प्रोफाइल लॉक का दर्दे बयां (व्यंग्य)

By अरुण अर्णव खरे | Sep 29, 2021

उस दिन सुबह-सुबह जागते ही आदत के मुताबिक़ जैसे ही मोबाइल हाथ में लिया तो देखा तीन-तीन मोहत्तरमाओं की फ़्रेंड रिक्वेस्ट आई है। महिलाओं के प्रति विशेष अनुग्रह और संवेदनशीलता के कारण मैंने ब्रश करना भी स्थगित कर दिया और उनकी प्रोफ़ाइल में ताकने का फ़ैसला कर लिया। शुरु से ही संवेदनशील मामलों में त्वरित फ़ैसला लेने की मेरी आदत रही है इसी कारण मेरी फ़्रेंड लिस्ट में आपको जेंडर इनइक्वेलिटी नज़र नहीं आएगी। सरकारें  भले ही महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने के वर्षों पुराने वादे को अब तक पूरा नहीं कर पाई हों... पर मैं सरकार नहीं हूँ इसलिए वादों में मेरा यकीन कभी नहीं रहा। मुझे हमेशा अपने कर्तव्य और पौरुष पर भरोसा रहा है। यही कारण है कि मैंने अपने पाँच हजार दोस्तों की सूची में आधे से ज्यादा स्थान यानि कि 2501 फेसबुक की दुनिया में उतरते ही स्वप्रेरणा से महिलाओं के हक में करने का निर्णय कर लिया था। यद्यपि मेरी इस दरियादिली से मेरी बेटरहॉफ कुछ खिंची-खिंची, ख़फ़ा-खफा रहती है। चूँकि उसे मैं सच में बेटरहॉफ मानता हूँ इसलिए भी अपनी मित्रता-सूची में उसकी बिरादरी को बेटर स्थान देना मेरी प्राथमिकता में शामिल है।

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बात तीन-तीन मोहत्तरमाओं की एक साथ मिली फ़्रेंड-रिक्वेस्ट से शुरु हुई थी। प्रोफ़ाइल पिक्चर ही उनके बारे में और जानने की ललक पैदा कर रही थी। उनको अपनी फ्रेंड-लिस्ट में शामिल करने के लिए सबसे पहले मैंने तीन ज्वलनशील मित्रों को बाहर का रास्ता दिखाया। पर यह क्या... उनकी रिक्वेस्ट पर क्लिक करते ही मेरी उम्मीदों पर दो डेग्री से भी नीचे वाला ठण्डा पानी पड़ गया। तीनों की ही प्रोफ़ाइल लॉक थी। आठ-दस कॉमन फ़्रेंड्स के नामों के अलावा कुछ भी देख पाना संभव नहीं था। मैंने माथा ठोंक लिया। दोस्ती की दरकार भी और बेमुरब्बत व्यवहार भी। कुछ-कुछ वैसा ही अनुभव हो रहा था जैसा कि कुछ समय पूर्व पुराने मित्र कौतुकमणि तिवारी की ओर से रात्रि-भोज का आकस्मिक निमंत्रण मिलने पर हुआ था और जब मैं सज-सँवर कर उनके घर पहुँचा तो इंटरलॉक के साथ ही दरवाजे पर नवताल का बड़ा सा ताला जड़ा देखा था ... याकि मधुरात्रि में कोई वर जैसे ही अपनी वामांगी का घूंघट उठाने जा रहा हो और बत्ती गुल हो गई हो... याकि कोई भक्त देव दर्शन के लिए हाँफते हुए मंदिर पहुँचा हो और मंदिर के कपाट बंद मिले हों। इसी ऊहापोह में मुझे लगने लगा कि मोहत्तरामाओं की केवल प्रोफाइल ही लॉक नहीं है अपितु उनने मुझे ही लॉक-अप में पहुँचा दिया है।

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कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था कि बिस्तर से उठाने के चक्कर में श्रीमती जी ने केरवान चालू कर दिया। उस पर बज रहे पहले ही गाने "रुख से जरा नकाब उठा दो मेरे हुजूर" को सुनकर लगा कि जैसे हल मिल गया। सोचा, गीत की यही पंक्ति लिख कर उन तीनों को मैसेंजर में भेज देता हूँ पर तभी दूसरे गाने "पर्दे में रहने दो, पर्दा जो उठ गया तो भेद खुल जाएगा" ने टाइपिंग के लिए उठे हाथों को रोक दिया। दिमाग चकराने लगा। हार कर सोशल मीडिया के परम ज्ञानी और वामप्रस्थ की उम्र में भी आसाराम और रामरहीम के प्रति अडिग श्रद्धाभाव रखने वाले पं रसिक लाल बैरागी से सलाह माँगी। आज पूरे तीन हो गए उनकी सलाह का इंतजार करते हुए। लगता है उनका उर्वरा मस्तिष्क भी जवाब दे गया है। अब हार कर तमाम नाजनीनों और महजबीनों के दरबार में सलाह की अर्जी पेश कर रहा हूँ... आशा है इस बार निराश नहीं होना पड़ेगा।


- अरुण अर्णव खरे

 भोपाल (म०प्र०)

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