Gyan Ganga: रामचरितमानस- जानिये भाग-27 में क्या क्या हुआ

By आरएन तिवारी | Jul 25, 2025

श्री रामचन्द्राय नम:


पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं

मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्।

श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये

ते संसारपतङ्गघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः॥


कहि अस ब्रह्मभवन मुनि गयऊ। आगिल चरित सुनहु जस भयऊ॥

पतिहि एकांत पाइ कह मैना। नाथ न मैं समुझे मुनि बैना॥


भावार्थ:-यों कहकर नारद मुनि ब्रह्मलोक को चले गए। अब आगे जो चरित्र हुआ उसे सुनो। पति को एकान्त में पाकर मैना ने कहा- हे नाथ! मैंने मुनि के वचनों का अर्थ नहीं समझा॥

 

जौं घरु बरु कुलु होइ अनूपा। करिअ बिबाहु सुता अनुरूपा॥

न त कन्या बरु रहउ कुआरी। कंत उमा मम प्रानपिआरी॥


भावार्थ:-जो हमारी कन्या के अनुकूल घर, वर और कुल उत्तम हो तो विवाह कीजिए। नहीं तो लड़की चाहे कुमारी ही रहे मैं अयोग्य वर के साथ उसका विवाह नहीं करना चाहती क्योंकि हे स्वामिन्‌! पार्वती मुझको प्राणों के समान प्यारी है॥

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जौं न मिलिहि बरु गिरिजहि जोगू। गिरि जड़ सहज कहिहि सबु लोगू॥

सोइ बिचारि पति करेहु बिबाहू। जेहिं न बहोरि होइ उर दाहू॥


भावार्थ:-यदि पार्वती के योग्य वर न मिला तो सब लोग कहेंगे कि पर्वत स्वभाव से ही जड़ मूर्ख होते हैं। हे स्वामी! इस बात को विचारकर ही विवाह कीजिएगा, जिसमें फिर पीछे हृदय में सन्ताप न हो॥

 

अस कहि परी चरन धरि सीसा। बोले सहित सनेह गिरीसा॥

बरु पावक प्रगटै ससि माहीं। नारद बचनु अन्यथा नाहीं॥


भावार्थ:-इस प्रकार कहकर मैना पति के चरणों पर मस्तक रखकर गिर पड़ीं। तब हिमवान्‌ ने प्रेम से कहा- चाहे चन्द्रमा में अग्नि प्रकट हो जाए, पर नारदजी के वचन झूठे नहीं हो सकते॥

 

दोहा :

प्रिया सोचु परिहरहु सबु सुमिरहु श्रीभगवान।

पारबतिहि निरमयउ जेहिं सोइ करिहि कल्यान॥


भावार्थ:-हे प्रिये! सब सोच छोड़कर श्री भगवान का स्मरण करो, जिन्होंने पार्वती को रचा है, वे ही कल्याण करेंगे॥

 

चौपाई :

अब जौं तुम्हहि सुता पर नेहू। तौ अस जाइ सिखावनु देहू॥

करै सो तपु जेहिं मिलहिं महेसू। आन उपायँ न मिटिहि कलेसू॥


भावार्थ:-अब यदि तुम्हें कन्या पर प्रेम है, तो जाकर उसे यह शिक्षा दो कि वह ऐसा तप करे, जिससे शिवजी मिल जाएँ। दूसरे उपाय से यह क्लेश नहीं मिटेगा॥


नारद बचन सगर्भ सहेतू। सुंदर सब गुन निधि बृषकेतू॥

अस बिचारि तुम्ह तजहु असंका। सबहि भाँति संकरु अकलंका॥


भावार्थ:-नारदजी के वचन रहस्य से युक्त और सकारण हैं और शिवजी समस्त सुंदर गुणों के भण्डार हैं। यह विचारकर तुम मिथ्या संदेह को छोड़ दो। शिवजी सभी तरह से निष्कलंक हैं॥

 

सुनि पति बचन हरषि मन माहीं। गई तुरत उठि गिरिजा पाहीं॥

उमहि बिलोकि नयन भरे बारी। सहित सनेह गोद बैठारी॥


भावार्थ:-पति के वचन सुन मन में प्रसन्न होकर मैना उठकर तुरंत पार्वती के पास गईं। पार्वती को देखकर उनकी आँखों में आँसू भर आए। उसे स्नेह के साथ गोद में बैठा लिया॥

 

दोहा :

बारहिं बार लेति उर लाई। गदगद कंठ न कछु कहि जाई॥

जगत मातु सर्बग्य भवानी। मातु सुखद बोलीं मृदु बानी॥


भावार्थ:-फिर बार-बार उसे हृदय से लगाने लगीं। प्रेम से मैना का गला भर आया, कुछ कहा नहीं जाता। जगज्जननी भवानीजी तो सर्वज्ञ ठहरीं। माता के मन की दशा को जानकर वे माता को सुख देने वाली कोमल वाणी से बोलीं-॥

 

दोहा :

सुनहि मातु मैं दीख अस सपन सुनावउँ तोहि।

सुंदर गौर सुबिप्रबर अस उपदेसेउ मोहि॥


भावार्थ:-माँ! सुन, मैं तुझे सुनाती हूँ, मैंने ऐसा स्वप्न देखा है कि मुझे एक सुंदर गौरवर्ण श्रेष्ठ ब्राह्मण ने ऐसा उपदेश दिया है-॥

