Gyan Ganga: रामचरितमानस- जानिये भाग-19 में क्या क्या हुआ

By आरएन तिवारी | May 17, 2025

श्री रामचन्द्राय नम:


पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं

मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्।

श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये

ते संसारपतङ्गघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः॥


गोस्वामी जी अब रामचरित मानस का स्वरूप और उसके महात्म्य का वर्णन करते हुए कहते हैं ----

मानस का रूप और माहात्म्य 


पुलक बाटिका बाग बन सुख सुबिहंग बिहारु।

माली सुमन सनेह जल सींचत लोचन चारु॥


कथा में जो रोमांच होता है, वही वाटिका, बाग और वन है और जो सुख होता है, वही सुंदर पक्षियों का विहार है। निर्मल मन ही माली है, जो प्रेमरूपी जल से सुंदर नेत्रों द्वारा उनको सींचता है॥

  

तेहि कारन आवत हियँ हारे। कामी काक बलाक बिचारे॥

आवत ऐहिं सर अति कठिनाई। राम कृपा बिनु आइ न जाई॥


इसी कारण बेचारे कौवे और बगुले रूपी विषयी लोग यहाँ आते हुए हृदय में हार मान जाते हैं, क्योंकि इस सरोवर तक आने में कठिनाइयाँ बहुत हैं। श्री रामजी की कृपा बिना यहाँ नहीं आया जाता॥

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बन बहु बिषम मोह मद माना। नदीं कुतर्क भयंकर नाना॥


मोह, मद और मान ही बहुत से बीहड़ वन हैं और नाना प्रकार के कुतर्क ही भयानक नदियाँ हैं॥

 

जौं करि कष्ट जाइ पुनि कोई। जातहिं नीद जुड़ाई होई॥

जड़ता जाड़ बिषम उर लागा। गएहुँ न मज्जन पाव अभागा॥


यदि कोई मनुष्य कष्ट उठाकर वहाँ तक पहुँच भी जाए, तो वहाँ जाते ही उसे नींद रूपी ज़ूडी आ जाती है। हृदय में मूर्खता रूपी बड़ा कड़ा जाड़ा लगने लगता है, जिससे वहाँ जाकर भी वह अभागा स्नान नहीं कर पाता॥

  

अस मानस मानस चख चाही। भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही॥

भयउ हृदयँ आनंद उछाहू। उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू॥


ऐसे मानस सरोवर को हृदय के नेत्रों से देखकर और उसमें गोता लगाकर कवि की बुद्धि निर्मल हो गई, हृदय में आनंद और उत्साह भर गया और प्रेम तथा आनंद का प्रवाह उमड़ आया॥


श्रोता त्रिबिध समाज पुर ग्राम नगर दुहुँ कूल।

संतसभा अनुपम अवध सकल सुमंगल मूल॥


तीनों प्रकार के श्रोताओं का समाज ही इस नदी के दोनों किनारों पर बसे हुए पुरवे, गाँव और नगर में है और संतों की सभा ही सब सुंदर मंगलों की जड़ अनुपम अयोध्याजी हैं॥39॥

 

चौपाई :


रामभगति सुरसरितहि जाई। मिली सुकीरति सरजु सुहाई॥

सानुज राम समर जसु पावन। मिलेउ महानदु सोन सुहावन॥1॥


भावार्थ:-सुंदर कीर्ति रूपी सुहावनी सरयूजी रामभक्ति रूपी गंगाजी में जा मिलीं। छोटे भाई लक्ष्मण सहित श्री रामजी के युद्ध का पवित्र यश रूपी सुहावना महानद सोन उसमें आ मिला॥1॥

 

जुग बिच भगति देवधुनि धारा। सोहति सहित सुबिरति बिचारा॥

त्रिबिध ताप त्रासक तिमुहानी। राम सरूप सिंधु समुहानी॥2॥


भावार्थ:-दोनों के बीच में भक्ति रूपी गंगाजी की धारा ज्ञान और वैराग्य के सहित शोभित हो रही है। ऐसी तीनों तापों को डराने वाली यह तिमुहानी नदी रामस्वरूप रूपी समुद्र की ओर जा रही है॥2॥

