यह विपक्षी एकता नहीं अपना अस्तित्व बचाने की चुनौती है

By तरुण विजय | May 28, 2018

कर्नाटक के नए मुख्यमंत्री श्री कुमारस्वामी को बधाई। आशा है कि वे अपने चुनाव प्रचार में कांग्रेस पर जो गंभीर आरोप लगाते हुए और सिद्धारमैया पर कर्नाटक बर्बाद करने की जिम्मेदारी डालते रहे- उन सबसे बेहतर और कारगर सरकार वे दे सकेंगे? उनके शपथ ग्रहण समारोह को भविष्य में मोदी विरोधी एकता दिवस के रूप में मनाया जा सकता है। वे तमाम दल जो कल तक एक दूसरे को मन भर भर कर गालियां दे रहे थे- एक साथ आ खड़े हुए। मकसद सरकार बेहतर चलाना या कोई सामूहिक जन विकास कार्यरूप नहीं था, बल्कि केवल मोदी विरोधी और भाजपा को सत्ता में आने से रोकना ही है।

यह भारतीय राजनीति के लिए कोई नई बात नहीं है। तीसरा मोर्चा भारतीय सार्वजनिक संवाद और चर्चाओं का प्रायः अभिन्न प्रहसन- पर्व बना रहा है। इसे एक अच्छी, दिलचस्प फोटो का अवसर भी कहा जाता है। ममता दीदी, बहन मायावती जी, सोनिया जी, अरविंद भैया, चन्द्राबाबू से लेकर बचे-खुचे खंडहरों को समेट रहे सीताराम येचुरी और बिहार के तेजस्वी भी एक साथ दिखे। जिनके पास कुछ राजनीतिक बल है- वैसे उमर अब्दुल्ला अलग रहे- नवीन पटनायक ने किनारा कर लिया और तेलंगाना के राव एक दिन पहले ही थाल पलटा गए- उन्हें किसी मीटिंग में रहना था।

 

तो फोटो तो अच्छी बन गई। एक अकेले नरेन्द्र मोदी के डर ने इन तमाम छोटे-बड़ों को साथ ला बिठाया। इतना डर कि नेता कोई हो न हो, नगरपालिका चुनाव लड़ने की हैसियत हो न हो, किसी राज्य में एकाध विधायक भी हो न हो, पर सरदी आते ही तनिक से कंबल में आ सिमटने की कोशिश करते ठंड से कंपकंपाते लोग जैसा दृश्य दिखाते हैं- चुनाव सर पर आते ही हार के डर से भयाक्रांत बेचारे विपक्षी नेता एक मंच पर आ सिमटे।

 

सिंह की गर्जना और उनके विराट प्रभाव का मुकाबला सिंह की शक्ति से ही किया जा सकता है। भिन्न-भिन्न आकार, प्रकार और विचार के कायाधारी सत्ता की गोद से एकजुट होकर जितनी भी जोर से आवाज निकालें या धूमधड़ाका करें, वे गर्जना और प्रभाव का विकल्प नहीं बन सकते।

 

कर्नाटक में जो हुआ, वह विजयी लोगों का सफलता का उत्सव नहीं बल्कि परास्त एवं जनता द्वारा अस्वीकार कर दिए परस्पर विरोधी दलों की सत्ता-सुख की आकांक्षा का तमाशा भर था। क्या ये लोग भूल पाएंगे कि राज्य के चुनाव में जनता दल सेक्युलर व कांग्रेस को अपने पिछले रिकार्ड की तुलना में मुंह की खानी पड़ी और भाजपा सबसे अधिक सीटें लेकर दोनों से कहीं आगे रही? जो दल तीसरे स्थान पर पिछड़ गया, वह सत्ताधारी दल बने और जो सबसे ज्यादा सीटें पाए वह विपक्ष में बैठे, यह लोकतंत्र और जनादेश का सम्मान कहा जाएगा?

