पिसता बचपन (कविता)

By शिखा अग्रवाल | Jun 12, 2023

छोटे-छोटे बच्चों को कठोर काम करते देखकर लोगों का हृदय द्रवित हो जाना चाहिए मगर ऐसा होता नहीं है। बहुत से घरों में छोटे बच्चों को घरेलू कामगार के रूप में काम करते देखा जा सकता है। जहां संपन्न परिवारों के बच्चे अच्छे और महंगे स्कूलों में पढ़ते हैं। वही उसी घर में एक गरीब मां बाप का छोटा बच्चा उनके घरेलू काम करता नजर आता है। कवियत्री ने इस कविता में बताया है कि बच्चों को इस उम्र में खेलना-कूदना और पढ़ना चाहिए वह गरीबी के कारण श्रम करके दो टाइम की रोटी को कमाने में लगे हैं।


नन्हीं-नन्हीं किलकारियां,

घर में जब गूंजती हैं,

हर्ष की लहरें,

मन-समंदर में हिलोरे मारती हैं।

कुछ पल में खुशियां भी रूठ जाती हैं,

मजबूरियों की आड़ में जब यह चौराहों पर बिक जाती हैं।


2 जून की रोटी कमाने,

बचपन निकला है सड़क नापने,

दर-दर वह भटकता है,

नंगे पांव में छाला भी पड़ता है,

फटे कपड़े-फटे होठों से,

भिक्षामदेही करता रहता है।


पढ़ने लिखने की उम्र में,

पेंसिल की शक्ल भी वो न जानता है।

खुद खिलौना-फैक्ट्री में काम करता,

खिलौना चलाना भी नहीं जानता है।


पेट पालने का तरीका ना इनको आता है,

बाल वेश्यावृत्ति में धकेल दिया जाता है।

नशे की गिरफ़्त में पड़ता नन्हा बचपन,

खतरनाक बीमारियों का जंजाल जकड़ता है।


खैनी, बीड़ी, भांग, मदिरा में लिप्त,

दबा मुंह में गुटखा, पान का बीड़ा,

गैंग की चक्की में पिसता जाता है।

मंद रोशनी में रात बुनता गलीचा,

सुबह मालिक की मार खाता है।

दीया सिलाई की चूरी बनाता,

स्वाहा अपना बचपन करता है।


केवल अधिनियम बनाने से क्या होता है!

ये तो केवल कागज़ों के ज़ेवर हैं।

असली ज़ेवर तो ये बच्चे हैं,

जिन्हें हम टका-दो-टका में बेच देते हैं,

कानून के रखवाले भी तराज़ू ले खड़े हो जाते हैं,

फिर "बालश्रम निषेध दिवस" मनाने का उद्घोष करते हैं।


इनकी दारुण दशा देख,,

कुछ सवालों से मेरा मन भर-भर जाता है,,

क्या हम घरों में बालश्रम को बढ़ावा नहीं देते?

क्या हम महरी की लड़की से बर्तन नहीं मंजवा लेते ?

क्या माली के लड़के से टैंक साफ नहीं करवा लेते ?

क्यों हम किसी ढाबे पर 'छोटू' को बुलाते हैं?

क्यों किसी 'पप्पू' से हम चाय मंगवाते हैं?

क्या यही मेरे देश की पहचान है?

कहने को ये रणबांकुरों की भूमि महान् है!


सजग हो जाओ हिंद के वासियों!

यह कहानी सिर्फ गरीबों की नहीं,

अमीरों की औलादें भी गैंग का शिकार हो रही,

अपहरण कर अपराध की दुनिया में धकेली जा रही।


भविष्य में गर हमारी भी औलादें भीख मांगे,

तो गुजारिश बस इतनी सी है-

दोष समाज को नहीं स्वयं को देना है,

र्दूदिन देखने से पहले हमको संभलना है।

ना बच्चों से श्रम करवाना है,

ना उनसे भीख मंगवानी है,

कलम से इनकी जिंदगी बनानी है।


आज 21वें बालश्रम निषेध दिवस पर,

सौगंध हर व्यक्ति को लेनी है,

स्वयं के घर से ही शुरुआत करनी है,

आईएलओ की थीम,

"सार्वभौमिक सामाजिक संरक्षण से अंत बालश्रम"

की पालना सबको करनी है।

हर हाथ में,

फावड़ा न कुदाल,

सिर्फ किताब बच्चों को देनी है,

मशाल ये जन-जन में जलानी है।


- शिखा अग्रवाल

भीलवाड़ा (राजस्थान)

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