जिलों गाजीपुर और वाराणसी में होने वाले कार्यक्रमों में भी मौजूद नहीं रहीं। उधर, बागी सहयोगी नेता और मंत्री ओम प्रकाश राजभर ने भी मोदी के उक्त कार्यक्रमों से दूरी बनाए रखी।

 

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अपना दल (एस) एनडीए गठबंधन का प्रमुख घटक है और पार्टी की संयोजक अनुप्रिया पटेल केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल हैं। पार्टी ने अनुप्रिया की उपेक्षा को ही अपने बागी तेवर का आधार बनाया है, जिसे लोकजनशक्ति पार्टी और शिवसेना की ही तरह अपना दल की चुनावी बिसात के रूप में देखा जा रहा है। दल के अध्यक्ष आशीष खुलकर कह रहे हैं कि प्रदेश में हमारी उपेक्षा की जा रही है। विभिन्न आयोगों में 300 नियुक्तियां हुईं लेकिन, हमारी पार्टी को पूछा तक नहीं गया। हमारे कार्यकर्ताओं पर एससी/एसटी एक्ट के तहत मुकदमे दर्ज होते हैं और कोई सुनवाई नहीं होती। अब तो सरकार के कार्यक्रमों में भी नहीं बुलाया जा रहा। आशीष आरोप तो खूब लगाते हैं मगर वह इस बात का जवाब नहीं दे पाते हैं कि यह अनदेखी उन्हें करीब पांच वर्षों तक क्यों नहीं दिखाई दी।

 

अपना दल अपनी अनदेखी को आधार बनाने के लिये सिद्धार्थनगर की एक घटना का जिक्र कर रहा है। गौरतलब है कि 25 दिसंबर को सिद्धार्थनगर में राजकीय मेडिकल कॉलेज के शिलान्यास पर बिहार के केंद्रीय राज्य मंत्री अश्विनी चौबे को तो बुलाया गया था, लेकिन केंद्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री अनुप्रिया पटेल की अनदेखी की गई। इसी के बाद अपना दल ने तीखे तेवर दिखाना शुरू कर दिया। इससे पहले मिर्जापुर में उन्होंने एनडीए से अलग होने की चेतावनी भी देते हुए यहां तक कह दिया था कि अब तो सपा−बसपा का गठबंधन बड़ी चुनौती बनकर उभरा है। तीन राज्यों की हार से भाजपा नेतृत्व को सबक लेना चाहिए और कमियों पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। अपना दल के शीर्ष नेतृत्व का कहना था कि भाजपा के प्रदेश नेतृत्व के रवैये से उनकी पार्टी के सांसद व विधायकों में भी नाराजगी है। उधर, सिद्धार्थनगर की एक घटना जिसके चलते अपना दल की बीजेपी से नाराजगी काफी बढ़ गई, को बीजेपी भी गलत ठहराने लगी है। वह कह रही है कि ऐसा नहीं होना चाहिए था।

 

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बहरहाल, बात सियासत की हो या सियासी गठबंधन की, अपनी ताकत का प्रदर्शन करने के लिऐ तमाम दलों के नेताओं को समय−समय पर अपनी हैसियत तो दिखानी ही पड़ती है। भाजपा के सहयोगी अपना दल (एस) और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के मुखिया भी लोकसभा चुनाव से पूर्व यही कर रहे हैं। लोकसभा चुनाव सिर पर हैं। अपना दल (एस) हो या फिर सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी दोनों के बगावती तेवरों को भाजपा भले ही सौदेबाजी की सियासत कहे लेकिन इस बगावत के पीछे कहीं न कहीं दोनों की अपनी−अपनी चाहत और गिले−शिकवे भी हैं, जो लंबे सियासी सफर के बावजूद बरकरार हैं।

 

उत्तर प्रदेश में अपना दल (एस) के दो सांसद और नौ विधायक हैं। अपना दल के कोटे से मोदी सरकार में अनुप्रिया पटेल जबकि प्रदेश की योगी सरकार में जय कुमार सिंह राज्यमंत्री हैं। बताते हैं कि 2017 में विधान सभा चुनाव के नतीजे आने के बाद सरकार बनी तो तय हुआ कि अपना दल के अध्यक्ष आशीष पटेल को मंत्रिमंडल में लिया जाएगा। उन्हें एमएलसी भी बनाया गया। मंत्रिमंडल विस्तार में देरी के चलते यह वादा पूरा नहीं हो पाया है। नाराजगी का एक कारण यह भी है। अपना दल और भाजपा के संगठन स्तर पर भी बेहतर तालमेल नहीं है। अपना दल को हमेशा शिकायत रहती है कि चाहे जिलाधिकारी हो या पुलिस अधीक्षक अथवा अन्य सरकारी अधिकारी यह लोग अपना दल के पदाधिकारियों को कोई महत्व नहीं देते हैं। आयोगों में होने वाली नियुक्तियों में भी अपना दल की मांग पर ध्यान नहीं दिया गया। लखनऊ में अपना दल का कार्यालय बनाने के लिए एक कायदे की बिल्डिंग की मांग आज तक पूरी नहीं हुई। बमुश्किल एक बंगला आशीष पटेल को दिया गया। एक शिकवा यह भी है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल में अनुप्रिया पटेल को राज्यमंत्री का दर्जा मिला है लेकिन विभाग में उन्हें कोई महत्वपूर्ण काम नहीं दिया गया। यही नहीं इस नाराजगी के पीछे ज्यादा और मनमाफिक सीटों पर दावेदारी के लिए दांवपेच भी माना जा रहा है।

