वेबिनारों में हो कुछ नहीं रहा...बस सब एक-दूसरे को उल्लू बनाने पर तुले हैं

By डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त | Jun 10, 2020

अभिनव बड़ी मुश्किल से वर्ष में दो सर्टिफिकट भी प्राप्त करता तो उसे आश्चर्य होता। वह तो उसकी आत्मा ही जानती है कि उसके लिए भी उसे कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं। न जाने कितनी व्यस्तताओं, दावतों, मौज-मस्तियों को दरकिनार करते हुए द्रौपदी के चीर हरण की भांति चलने वाले सेमिनारों में लंबे-चौड़े व्याख्यान सुनने पड़ते हैं। कइयों की तो कट, कॉपी-पेस्ट सामग्री कान से खून निकलवाने पर मजबूर करने वाली होती हैं। उसे तो आश्चर्य उस समय होता जब उसी का एक मित्र आए दिन देश भर में होने वाले सेमिनारों में आयोजकों से पहले पहुँचकर अपनी उपस्थिति दर्ज करा देता। मानो ऐसा लगता कि जैसे आयोजक कोई और नहीं वही हो। सेमिनारों के लगे बैनरों के सामने खड़े होकर फोटो खिंचवाना। जबरन अतिथियों के कंधों पर गिरकर उन्हें यह आभास दिलाना कि हम आपके सबसे बड़े प्रशंसक हैं। मंच पर बोलने का अवसर मिले न मिले किसी भी तरह जोड़-तोड़कर मंच पर चढ़कर व्याख्यान देते हुए फोटो खिंचवाना, फिर उसे लाइक, हिट, शेयर और कमेंट की लालसा में सोशल मीडिया के प्रिय सुपुत्रों व्हाट्सएप, फेसबुक आदि में साझा करना आदि आम बात है।


काश अभिनव को भी अर्जुन की भांति भविष्य बताने वाला श्रीकृष्ण मिल जाता तो कितना अच्छा होता। कोई उसे बता देता कि बेटा बेफिजूल में सर्टिफिकटों के पीछे दौड़ रहा है। आगे-आगे तालाबंदी का समय आने वाला है, तब वेबिनारों की धूम होगी। जिन सर्टिफिकटों के लिए तुम इतने दिन से तरसते रहे, आगे चलकर वे ही तुम्हारे पीछे पड़ने लगेंगे। हिंदी साहित्य में आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल, आधुनिक काल के बाद एक और काल जुड़ेगा, जिसका नाम होगा– वेबिनार काल। कभी-कभी लगता है आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक हिंदी साहित्य की जितनी सामग्री है उतनी सामग्री तो वेबिनार काल के दौरान वक्तागण यूँ लुटाते जा रहे हैं, जैसे यह सरकार का बजट हो। बजट केवल आंकड़ों में अच्छे लगते हैं। न इसे कोई देता है और न कोई इसे लेता है। पहले सेमिनारों में अपनी उपस्थिति से झूमने वाले आजकल सामाजिक दूरी बनाए रखने के लिए जूम में धूम मचा रहे हैं।

 

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अब तो एक दिन में हजारों वेबिनार हो रहे हैं। यदि कोई एक महीना लगातार केवल अपने विषय के वेबिनार अटेंड कर ले तो उसके पास सर्टिफिकटों का इतना बड़ा थैला लद जाएगा कि उसे उठाने के लिए भाड़े का आटो मंगाना होगा। समय तो ऐसा आ गया है कि कोई छींक दे, खाँस दे, हँस दे, रो दे, या कुछ बोल दे तो फट से वेबिनार का आयोजन कर दिया जाता है। प्रशंसा तो प्रतिभागियों की करनी चाहिए। बकायदे डायरी में दिनांक, समय लिखकर फोन या कंप्यूटर के सामने बैठ जाते हैं। जैसे बैल चारा खाकर बड़ी देर से उगाली कर रहा हो। कभी-कभी तो प्रतिभागियों को उन्हीं के सर्टिफिकट देखकर माथा चकराने लगता है। उन्हें ही याद नहीं रहता कि किस वेबिनार के लिए कौन वक्ता आया था और न जाने क्या बोल गया था। वैसे वक्ताओं का भी धंधा बड़े जोरों पर हैं। जिनके पास साहित्य है उनके पास जूम का ज्ञान नहीं और जिनके पास जूम की धूम है उनके पास साहित्य का नाम नहीं। वक्ताओं और प्रतिभागियों के बीच एक अटूट रिश्ता बन जाता है। वक्ताओं को लगता है कि प्रतिभागी हमारी बातें बड़ी ध्यान से सुन रहा है और प्रतिभागी अपनी गंभीर मुद्रा से यह दर्शाते हैं कि उनसे बढ़कर दुनिया में कोई साहित्य पिपासु है ही नहीं। दोनों एक-दूसरे को उल्लू बनाने में तुले हैं। अब भला सेमिनारों में आमने-सामने बैठकर जो ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ वह जूम में बैठकर खाक मिलेगा। हाँ यह अलग बात है गालिब, कि दिल को बहलाने का यह बहाना अच्छा है।      


