Gyan Ganga: रामचरितमानस- जानिये भाग-30 में क्या क्या हुआ

By आरएन तिवारी | Aug 29, 2025

श्री रामचन्द्राय नम:


पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं

मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्।

श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये

ते संसारपतङ्गघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः॥


दोहा :

तुम्ह माया भगवान सिव सकल गजत पितु मातु।

नाइ चरन सिर मुनि चले पुनि पुनि हरषत गातु॥॥


भावार्थ:-आप माया हैं और शिवजी भगवान हैं। आप दोनों समस्त जगत के माता-पिता हैं। (यह कहकर) मुनि पार्वतीजी के चरणों में सिर नवाकर चल दिए। उनके शरीर बार-बार पुलकित हो रहे थे॥

 

चौपाई :

जाइ मुनिन्ह हिमवंतु पठाए। करि बिनती गिरजहिं गृह ल्याए॥

बहुरि सप्तरिषि सिव पहिं जाई। कथा उमा कै सकल सुनाई


भावार्थ:-मुनियों ने जाकर हिमवान्‌ को पार्वतीजी के पास भेजा और वे विनती करके उनको घर ले आए, फिर सप्तर्षियों ने शिवजी के पास जाकर उनको पार्वतीजी की सारी कथा सुनाई॥

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भए मगन सिव सुनत सनेहा। हरषि सप्तरिषि गवने गेहा॥

मनु थिर करि तब संभु सुजाना। लगे करन रघुनायक ध्याना॥


भावार्थ:-पार्वतीजी का प्रेम सुनते ही शिवजी आनन्दमग्न हो गए। सप्तर्षि प्रसन्न होकर अपने घर (ब्रह्मलोक) को चले गए। तब सुजान शिवजी मन को स्थिर करके श्री रघुनाथजी का ध्यान करने लगे॥

 

तारकु असुर भयउ तेहि काला। भुज प्रताप बल तेज बिसाला॥

तेहिं सब लोक लोकपति जीते। भए देव सुख संपति रीते॥


भावार्थ:-उसी समय तारक नाम का असुर हुआ, जिसकी भुजाओं का बल, प्रताप और तेज बहुत बड़ा था। उसने सब लोक और लोकपालों को जीत लिया, सब देवता सुख और सम्पत्ति से रहित हो गए॥

 

अजर अमर सो जीति न जाई। हारे सुर करि बिबिध लराई॥

तब बिरंचि सन जाइ पुकारे। देखे बिधि सब देव दुखारे॥


भावार्थ:-वह अजर-अमर था, इसलिए किसी से जीता नहीं जाता था। देवता उसके साथ बहुत तरह की लड़ाइयाँ लड़कर हार गए। तब उन्होंने ब्रह्माजी के पास जाकर पुकार मचाई। ब्रह्माजी ने सब देवताओं को दुःखी देखा॥4॥

 

दोहा :

सब सन कहा बुझाइ बिधि दनुज निधन तब होइ।

संभु सुक्र संभूत सुत एहि जीतइ रन सोइ॥


भावार्थ:-ब्रह्माजी ने सबको समझाकर कहा- इस दैत्य की मृत्यु तब होगी जब शिवजी के वीर्य से पुत्र उत्पन्न हो, इसको युद्ध में वही जीतेगा॥

 

चौपाई :

मोर कहा सुनि करहु उपाई। होइहि ईस्वर करिहि सहाई॥

सतीं जो तजी दच्छ मख देहा। जनमी जाइ हिमाचल गेहा॥


भावार्थ:-मेरी बात सुनकर उपाय करो। ईश्वर सहायता करेंगे और काम हो जाएगा। सतीजी ने जो दक्ष के यज्ञ में देह का त्याग किया था, उन्होंने अब हिमाचल के घर जाकर जन्म लिया है॥

 

तेहिं तपु कीन्ह संभु पति लागी। सिव समाधि बैठे सबु त्यागी॥

जदपि अहइ असमंजस भारी। तदपि बात एक सुनहु हमारी॥


भावार्थ:-उन्होंने शिवजी को पति बनाने के लिए तप किया है, इधर शिवजी सब छोड़-छाड़कर समाधि लगा बैठे हैं। यद्यपि है तो बड़े असमंजस की बात, तथापि मेरी एक बात सुनो॥

 

पठवहु कामु जाइ सिव पाहीं। करै छोभु संकर मन माहीं॥

तब हम जाइ सिवहि सिर नाई। करवाउब बिबाहु बरिआई॥


भावार्थ:-तुम जाकर कामदेव को शिवजी के पास भेजो, वह शिवजी के मन में क्षोभ उत्पन्न करे (उनकी समाधि भंग करे)। तब हम जाकर शिवजी के चरणों में सिर रख देंगे और जबरदस्ती (उन्हें राजी करके) विवाह करा देंगे॥

