By अनन्या मिश्रा | Dec 30, 2025
आज ही के दिन यानी की 30 दिसंबर को महान भारतीय संत और दार्शनिक महर्षि रमण का जन्म हुआ था। महर्षि रमण को महज 17 साल की उम्र में गहन आध्यात्मिक अनुभव हुआ। जिसके बाद उन्होंने अपना घर त्याग दिया और तिरुवन्नामलाई में अरुणाचल पर्वत पर रहकर ज्ञान का प्रकाश फैलाया।
20वीं सदी के एक महान भारतीय संत और दार्शनिक महर्षि रमण का 30 दिसंबर को जन्म हुआ था। उन्होंने 'आत्म विचार' के मार्ग से आत्मज्ञान प्राप्त करने की शिक्षा दी थी। वहीं महर्षि रमण को महज 17 साल की उम्र में गहन आध्यात्मिक अनुभव हुआ। जिसके बाद उन्होंने अपना घर त्याग दिया और तिरुवन्नामलाई में अरुणाचल पर्वत पर रहकर ज्ञान का प्रकाश फैलाया। बता दें कि महर्षि रमण ने 'अहम्' को मिटाने और 'मैं कौन हूं' प्रश्न पर ध्यान केंद्रित करने पर जोर दिया। तो आइए जानते हैं उनकी बर्थ एनिवर्सरी के मौके पर महर्षि रमण के जीवन से जुड़ी कुछ रोचक बातों के बारे में...
तमिलनाडु राज्य के तिरुचुझी नामक एक छोटे से गांव में 30 दिसंबर 1879 को महर्षि रमण का जन्म हुआ था। उनके बचपन का नाम वेंकटरमन अय्यर था और उन्होंने जीवन की शुरूआत एक आम बालक के रूप में की थी। उन्होंने एक मिशनरी विद्यालय में शिक्षा प्राप्त की और थोड़ी-बहुत अंग्रेजी सीखी।
बचपन से ही रमण को लगता था कि अरुनाचला में कुछ रहस्यमय है। जिसको समझना जरूरी है। रमण ने 63 शिव संतो से संबंधित एक धार्मिक पुस्तक पढ़ी। यह रमण का पहला धार्मिक साहित्य था। वहीं 17 साल की उम्र में उनको पहला आध्यात्मिक अनुभव हुआ था। एक दिन वह घर की पहली मंजिल पर बैठे थे। अचानक से उनको मृत्यु का अनुभव हुआ और उनको महसूस हुआ कि वह मरने जा रहे हैं। लेकिन वह शांतिपूर्वक सोचने लगे कि अब मृत्यु आ गई है।
वह फौरन लेट गए और अपने हाथ-पैरों को सख्त कर लिया और सांस रोककर होठों को बंद कर लिया। इस दौरान महर्षि रमण का जैविक शरीर शव के समान था। उन्होंने सोचा कि शरीर के साथ क्या वह भी मन गए हैं। शरीर शांत है, लेकिन वह पूर्ण शक्ति और अपनी आवाज को महसूस कर पा रहे हैं। तब उनको समझ आया कि वह शरीर से परे एक आत्मा हैं, शरीर मर जाता है और आत्मा को मृत्यु छू भी नहीं पाती है। इस घटना के बाद मृत्यु का डर हमेशा से गायब हो गया।
इस तरह से वेंकटरमण ने बिना किसी साधना के अपने आप को आध्यात्मिकता के शिखर पर पाया। जो लड़का वेंटकरमण के नाम से जाना जाता था, जो बाद में एक साधु-संत में बदल गया। अब वह पूर्ण आत्मज्ञान के साथ विकसित ज्ञानी बन गए। इसके बाद उन्होंने घर छोड़ने का फैसला कर लिया। उन्होंने पवित्र अरुनाचला पर्वत की यात्रा शुरूकर दी। मदुरई से तिरुवन्नामलाई करीब 400 किमी दूर है। यहां पहुंचकर वह अरुनाचलेश्वर मंदिर पहुंचे। वहां मंदिर के पुजारी नहीं थे और वह सीधे मंदिर के गर्भगृह में चले गए। इस दौरान उनको अकथनीय आनंद का अनुभव हुआ। पवित्र अरुनाचलेश्वर मंदिर ही तिरुवान्नालाई में उनका पहला घर था।
वहीं अंत समय में महर्षि रमण का स्वास्थ्य खराब रहने लगा। वह जानते थे कि उनका आखिरी समय अब पास में है। उनकी आंखों में एक चमक रहती थी और इस दौरान भी उन्होंने अपने भक्तों से मिलना जारी रखा। वहीं 14 अप्रैल 1950 को शाम के समय उन्होंने अपने भक्तों को दर्शन दिए और फिर थोड़े समय के लिए उन्होंने अपनी आंखें खोली और उनके चेहरे पर एक मुस्कान थी। फिर एक गहरी श्वांस लेते हुए महर्षि रमण ने अपना शरीर त्याग दिया।