वैसे वेबिनार का आय़ोजन करना बच्चों का खेल नहीं है। इसके लिए भी काफी तैयारी करनी पड़ती है। प्रतिभागियों को पंजीकरण पत्रों के बहाने निशुल्क प्रमाण-पत्रों के लालच से अपनी ओर ललचाना पड़ता है। पता चला कि एक ही दिन दो-तीन जगह एक ही विषय पर वेबिनार चल रहे हैं तो प्रतिभागियों का दल छिटक सकता है। वक्ताओं की आडियो-वीडियो सेटिंग्स का विशेष ध्यान रखना पड़ता है। थोड़ी-सी चूक वक्ता को प्रतिभागियों की मुख्य धारा से काट सकता है। आयोजन समिति को सेतु की तरह काम करना पड़ता है। वेबिनार और शादी में कई समानताएँ हैं। जैसे शादी के दिन वर की नजर वधू पर, वर के माता-पिता की नजर उपहारों पर और विवाह में आए लोगों की नजर भोजन पर होती है। ठीक उसी तरह आयोजक की नजर वक्ता पर, वक्ता की नजर प्रतिभागियों पर और प्रतिभागियों की नजर सर्टिफिकटों पर होती है। सब मोह-माया का खेल है।

 

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वेबिनार के समय प्रतिभागी भारत-पाक सीमा पर तैनात किसी सिपाही की तरह चौकस रहते हैं। आयोजक आडियो बंद कर देते हैं और प्रतिभागी अपना वीडियो। अपनी फोन की बैटरी, नेटवर्क, डाटा, वाई-फाई, बिजली आदि का पूरा-पूरा ध्यान रखते हैं। वेबिनार के दौरान वे क्या कर रहे हैं, इसका पता लगाना उतना ही कठिन होता है जितना कि आसमान में तारे गिनना। कोई प्रतिभागी घर में भोजन कर रहा होता है तो कोई बच्चों से खेल रहा होता है। कोई टिक-टॉक देख रहा होता है, तो कोई कुछ। हाँ, साथी प्रतिभागियों में काफी एकजुटता देखने को मिलती है। यदि किसी से कुछ छूट गया तो दूसरा उसे तुरंत बता देता है। वे फीडबैक फार्म की बेसब्री से राह देखते रहते हैं। एक बार फार्म भर दिया तो सर्टिफिकट अपनी झोली में। यदि कुछ ऊँच-नीच हो गयी तो वे आयोजकों को फोन कर नाना तरह के बहाने जैसे मेरा फोन बंद हो गया था, बिजली चली गयी थी डाटा खतम हो गया था आदि-आदि। आयोजक भी कोई झंझट नहीं पालना चाहते। इसलिए वे भी सर्टिफिकट देकर पल्ला झाड़ लेते हैं। चूँकि उन्हें भी पता है कि आगे चलकर सरकार तालाबंदी के समय कुकुरमुत्तों की तरह उपजे वेबिनार ई-सर्टिफिकटों को कचरे के डिब्बे में डालने वाली है।


-डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त

सरकारी पाठ्यपुस्तक लेखक, तेलंगाना सरकार


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