प्रतिबंध के बावजूद धड़ल्ले से उपयोग हो रहा है प्लास्टिक, है किसी को परवाह?

By संतोष उत्सुक | Sep 22, 2018

पिछले दिनों किसी लेख में संदर्भ था कि केंद्र सरकार ने पचास माइक्रोन से कम मोटाई के पालिथिन लिफाफों पर पूरे देश में प्रतिबंध लगा रखा है। उन्नतीस राज्य व सात केन्द्र शासित प्रदेशों में से कई सरकारों ने राजनीतिक मजबूरियों की गोद में बैठकर, किंतु परन्तु करते हुए पालिथिन प्रयोग पर बैन तो लगाया है लेकिन वस्तुतः स्थिति कुछ और ही है। मैंने कल हरियाणा के एक फल विक्रेता से महंगे सेब खरीदे जो मुझे नीले रंग के पालिथिन के लिफाफे में प्राप्त हुए। यह राष्ट्रीय तथ्य है हमारे यहाँ जो बैन कर दिया जाता है उसे अबैन करने में आनंद मिलता है। सभी राज्यों में सब एक जैसा लागू नहीं किया जा सकता, राजनीतिक विसंगतियां ज़रूर रहती हैं। विक्रेताओं, क्रेताओं व आम लोगों को पालिथिन से निकलने में बहुत तकलीफ हो रही है। हालांकि पर्यावरण व धरती को हो चुके व संभावित नुकसान के मद्देनजर पालिथिन के कुप्रभावों को लोगों ने ‘समझना’ शुरू किया है मगर ज्यादा खुश होने की ज़रूरत नहीं है।

 

कारण स्पष्ट है- पालिथिन एक लाजवाब, बार-बार लगातार प्रयोग किया जाने वाला अद्भुत उत्पाद है। पूरी शारीरिक लगन व सच्ची भक्ति से हमने इसे आत्मसात किया हुआ है। इतना कि एक हाथ से हम पालिथिन प्रयोग त्यागने का ज़ोरदार नारा लगाते हैं और दूसरे हाथ से पालिथिन विरोधी रैली के मुख्य अतिथि को देने के लिए चमचमाते पॉलिपैक में लिपटा गुलदस्ता थामे रखते हैं। वस्तुतः हम पालिथिन व इसके सहउत्पादों की आरामदायक गोद में पसरे हुए हैं। इससे पीछा छूटना आसान नहीं है। अभी भी दूध, ब्रैड, खाने का सामान, कपड़े, खिलौने, पूजन सामग्री कहिए, लगभग हर वस्तु मोटे पतले आकर्षक रंग बिरंगे पालिपैक में लिपटी है। यहां तक कि शादी के निमंत्रण कार्ड भी पालिपैक में हैं।

 

खाने की ज़रा बात कर लें, बर्थडे केक पर रंगबिरंगी क्रीम के साथ रंगीन पॉलिप्लास्टिक के कटे हुए फूल, रिबन, लम्बे पत्तियांनुमा टुकड़ों से सजावट की जा रही है। मोमो की एक प्लेट पैक करवाएं तो उसमें तीन तरह की चटनी के लिए तीन व कुल मिलाकर पालिथिन के पांच बैग प्रयोग हो रहे हैं। विवाह में क्राकरी की जगह प्लास्टिक प्लेट, कटोरी, चम्मच, गिलास ने हथिया ली है। पढ़े लिखे समझदार नागरिक घर का कचरा, कचरा ले जाने वाले को न देकर स्वयं भी नगरपालिका के कूड़ेदान मे फेंकने की ज़हमत न करके पालिथिन में भरकर कहीं भी रख देते या फैंक देते हैं। अगली कृपा विस्थापित जानवर कर देते हैं। सुविधाओं की ऊंची नाक तले हमें अच्छी परम्पराओं व पुरातन वस्तुओं में रूढ़िवाद की बदबू आती रही तभी तो आंखें मीचकर हमने पालिथिन व प्लास्टिक के बीहड़ में परिणामों के बारे में बिना सोचे समझे बेधड़क प्रवेश किया। अब पालिथिन ने खूब धूम मचाकर गर्दन पकड़ ली है और सांस घुटना शुरू हुआ तो तकलीफ हो रही है मगर अभी भी आधार स्तर पर तो बिलकुल चेत नहीं रहे। काग़ज़, जूट व कपड़े के थैले हाथों में आ चुके हैं लेकिन कितने।

