Gyan Ganga: भगवान शंकर जैसी बारात कभी किसी की नहीं निकली

By सुखी भारती | Apr 17, 2025

भगवान शंकर का श्रृंगार हो रहा हो, और उस पर हम यह कह दें, कि ‘बस अब श्रृंगार पूर्ण हुआ!’ तो निश्चित ही, ऐसा कहकर, हम प्रभु के दिव्य स्वरुप के साथ न्याय नहीं कर पा रहे हैं। कारण कि सृष्टि का कण-कण इस इच्छा से सरोबार है, कि हमें जब प्रभु ने इतने प्यार से निर्मित किया है, हमारा गहन प्रीति से श्रृंगार किया है, तो ऐसा कैसे हो सकता है, कि प्रभु के श्रृंगार में सबका योगदान हो रहा हो, और हमें यह शुभअवसर प्राप्त ही न हो। संपूर्ण सृष्टि के समग्र प्रयास होने के बाद भी, क्या यह वास्तव में संभव है, कि प्रभु का श्रृंगार पूर्ण हो सकता है? नहीं! कदापि नहीं। किंतु प्रभु ऐसे निरमल व प्रेम के धनी हैं, कि वे सभी पर अपना प्रेम लुटाते हैं।


खैर! अब श्रृंगार रस लीला से आगे बारात को लेकर चलना था। सभी देवता दानव अपने अपने वाहनों पर सवार होकर तैयार हो खड़े हुए। आज तक के इतिहास में ऐसी बारात कभी किसी की नहीं निकली थी, जो आज भोलेबाबा की निकलने लगी थी। तीनों त्रिदेव एक ही वैवाहिक समारोह में एकत्र हों, ऐसा संयोग दुर्लभ था। भोलेबाबा बैल पर सवार हो चुके थे। भगवान विष्णु ने ठिठोली करते हुए भगवान शंकर को इंगित करते हुए कहा-

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‘बर अनुहारि बरात न भाई।

हँसी करैहहु पर पुर जाई।।

बिष्नु बचन सुनि सुर मुसुकाने।

निज निज सहित बिलगाने।।’


अर्थात हे भाई! हम लोगों की यह बारात वर के योग्य नहीं है। क्या पराए नगर में जाकर आप सब अपनी हँसी कराओगे? सभी देवताओं ने भगवान विष्णु की यह बात सुनी तो वे सभी अपने-अपने वाहनों को अलग कर, अलग दल बना कर खड़े हो गए। महादेव जी यह देखकर मन ही मन मुस्कराते हैं, कि विष्णु भगवान के व्यंग्य वचन नहीं छूटते हैं। अपने प्यारे विष्णु भगवान के इन अति प्रिय वचनों को सुनकर शिवजी ने भी भृंगी को भेजकर अपने सब गणों केा बुलवा लिया। भगवान शंकर की आज्ञा सुनते ही सब चले आए, और उन्होंने स्वामी की चरण कमलों में सिर नवाया। तरह-तरह की सवारियों और तरह-तरह के वेष वाले अपने समाज को देखकर शिवजी हँसे। कारण कि उनके दल में जितने भी बाराती थे, वे कोई बाराती प्रतीत न होकर, निरे भूत पिशाच ही थे-


‘कोउ मुख हीन बिपुल मुख काहू।

बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू।।

बिपुल नयन कोउ नयन बिहीना।

रिष्टपुष्ट कोउ अति तनखीना।।’


कोउ बिना मुख का है, तो किसी के बहुत से मुख हैं। किसी की दशा तो ऐसी है, कि उसके हाथ पैर ही नहीं थे, तो किसी के अनेकों हाथ पैर थे। बात जब नेत्रें की आई, तो किसी के मुख पर बहुत से नेत्र हैं, और कोई एक भी नेत्र को तरस गया था। कोई शिव बाराती बहुत मोटा ताजा है, तो कोई इतना पतला है, कि कहा न जाये।


‘तन की न कोउ अति पीन पावन कोउ अपावन गति धरें।

भूषन कराल कपाल कर सब सद्य सोनित तन भरें।।

खर स्वान सुअर सृकाल मुख गन बेष अगनित को गनै।

बहु जिनस प्रेत पिसाच जोगि जमात बरनत नहिं बनै।।’


अर्थात कोई बहुत दुबला, तो कोई भयंकर मोटा था। कोई पवित्र और कोई अपवित्र वेष धारण किए हुए है। भयंकर गहने पहने हाथ में कपाल लिए हैं, और सब के सब शरीर में ताजा खून लपेटे हुए हैं। गधे, कुत्ते, सुअर और सियार के से उनके मुख हैं। गणों के अनगिनत वेषों को कौन गिने? बहुत प्रकार के प्रेत, पिशाच आरे योगिनियों की जमातें हैं। यह मानों कि उनका वर्णन करते नहीं बनता।


भगवान शंकर की ऐसी अनोखी बारात क्यों है? इसके पीछे अनेकों सामाजिक, आध्यात्मिक व दैवीय कारण हैं। क्या थे वे कारण, जानेंगे अगले अंक में।


क्रमशः


- सुखी भारती

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