  

चौपाई:


सीय स्वयंबर कथा सुहाई। सरित सुहावनि सो छबि छाई॥

नदी नाव पटु प्रस्न अनेका। केवट कुसल उतर सबिबेका॥1॥


भावार्थ:-श्री सीताजी के स्वयंवर की जो सुन्दर कथा है, वह इस नदी में सुहावनी छबि छा रही है। अनेकों सुंदर विचारपूर्ण प्रश्न ही इस नदी की नावें हैं और उनके विवेकयुक्त उत्तर ही चतुर केवट हैं॥1॥

  

सानुज राम बिबाह उछाहू। सो सुभ उमग सुखद सब काहू॥

कहत सुनत हरषहिं पुलकाहीं। ते सुकृती मन मुदित नहाहीं॥3॥


भावार्थ:-भाइयों सहित श्री रामचंद्रजी के विवाह का उत्साह ही इस कथा नदी की कल्याणकारिणी बाढ़ है, जो सभी को सुख देने वाली है। इसके कहने-सुनने में जो हर्षित और पुलकित होते हैं, वे ही पुण्यात्मा पुरुष हैं, जो प्रसन्न मन से इस नदी में नहाते हैं॥3॥

 

राम तिलक हित मंगल साजा। परब जोग जनु जुरे समाजा।

काई कुमति केकई केरी। परी जासु फल बिपति घनेरी॥4॥


भावार्थ:-श्री रामचंद्रजी के राजतिलक के लिए जो मंगल साज सजाया गया, वही मानो पर्व के समय इस नदी पर यात्रियों के समूह इकट्ठे हुए हैं। कैकेयी की कुबुद्धि ही इस नदी में काई है, जिसके फलस्वरूप बड़ी भारी विपत्ति आ पड़ी॥4॥


दोहा :

 

समन अमित उतपात सब भरत चरित जपजाग।

कलि अघ खल अवगुन कथन ते जलमल बग काग॥41॥


भावार्थ:-संपूर्ण अनगिनत उत्पातों को शांत करने वाला भरतजी का चरित्र नदी तट पर किया जाने वाला जपयज्ञ है। कलियुग के पापों और दुष्टों के अवगुणों के जो वर्णन हैं, वे ही इस नदी के जल का कीचड़ और बगुले-कौए हैं॥41॥

 

चौपाई :


कीरति सरित छहूँ रितु रूरी। समय सुहावनि पावनि भूरी॥

हिम हिमसैलसुता सिव ब्याहू। सिसिर सुखद प्रभु जनम उछाहू॥1॥


भावार्थ:-यह कीर्तिरूपिणी नदी छहों ऋतुओं में सुंदर है। सभी समय यह परम सुहावनी और अत्यंत पवित्र है। इसमें शिव-पार्वती का विवाह हेमंत ऋतु है। श्री रामचंद्रजी के जन्म का उत्सव सुखदायी शिशिर ऋतु है॥1॥

 

बरनब राम बिबाह समाजू। सो मुद मंगलमय रितुराजू॥

ग्रीषम दुसह राम बनगवनू। पंथकथा खर आतप पवनू॥2॥


भावार्थ:-श्री रामचंद्रजी के विवाह समाज का वर्णन ही आनंद-मंगलमय ऋतुराज वसंत है। श्री रामजी का वनगमन दुःसह ग्रीष्म ऋतु है और मार्ग की कथा ही कड़ी धूप और लू है॥2॥

 

बरषा घोर निसाचर रारी। सुरकुल सालि सुमंगलकारी॥

राम राज सुख बिनय बड़ाई। बिसद सुखद सोइ सरद सुहाई॥3॥


भावार्थ:-राक्षसों के साथ घोर युद्ध ही वर्षा ऋतु है, जो देवकुल रूपी धान के लिए सुंदर कल्याण करने वाली है। रामचंद्रजी के राज्यकाल का जो सुख, विनम्रता और बड़ाई है, वही निर्मल सुख देने वाली सुहावनी शरद् ऋतु है॥3॥