 

बात सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के मुखिया और योगी कैबिनेट में मंत्री ओमप्रकाश राजभर की कि जाये तो वह भी कोई दमदार विभाग नहीं मिलने से नाराज बताए जाते हैं। यही नहीं उनकी सबसे बड़ी शिकायत है कि सहमति के बावजूद सामाजिक न्याय समिति की रिपोर्ट को लागू कर पिछड़ों के आरक्षण में बंटवारा नहीं किया जा रहा, जबकि वादा यह किया गया था कि इसे अक्तूबर 2018 तक लागू कर दिया जाएगा। राजभर तमाम कोशिशों के बावजूद सिर्फ अपने एक बेटे को ही गनर दिला सके। उन्होंने दोनों बेटों के लिए गनर मांगे थे। असल मुद्दा लोकसभा चुनावों में सीटों की दावेदारी का है। राजभर घोसी लोकसभा सीट के साथ ही पूर्वांचल में पांच सीटें चाहते हैं, जबकि बीजेपी आलाकमान को लगता है कि राजभर कुछ ज्यादा ही बड़ा मुंह खोल रहे हैं।

 

भाजपा गठबंधन में चल रही रस्साकसी का निचोड़ यह है कि लोकसभा चुनाव के मद्देनजर बीजेपी आलाकमान विरोधियों को कोई ऐसा मौका नहीं देना चाहता है जिससे लगे कि एनडीए कमजोर हो रहा है। इसी बात का फायदा बीजेपी के सहयोगी उठाना चाह रहे हैं। इस बात का अहसास बीजेपी आलाकमान को है, इसीलिये वह सहयोगियों को मनाने के अलावा भी अलग से रणनीति बनाती रहती है। इसीलिये नई रणनीति के तहत भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने उत्तर प्रदेश समेत 17 राज्यों में प्रभारियों और सह-प्रभारियों की नई नियुक्ति कर दी है। उत्तर प्रदेश की कमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के पुराने विश्वस्त रहे गुजरात के गोवर्धन झड़पिया को दी गई है। पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने उत्तर प्रदेश में नया इतिहास रचा था। इस बार भी भाजपा इसे दोहराना चाह रही है। शााह ने झड़पिया के सह प्रभारी के रूप में मध्य प्रदेश के नरोत्तम मिश्रा और दुष्यंत गौतम को जिम्मेदारी सौंपी है। झडपिया को संगठन का अच्छा अनुभव है और संघ और विहिप के भी नजदीकी रहे हैं। पटेल समुदाय से आने वाले झड़पिया हिंदुत्व के चेहरे के रूप में भी देखे जाते हैं। वैसे झडपिया को यूपी की जिम्मेदारी सौंपना कुछ लोगों को चौंका भी रहा है, यह लोग इस नियुक्ति को आरएसएस का फैसला बता रहे हैं।

 

 

झडपिया को विहिप के पूर्व नेता प्रवीण तोगडि़या का करीबी और मोदी−शाह विरोधी माना जाता है। मगर अब झडपिया इस मनमुटाव को पुरानी बातें कहकर खारिज कर रहे हैं। खैर, पिछले लोकसभा चुनाव जैसा करिश्मा 2019 में भी करने के लिए जातीय वोट बैंक को कायम रखना भारतीय जनता पार्टी के नवनियुक्त प्रभारियों के लिए बड़ी चुनौती होगा। विषेशकर सपा−बसपा गठबंधन को देखते हुए पिछड़ों व दलितों को साधे रखना आसान नहीं होगा।

 

2014 के लोकसभा एवं 2017 के विधान सभा चुनाव की तरह 2019 में भी पिछड़ों की लामबंदी भाजपा के पक्ष में हो, इसके लिए पटेल समाज से ताल्लुक रखने वाले प्रभारी गोवर्धन झडपिया को मशक्कत करनी होगी। केंद्र सरकार में शामिल अपना दल और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के तेवरों को संभाले रखने में गोवर्धन झडपिया की परीक्षा होगी। इस बात का अहसास झडपिया को भी है। इसीलिये वह कह भी रहे हैं कि अपना दल के संस्थापक स्वर्गीय सोनेलाल पटेल और उनके परिवार से उनके अच्छे संबंध हैं। अपना दल की नाराजगी को दूर कर लिया जायेगा। पूरब में पटेलों को तो पश्चिम यूपी में जाटों को बीजेपी अपने पाले से दूर नहीं जाने देना चाहती है। इस वोट बैंक पर पकड़ बढ़ाने के लिए बीजेपी आलाकमान कुछ स्थानीय दलों के साथ जोड़ने की रणनीति पर काम कर रही हैं। पश्चिमी उप्र में जाटों का अजित सिंह के प्रति बढ़ता रूझान भी बीजेपी के लिये एक बड़ी समस्या है। इसी के चलते कैराना लोकसभा सीट पर हुए उप−चुनाव में बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ा था। झडपिया के साथ बनाए गए सह-प्रभारियों में एक वरिष्ठ दलित नेता दुष्यंत गौतम की भी चर्चा यहां जरूरी है। मूलतः पश्चिमी उप्र के बुलंदशहर जिले के निवासी दुष्यंत गौतम अब दिल्ली में रह रहे हैं। दुष्यंत को सह-प्रभारी बनाकर बीजेपी का थिंक टैंक दलितों के बसपा प्रेम के अलावा भीम आर्मी जैसे संगठनों के लिए दलित युवाओं में बड़ते रूझान को भी कम करने का फार्मूला तलाश रहा है।

 

-अजय कुमार

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