 

एहि बिधि भलेहिं देवहित होई। मत अति नीक कहइ सबु कोई॥

अस्तुति सुरन्ह कीन्हि अति हेतू। प्रगटेउ बिषमबान झषकेतू॥


भावार्थ:-इस प्रकार से भले ही देवताओं का हित हो (और तो कोई उपाय नहीं है) सबने कहा- यह सम्मति बहुत अच्छी है। फिर देवताओं ने बड़े प्रेम से स्तुति की। तब विषम (पाँच) बाण धारण करने वाला और मछली के चिह्नयुक्त ध्वजा वाला कामदेव प्रकट हुआ॥


कामदेव का देवकार्य के लिए जाना और भस्म होना 


दोहा :

सुरन्ह कही निज बिपति सब सुनि मन कीन्ह बिचार।

संभु बिरोध न कुसल मोहि बिहसि कहेउ अस मार॥


भावार्थ:-देवताओं ने कामदेव से अपनी सारी विपत्ति कही। सुनकर कामदेव ने मन में विचार किया और हँसकर देवताओं से यों कहा कि शिवजी के साथ विरोध करने में मेरी कुशल नहीं है॥

 

चौपाई :

तदपि करब मैं काजु तुम्हारा। श्रुति कह परम धरम उपकारा॥

पर हित लागि तजइ जो देही। संतत संत प्रसंसहिं तेही॥


भावार्थ:-तथापि मैं तुम्हारा काम तो करूँगा, क्योंकि वेद दूसरे के उपकार को परम धर्म कहते हैं। जो दूसरे के हित के लिए अपना शरीर त्याग देता है, संत सदा उसकी बड़ाई करते हैं॥

 

अस कहि चलेउ सबहि सिरु नाई। सुमन धनुष कर सहित सहाई॥

चलत मार अस हृदयँ बिचारा। सिव बिरोध ध्रुब मरनु हमारा॥


भावार्थ:- ऐसा कह और सबको सिर नवाकर कामदेव अपने पुष्प के धनुष को हाथ में लेकर वसन्तादि कामोदीप्त करने वाले सहायकों के साथ चला। चलते समय कामदेव ने हृदय में ऐसा विचार किया कि शिवजी के साथ विरोध करने से मेरा मरण निश्चित है॥

 

तब आपन प्रभाउ बिस्तारा। निज बस कीन्ह सकल संसारा॥

कोपेउ जबहिं बारिचरकेतू। छन महुँ मिटे सकल श्रुति सेतू॥


भावार्थ:-तब उसने अपना प्रभाव फैलाया और समस्त संसार को अपने वश में कर लिया। जिस समय उस मछली के चिह्न की ध्वजा वाले कामदेव ने कोप किया, उस समय क्षणभर में ही वेदों की सारी मर्यादा मिट गई॥

 

ब्रह्मचर्ज ब्रत संजम नाना। धीरज धरम ग्यान बिग्याना॥

सदाचार जप जोग बिरागा। सभय बिबेक कटकु सबु भागा॥


भावार्थ:-ब्रह्मचर्य, नियम, नाना प्रकार के संयम, धीरज, धर्म, ज्ञान, विज्ञान, सदाचार, जप, योग, वैराग्य आदि विवेक की सारी सेना डरकर भाग गई॥

 

छंद :

भागेउ बिबेकु सहाय सहित सो सुभट संजुग महि मुरे।

सदग्रंथ पर्बत कंदरन्हि महुँ जाइ तेहि अवसर दुरे॥

होनिहार का करतार को रखवार जग खरभरु परा।

दुइ माथ केहि रतिनाथ जेहि कहुँ कोपि कर धनु सरु धरा॥


भावार्थ:- ज्ञान और विवेक अपने सहायकों सहित भाग गए, उनके योद्धा रणभूमि से पीठ दिखा कर नौ-दो ग्यारह हो गए। उस समय वे सब सद्ग्रन्थ रूपी पर्वत की कन्दराओं में जा छिपे अर्थात ज्ञान, वैराग्य, संयम, नियम, सदाचारादि ग्रंथों में ही लिखे रह गए, उनका आचरण छूट गया। सारे जगत्‌ में खलबली मच गई और सब कहने लगे हे विधाता! अब क्या होने वाला है? हमारी रक्षा कौन करेगा? ऐसा दो सिर वाला कौन है, जिसके लिए रति के पति कामदेव ने कोप करके हाथ में धनुष-बाण उठा लिया है?

 

शेष अगले प्रसंग में -------------


राम रामेति रामेति, रमे रामे मनोरमे ।

सहस्रनाम तत्तुल्यं, रामनाम वरानने ॥


- आरएन तिवारी

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