 

चौपाई :

करहि जाइ तपु सैलकुमारी। नारद कहा सो सत्य बिचारी॥

मातु पितहि पुनि यह मत भावा। तपु सुखप्रद दुख दोष नसावा॥


भावार्थ:-हे पार्वती! नारदजी ने जो कहा है, उसे सत्य समझकर तू जाकर तप कर। फिर यह बात तेरे माता-पिता को भी अच्छी लगी है। तप सुख देने वाला और दुःख-दोष का नाश करने वाला है॥

 

तपबल रचइ प्रपंचु बिधाता। तपबल बिष्नु सकल जग त्राता॥

तपबल संभु करहिं संघारा। तपबल सेषु धरइ महिभारा॥


भावार्थ:-तप के बल से ही ब्रह्मा संसार को रचते हैं और तप के बल से ही बिष्णु सारे जगत का पालन करते हैं। तप के बल से ही शम्भु रुद्र रूप से) जगत का संहार करते हैं और तप के बल से ही शेषजी पृथ्वी का भार धारण करते हैं॥

 

तप अधार सब सृष्टि भवानी। करहि जाइ तपु अस जियँ जानी॥

सुनत बचन बिसमित महतारी। सपन सुनायउ गिरिहि हँकारी॥


भावार्थ:-हे भवानी! सारी सृष्टि तप के ही आधार पर है। ऐसा जी में जानकर तू जाकर तप कर। यह बात सुनकर माता को बड़ा अचरज हुआ और उसने हिमवान्‌ को बुलाकर वह स्वप्न सुनाया॥

 

दोहा :

मातु पितहि बहुबिधि समुझाई। चलीं उमा तप हित हरषाई॥

प्रिय परिवार पिता अरु माता। भए बिकल मुख आव न बाता॥


भावार्थ:-माता-पिता को बहुत तरह से समझाकर बड़े हर्ष के साथ पार्वतीजी तप करने के लिए चलीं। प्यारे कुटुम्बी, पिता और माता सब व्याकुल हो गए। किसी के मुँह से बात नहीं निकलती॥

 

दोहा :

बेदसिरा मुनि आइ तब सबहि कहा समुझाइ।

पारबती महिमा सुनत रहे प्रबोधहि पाइ॥


भावार्थ:-तब वेदशिरा मुनि ने आकर सबको समझाकर कहा। पार्वतीजी की महिमा सुनकर सबको समाधान हो गया॥


चौपाई :

उर धरि उमा प्रानपति चरना। जाइ बिपिन लागीं तपु करना॥

अति सुकुमार न तनु तप जोगू। पति पद सुमिरि तजेउ सबु भोगू॥


भावार्थ:-प्राणपति शिवजी के चरणों को हृदय में धारण करके पार्वतीजी वन में जाकर तप करने लगीं। पार्वतीजी का अत्यन्त सुकुमार शरीर तप के योग्य नहीं था, तो भी पति के चरणों का स्मरण करके उन्होंने सब भोगों को तज दिया॥

 

नित नव चरन उपज अनुरागा। बिसरी देह तपहिं मनु लागा॥

संबत सहस मूल फल खाए। सागु खाइ सत बरष गवाँए॥


भावार्थ:-स्वामी के चरणों में नित्य नया अनुराग उत्पन्न होने लगा और तप में ऐसा मन लगा कि शरीर की सारी सुध बिसर गई। एक हजार वर्ष तक उन्होंने मूल और फल खाए, फिर सौ वर्ष साग खाकर बिताए॥

 

कछु दिन भोजनु बारि बतासा। किए कठिन कछु दिन उपबासा॥

बेल पाती महि परइ सुखाई। तीनि सहस संबत सोइ खाई॥


भावार्थ:-कुछ दिन जल और वायु का भोजन किया और फिर कुछ दिन कठोर उपवास किए, जो बेल पत्र सूखकर पृथ्वी पर गिरते थे, तीन हजार वर्ष तक उन्हीं को खाया॥

 

पुनि परिहरे सुखानेउ परना। उमहि नामु तब भयउ अपरना॥

देखि उमहि तप खीन सरीरा। ब्रह्मगिरा भै गगन गभीरा॥


भावार्थ:-फिर सूखे पर्ण (पत्ते) भी छोड़ दिए, तभी पार्वती का नाम 'अपर्णा' हुआ। तप से उमा का शरीर क्षीण देखकर आकाश से गंभीर ब्रह्मवाणी हुई-॥

 

दोहा:

भयउ मनोरथ सुफल तव सुनु गिरिराजकुमारि।

परिहरु दुसह कलेस सब अब मिलिहहिं त्रिपुरारि॥


हे पर्वतराज की कुमारी! सुन, तेरा मनोरथ सफल हुआ। तू अब सारे असह्य क्लेशों को कठिन तप को त्याग दे। अब तुझे शिवजी मिलेंगे॥


शेष अगले प्रसंग में -------------


राम रामेति रामेति, रमे रामे मनोरमे ।

सहस्रनाम तत्तुल्यं, रामनाम वरानने ॥


- आरएन तिवारी

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