 

पर सत्ता आंकड़ों का खेल है और जिसे विपक्षी एकता कहा जा रहा है- जिसमें एकता का एकमात्र कारण अपने अस्तित्व को बचाते हुए भाजपा के चक्रवर्ती विस्तार को रोकना है- जनता से छल और चुनावी-विलास का उदाहरण है।

 

बिना शक विपक्ष चाहिए और सशक्त, मुखर, असमझौतावादी विपक्ष चाहिए। यह लोकतंत्र की मांग तथा संवैधानिक संस्थाओं की सुरक्षा एवं दीर्घजीविता के लिए जरूरी है। इसके लिए 2019 का डर नहीं, बल्कि अपने तरीके, अपने सर्वसम्मत कार्यक्रम के जरिए जन-विकास एवं भारत-गौरव बढ़ाने का इच्छा बल चाहिए। यदि ये तमाम दल न्यूनतम स्वीकृत एजेंडा, एक सर्वसम्मत नेतृत्व और सीटों के बंटवारे पर स्वीकार्य फार्मूले के साथ मैदान में उतरें तो निस्संदेह सत्ता दल को चुनौती तो दे ही सकते हैं, जनता के सामने भी साफ सुथरा विकल्प प्रस्तुत कर सकते हैं। पर जिसे विपक्षी एकता कहा जा रहा है उसमें किसी एक बिन्दु पर भी- जिसका सरोकार 2019 से पूर्व चुनावी एजेंडे पर सहमति से हो, कोई मतैक्य नहीं है। न ही होने की कोई संभावना है। ये सब, प्रायः एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ेंगे- सबका सर्वसम्मत एजेंडा होगा मोदी-हराओ, चुनाव के बाद जिसे जितनी सीटें मिलेंगी- उसके आधार पर आंकड़ों का कुनबा जोड़ेंगे।

 

इसे वे विपक्षी एकजुटता कहते हैं। एकजुटता सिर्फ इस बात पर है कि ये लोग एक दूसरे के भ्रष्टाचार पर चुप रहेंगे, चुनावों में धांधलियों, टिकट देने की नीलामी के दौरे को चलने देंगे, अराजक शासन की पद्धति पर खामोशी ओढ़ेंगे, पहले गालियां देंगे फिर गलबहियां डालेंगे। जनता मूक बनी तका करेगी- जैसे कर्नाटक में हुआ।

 

यह भयाक्रांत लोगों की भीड़ जन-गण-मन का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती- यह जन-गण-भय के डरावने रूप को दिखाने वाले चतुर सुजान हैं। देश बहुत मुश्किल से आर्थिक-आतंकवाद से उबरा है, विश्व राजनीति में बहुत लम्बे दौर के बाद भारत सशक्त, सबल, समर्थ राष्ट्र के नाते विश्व में देखा जा रहा है- ऐसे समय में देश के विकास का एजेंडा नहीं बल्कि परस्पर विरोधियों का सत्ता की गोंद से चिपकना किस भविष्य का द्योतक है? इसमें चर्च द्वारा मोदी सरकार को हटाने के लिए प्रार्थनाओं की अपील और भी भयानक हो उठती है- जिसे वैटिकन के षड्यंत्र का हिस्सा माना जा रहा है।

 

क्या इस तमाम परिदृश्य को भारत-तोड़ने वाली उन्हीं ताकतों का पुनः प्रकटीकरण माना जाए, जो गजनवी, के सोमनाथ विध्वंस का कारण बनी थीं? ईश्वर से प्रार्थना है कि ऐसा न हो। यह देश, देशवासियों के सामूहिक मन से ही चले।

 

कर्नाटक में जीती तो भाजपा है। पिछले दरवाजे से हारे हुओं का जमघट सरकार बनाने का प्रयास करे- तो यह कांग्रेस की मोहल्ला-छाप दुरावस्था का ही प्रतीक है। हार में, जीत में गरिमा बनाये रखना अब राजनीति का हिस्सा नहीं। भाजपा भी समझ ले, आने वाला समय केवल पार्टी के लिए नहीं, उन तमाम कार्यकर्ताओं और देहदानी प्रचारकों की कीर्ति को संजोये रखने की परीक्षा का है, जिनके कारण पार्टी इस मुकाम तक पहुंची है। अहंकार बड़े से बड़ा पुण्य भी क्षार का देता है। कांग्रेस इसका उदाहरण है।

 

-तरुण विजय

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