बचपन में ही बच्चों के हाथ में मोबाइल फोन देकर बड़ी गलती कर रहे हैं अभिभावक

By संतोष उत्सुक | Jun 06, 2019

कुछ दिन पहले एक संबंधी का फोन आया, तब ड्राइव कर रहा था इसलिए फोन नहीं सुना। रात का समय था सोचा कल सुबह फोन कर लूँगा। अगले दिन उन्हें दो तीन बार फोन किया तो स्विच आफ या नौट रिचेबल आता रहा। शाम को फिर किया तो उनसे बात हुई। मैंने उनसे कहा कि आपने फोन नहीं सुना। बोले घर में छोटे बच्चे आए हुए हैं फोन इनके पास था, मैंने बाद में देखा कि आपकी कौल्ज़ आई हुई थी। मैंने पूछा आप अपना फोन अपने पास क्यूँ नहीं रखते, कोई ज़रूरी संदेश आए तो, वे हंसने लगे बोले क्या करें जी ...बच्चे नहीं छोड़ते।

 

काफी समय पहले अभिभावक छोटे बच्चों का ध्यान बांटने के लिए टीवी ऑन कर देते थे और माताएं घर का काम करती रहतीं या गप्पशप में मशगूल रहती थीं। काफी समय से मोबाइल, हमारे जीवन में खतरनाक तरीके से है। इसे बच्चों के हाथों में दे दिया गया है। वस्तुतः टीवी और खेल उपकरणों की जगह मोबाइल ने ले ली है। आम तौर पर बच्चे शारीरिक विकास से जुड़े खेल नहीं खेलते, उनका संसार तो मोबाइल है।  हम सबने मिलकर पढ़ाई, नौकरी जैसी व्यस्तताओं के कारण बचपन के आँगन से बचपन को भगा दिया है। ज़्यादा सुविधाएं कमाने के चक्कर में बच्चों का स्वास्थ्य, नुकसान पहुंचाने वाले पैक्ड, प्रोसेस्ड व जंक फूड के हवाले कर दिया है। वैसे तो बच्चों को पढ़ाई व दूसरी गतिविधियों से ही फुरसत नहीं लेकिन समय मिलते ही मोबाइल उन्हें जकड़ लेता है। अभिभावक फेसबुक पढ़ते रहते हैं और बच्चों के प्रश्नों से बचने के लिए  उनके हाथ में मोबाइल थमा देते हैं। बाकी काम बच्चे खुद कर लेते हैं। चिप्स चबाते हुए धीरे-धीरे इसकी लत बच्चे को लग जाती है। उधर व्यस्त माता-पिता को पता नहीं चलता कि उनके घर का बिगड़ता बचपन कितने सवाल खड़े कर रहा है, उनके लिए और खुद के लिए भी। वे इस बात पर गर्व महसूस करने लगते हैं कि हमारा बच्चा बहुत शॉर्प है अभी से मोबाइल बहुत अच्छे से चलाने लगा है। कुछ कहते हैं हमारे से ज़्यादा तो हमारे बच्चे को आता है वह तो हमें भी सिखा देता है। ऐसा लगने लगा है कि आजकल बचपन में बुद्धिमान होने का सबसे शानदार प्रमाण मोबाइल चलाना ही रह गया है। धीरे नहीं बहुत तेजी से बच्चे अच्छे से पढ़ने के बहाने, नेट का पैक हथिया लेते हैं और यूट्यूब जैसी सुविधाओं के सहारे बचपन में ही जवान होने लगते हैं। वह दिन दूर नहीं जब बच्चे के पैदा होने पर उसे शहद की जगह मोबाइल चटाया जाएगा। बचपन को बचपन न रहने देने के लिए अभिभावक सीधे जिम्मेदार हैं।

 

इस संदर्भ में जिन विदेशियों की हम नक़ल कर रहे हैं उनके जीवन प्रबंधन पर एक नज़र डालना ज़रूरी है। दिलचस्प यह है कि जिस कंपनी ने दुनिया को आई-फोन व आई-पैड दिया, उसके सह-संस्थापक ने अपने बच्चों को कभी उसे हाथ तक नहीं लगाने दिया। जी हां, एप्पल के स्टीव जॉब्स ने अपने घर पर टेक्नोलोजी के इस्तेमाल की सीमा तय कर रखी है। उन्हें ज़रूर आभास रहा होगा कि जब कोई इंसान स्मार्टफोन का लती हो जाता है समाज से दूर हो जाता है।

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दुनिया की दिग्गज प्रोद्योगिकी कंपनियों में काम करने वाले लोग अपने बच्चों की परवरिश प्रौद्योगिकी से दूर रखकर कर रहे हैं। बच्चों को नॉन टेकनो स्कूलों में भेजा जा रहा है। जहां कम्पयूटर की बजाय किताबों पर आधारित शिक्षा पर ज़ोर दिया जाता है। अनुशासन की सीमाओं में कोई भी काम किया जाए तो नुकसान नहीं करता। हमारे यहां स्थिति बिलकुल उलट है और अब हाथ से सचमुच निकल रही है। हमारे यहाँ तो अभिभावक ही फोन नहीं छोड़ते, बच्चे उनसे ही सीखेंगे न। क्या हमने कभी विदेशियों से उनकी अच्छी बातें, आदतें सीखीं। हम अक्सर बच्चों को पहले गलत सुविधाओं के नाम पर जी भर कर बिगाड़ते हैं, लंबे समय तक उनकी ज़िद व गलत आदतों को मनोरंजन समझते रहते हैं, कोई बात नहीं बच्चे हैं कहते रहते हैं। फिर जब स्थिति हाथ से निकल रही होती है या निकल चुकी होती है तो घोषणा कर देते हैं कि आजकल के बच्चे बहुत खराब होते हैं।

 

यह कितना प्रशंसनीय है कि माइक्रोसॉफ्ट के संस्थापक बिल गेट्स ने अपने बच्चों को 14 साल की उम्र तक मोबाइल नहीं दिया था। कुछ साल पहले जब उनकी बेटी वीडियो गेम खेलने के प्रति आसक्त होने लगी तो उन्होंने घर पर बच्चों के लिए समय सीमा तय कर दी। उनके घर में कोई भी खाने की मेज़ पर मोबाइल प्रयोग नहीं कर सकता। वे रात के खाने के समय बच्चों से सिर्फ इतिहास और नई किताबों पर चर्चा करते हैं। क्या हम ऐसी शुरुआत अपने जीवन में कर सकते हैं। सुखद यह होगा कि हर अभिभावक बदलाव की शुरुआत करें। अभिभावक सही संवाद शुरू करेंगे तो बच्चे मोबाइल की गोद में नहीं बैठेंगे।

 

-संतोष उत्सुक

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