"मेरी बगिया" (कविता)

By प्रमोद गुप्ता | Oct 16, 2021

भागदौड़ भरी जिंदगी में इंसान लगातार प्रकृति से दूर होता जा रहा है। हालांकि अगर आप चाहें तो अपने आस-पास हरियाली रख सकते हैं और इस हरियाली का महत्व आपके जीवन में कुछ अलग ही अहसास करायेगा। अपनी कविता में कवि इसी को बताने की कोशिश कर रहे हैं। 


अँगने में है एक छोटी सी बगिया।

रोज सुबह सुबह होती है इससे मुलाकात मेरी,

फिर हो जाती है खूबसूरत दिन की शुरूआत मेरी।


आज बताता हूँ तुम्हे इनकी बात, 

धडकनों में पा जाओगे स्पंदन के एहसास।


भानू की पहली किरण कर चली सुनहरा सा स्पर्श,

"गुडहल" की कली, ले अँगड़ाई,

गयी मचल मचल।

"डेलिया" की कली हो चली, खिल जाने को बेकरार।


आए हैं कुछ निखार ऐसे,

गौरी ने किऐ हों, सोलह सिंगार जैसे।


शर्म हया से झुकी झुकी, ये अनार की "कली"

नजाकत ऐसी, जैसे पनघट पर पग बढ़ाती "दुल्हनिया" चली ।


"जरबेरा" के ये खिलखिलाते सतरंगी फूल,

थिरकने क्यों ना लगे, मेरे मन के मयूर।


"गुलाब" की कलियों के आवरण

ऐसे हटते हुए।

नव ब्याहता के घूँघट जैसै सरकते हुए।

तोरी और घीया की बेले पींगे चढा रही ऐसे। 

अल्हड़ सी सखियाँ गलबंदिया कर मुस्करा रही हो जैसे ।


"मोगरे "और "चमेली" की ये महक, 

क्यों ना दिल किसी का जाए बहक।


भ्रमित हो उठे "भ्रमर"

मनमोहिनीयों को देख, हो रहे ये दंग। 


पौधे के गमले को बदला है जब भी है मैंने।

एहसास शिशु की "नैपी" बदलने के पाया है मैंने।


पवन के वेग, सूर्य के तेज, सावन की बरखा, 

कहां डिगा पाई है, अविरल अडिग हौसले इसके,

बदले जाती है, ऋतुओं के संग रूप अपने, 

स्निग्धता और शीतलता के स्वरूप, पर रखे हैं कायम अपने।


रिश्ते के सेतू मेरी और बगिया के बीच ऐसे।

उमंग, उत्साह की तरंगे पाती 

है खुद को अधूरी,

इनसे मिले बिना जैसे।


- प्रमोद गुप्ता (बगड)

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