 

सरकार ने पालिथिन पर बैन लगा दिया, सख्त व ताक़तवर क़ानून बना दिए मगर आज तक कार्यान्वयन नहीं हुआ। सीधी-सी बात है जब देश में पालिथिन बनाने के नित नए यूनिट्स लगाए जा रहे हैं। उत्पादन और प्रयोग बढ़ता जा रहा है, बैन लगाना व्यवहारिक नहीं है। सरकार अच्छी तरह समझती है जब पालिथिन का उत्पादन बंद नहीं हो सकता तो प्रयोग पर बैन कैसे लग सकता है। सही उपाय है प्रयोग हो चुके पालिथिन को रिसाईकिल करने के लिए यूनिट्स लगाए जाएं। नगरपालिका यह कार्य करे और उसे वांछित सही कर्मचारियों व उपकरणों की कमी न हो। नागरिक अपना कर्तव्य समझें और नगरपालिकाएं अपना। दोनों के ईमानदार सामंजस्य से बात बन सकती है। सिर्फ बैन लगाने से कतई नहीं। यह स्वीकार्य होगा कि मन के किसी कोने में बदलाव का बीज होता है। ऐसे लोग अभी हैं जो पुराने सही रास्ते पर चल रहे हैं। कहीं छोटी सी दुकान पर चाट कचौड़ी समोसे छोले आलू टिक्की पानीपूरी दही पत्ते के दोने में, काफी लोगों द्वारा हाथ से खाया जा रहा है। इनमें पढ़े लिखे शहरी ग्राहक भी हैं। ऐसे प्रयोग प्रेरक हैं मगर प्रेरणा तो स्वतः उगानी होगी।

 

यह सभी जानते हैं कि पालिथिन प्लास्टिक कचरा जो हम प्रतिपादित कर रहे हैं कभी नष्ट न होने वाला है। वैज्ञानिक मौसम चक्र में आ रहे प्राकृतिक असंतुलन का प्रमुख कारण पालिथिन को बता चुके हैं। पालिपैक्स का कचरा अभी भी चहूंओर बिखरा पड़ा है। सोचना यह है कि जितना पालिथिन अभी हमारी ज़िंदगी पर चिपका है उसे कैसे उतारा जाए। क्या हम अपनी जड़ों की तरफ लौटते हुए कठोर निर्णय लेकर विकास की कुछ जड़ें काटने में सक्षम हो सकते हैं। शायद नहीं। सही प्रयोग व बदलाव को अनुशासन समझकर अपना लें। थोड़ा कष्ट कुछ समय तक होगा मगर सही निस्वार्थ उपायों से स्थायी परिवर्तन आएगा और रहेगा। सुप्त संस्कृति में प्राण तो बचे हैं जान भी लौट आएगी। सरकार की सूझबूझ भरी पहल को राजनीतिज्ञों, अफसरशाही व प्रशासन के साथ-साथ सामाजिक संस्थाओं, समूहों व हर नागरिक के निस्वार्थ नहीं बल्कि नितांत व्यव्हारिक मानसिक दृष्टिकोण की ज़रूरत होती है। हम क्यों सोचते रहते हैं कि कानून सरकार ने बनाया सरकार ही लागू करवाए, स्वानुशासन से बड़ा शासक कोई नहीं।

 

-संतोष उत्सुक

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