 

सती सिरोमनि सिय गुन गाथा। सोइ गुन अमल अनूपम पाथा॥

भरत सुभाउ सुसीतलताई। सदा एकरस बरनि न जाई॥4॥


भावार्थ:-सती-शिरोमणि श्री सीताजी के गुणों की जो कथा है, वही इस जल का निर्मल और अनुपम गुण है। श्री भरतजी का स्वभाव इस नदी की सुंदर शीतलता है, जो सदा एक सी रहती है और जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता॥4॥

 

दोहा :


अवलोकनि बोलनि मिलनि प्रीति परसपर हास।

भायप भलि चहु बंधु की जल माधुरी सुबास॥42॥


भावार्थ:-चारों भाइयों का परस्पर देखना, बोलना, मिलना, एक-दूसरे से प्रेम करना, हँसना और सुंदर भाईपना इस जल की मधुरता और सुगंध है॥42॥

 

चौपाई :


आरति बिनय दीनता मोरी। लघुता ललित सुबारि न थोरी॥

अदभुत सलिल सुनत गुनकारी। आस पिआस मनोमल हारी॥1॥


भावार्थ:-मेरा आर्तभाव, विनय और दीनता इस सुंदर और निर्मल जल का कम हलकापन नहीं है (अर्थात्‌ अत्यंत हलकापन है)। यह जल बड़ा ही अनोखा है, जो सुनने से ही गुण करता है और आशा रूपी प्यास को और मन के मैल को दूर कर देता है॥1॥

 

राम सुप्रेमहि पोषत पानी। हरत सकल कलि कलुष गलानी॥

भव श्रम सोषक तोषक तोषा। समन दुरित दुख दारिद दोषा॥2॥


भावार्थ:-यह जल श्री रामचंद्रजी के सुंदर प्रेम को पुष्ट करता है, कलियुग के समस्त पापों और उनसे होने वाली ग्लानि को हर लेता है। (संसार के जन्म-मृत्यु रूप) श्रम को सोख लेता है, संतोष को भी संतुष्ट करता है और पाप, दरिद्रता और दोषों को नष्ट कर देता है॥2॥

 

काम कोह मद मोह नसावन। बिमल बिबेक बिराग बढ़ावन॥

सादर मज्जन पान किए तें। मिटहिं पाप परिताप हिए तें॥3॥


भावार्थ:-यह जल काम, क्रोध, मद और मोह का नाश करने वाला और निर्मल ज्ञान और वैराग्य को बढ़ाने वाला है। इसमें आदरपूर्वक स्नान करने से और इसे पीने से हृदय में रहने वाले सब पाप-ताप मिट जाते हैं॥3॥

 

जिन्ह एहिं बारि न मानस धोए। ते कायर कलिकाल बिगोए॥

तृषित निरखि रबि कर भव बारी। फिरिहहिं मृग जिमि जीव दुखारी॥4॥


भावार्थ:-जिन्होंने इस (राम सुयश रूपी) जल से अपने हृदय को नहीं धोया, वे कायर कलिकाल के द्वारा ठगे गए। जैसे प्यासा हिरन सूर्य की किरणों के रेत पर पड़ने से उत्पन्न हुए जल के भ्रम को वास्तविक जल समझकर पीने को दौड़ता है और जल न पाकर दुःखी होता है, वैसे ही वे (कलियुग से ठगे हुए) जीव भी (विषयों के पीछे भटककर) दुःखी होंगे॥4॥

 

शेष अगले प्रसंग में -------------


राम रामेति रामेति, रमे रामे मनोरमे ।

सहस्रनाम तत्तुल्यं, रामनाम वरानने ॥


- आरएन तिवारी

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