Gyan Ganga: रामचरितमानस- जानिये भाग-31 में क्या क्या हुआ

By आरएन तिवारी | Sep 05, 2025

श्री रामचन्द्राय नम:


पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं

मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्।

श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये

ते संसारपतङ्गघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः॥


दोहा :

जे सजीव जग अचर चर नारि पुरुष अस नाम।

ते निज निज मरजाद तजि भए सकल बस काम॥


भावार्थ:-जगत में स्त्री-पुरुष संज्ञा वाले जितने चर-अचर प्राणी थे, वे सब अपनी-अपनी मर्यादा छोड़कर काम के वश में हो गए॥

 

चौपाई :

सब के हृदयँ मदन अभिलाषा। लता निहारि नवहिं तरु साखा॥

नदीं उमगि अंबुधि कहुँ धाईं। संगम करहिं तलाव तलाईं॥1॥


भावार्थ:-सबके हृदय में काम की इच्छा हो गई। लताओं (बेलों) को देखकर वृक्षों की डालियाँ झुकने लगीं। नदियाँ उमड़-उमड़कर समुद्र की ओर दौड़ीं और ताल-तलैयाँ भी आपस में संगम करने (मिलने-जुलने) लगीं॥1॥

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जहँ असि दसा जड़न्ह कै बरनी। को कहि सकइ सचेतन करनी॥

पसु पच्छी नभ जल थल चारी। भए काम बस समय बिसारी॥2॥


भावार्थ:-जब जड़ (वृक्ष, नदी आदि) की यह दशा कही गई, तब चेतन जीवों की करनी कौन कह सकता है? आकाश, जल और पृथ्वी पर विचरने वाले सारे पशु-पक्षी (अपने संयोग का) समय भुलाकर काम के वश में हो गए॥2॥

 

मदन अंध ब्याकुल सब लोका। निसि दिनु नहिं अवलोकहिं कोका॥

देव दनुज नर किंनर ब्याला। प्रेत पिसाच भूत बेताला॥3॥


भावार्थ:-सब लोक कामान्ध होकर व्याकुल हो गए। चकवा-चकवी रात-दिन नहीं देखते। देव, दैत्य, मनुष्य, किन्नर, सर्प, प्रेत, पिशाच, भूत, बेताल-॥3॥

 

इन्ह कै दसा न कहेउँ बखानी। सदा काम के चेरे जानी॥

सिद्ध बिरक्त महामुनि जोगी। तेपि कामबस भए बियोगी॥4॥


भावार्थ:-ये तो सदा ही काम के गुलाम हैं, यह समझकर मैंने इनकी दशा का वर्णन नहीं किया। सिद्ध, विरक्त, महामुनि और महान्‌ योगी भी काम के वश होकर योगरहित या स्त्री के विरही हो गए॥4॥

 

छंद :

भए कामबस जोगीस तापस पावँरन्हि की को कहै।

देखहिं चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे॥

अबला बिलोकहिं पुरुषमय जगु पुरुष सब अबलामयं।

दुइ दंड भरि ब्रह्मांड भीतर कामकृत कौतुक अयं॥


भावार्थ:-जब योगीश्वर और तपस्वी भी काम के वश हो गए, तब पामर मनुष्यों की कौन कहे? जो समस्त चराचर जगत को ब्रह्ममय देखते थे, वे अब उसे स्त्रीमय देखने लगे। स्त्रियाँ सारे संसार को पुरुषमय देखने लगीं और पुरुष उसे स्त्रीमय देखने लगे। दो घड़ी तक सारे ब्राह्मण्ड के अंदर कामदेव का रचा हुआ यह कौतुक रहा।


सोरठा :

धरी न काहूँ धीर सब के मन मनसिज हरे।

जे राखे रघुबीर ते उबरे तेहि काल महुँ॥


भावार्थ:-किसी ने भी हृदय में धैर्य नहीं धारण किया, कामदेव ने सबके मन हर लिए। श्री रघुनाथजी ने जिनकी रक्षा की, केवल वे ही उस समय बचे रहे॥

 

चौपाई :

उभय घरी अस कौतुक भयऊ। जौ लगि कामु संभु पहिं गयऊ॥

सिवहि बिलोकि ससंकेउ मारू। भयउ जथाथिति सबु संसारू॥1॥


भावार्थ:-दो घड़ी तक ऐसा तमाशा हुआ, जब तक कामदेव शिवजी के पास पहुँच गया। शिवजी को देखकर कामदेव डर गया, तब सारा संसार फिर जैसा-का तैसा स्थिर हो गया।

 

भए तुरत सब जीव सुखारे। जिमि मद उतरि गएँ मतवारे॥

रुद्रहि देखि मदन भय माना। दुराधरष दुर्गम भगवाना॥2॥


भावार्थ:-तुरंत ही सब जीव वैसे ही सुखी हो गए, जैसे मतवाले लोग नशा उतर जाने पर सुखी होते हैं। दुराधर्ष जिनको पराजित करना अत्यन्त ही कठिन है और दुर्गम जिनका पार पाना कठिन है। जो भगवान सम्पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य रूप छह ईश्वरीय गुणों से युक्त हैं ऐसे महाभयंकर शिवजी को देखकर कामदेव भयभीत हो गया॥2॥

 

फिरत लाज कछु करि नहिं जाई। मरनु ठानि मन रचेसि उपाई॥

प्रगटेसि तुरत रुचिर रितुराजा। कुसुमित नव तरु राजि बिराजा॥3॥


भावार्थ:-लौट जाने में लज्जा मालूम होती है और करते कुछ बनता नहीं। आखिर मन में मरने का निश्चय करके उसने उपाय रचा। तुरंत ही सुंदर ऋतुराज वसन्त को प्रकट किया। फूले हुए नए-नए वृक्षों की कतारें सुशोभित हो गईं॥3॥

 

बन उपबन बापिका तड़ागा। परम सुभग सब दिसा बिभागा॥

जहँ तहँ जनु उमगत अनुरागा। देखि मुएहुँ मन मनसिज जागा॥4॥


भावार्थ:-वन-उपवन, बावली-तालाब और सब दिशाओं के विभाग परम सुंदर हो गए। जहाँ-तहाँ मानो प्रेम उम़ड़ रहा है, जिसे देखकर मरे मनों में भी कामदेव जाग उठा॥4॥

 

छंद :

जागइ मनोभव मुएहुँ मन बन सुभगता न परै कही।

सीतल सुगंध सुमंद मारुत मदन अनल सखा सही॥

बिकसे सरन्हि बहु कंज गुंजत पुंज मंजुल मधुकरा।

कलहंस पिक सुक सरस रव करि गान नाचहिं अपछरा


भावार्थ:-मरे हुए मन में भी कामदेव जागने लगा, वन की सुंदरता कही नहीं जा सकती। कामरूपी अग्नि का सच्चा मित्र शीतल-मन्द-सुगंधित पवन चलने लगा। सरोवरों में अनेकों कमल खिल गए, जिन पर सुंदर भौंरों के समूह गुंजार करने लगे। राजहंस, कोयल और तोते रसीली बोली बोलने लगे और अप्सराएँ गा-गाकर नाचने लगीं॥

 

दोहा :

सकल कला करि कोटि बिधि हारेउ सेन समेत।

चली नअचल समाधि सिव कोपेउ हृदयनिकेत॥86॥


भावार्थ:-कामदेव अपनी सेना समेत करोड़ों प्रकार की सब कलाएँ (उपाए) करके हार गया, पर शिवजी की अचल समाधि न डिगी। तब कामदेव क्रोधित हो उठा॥86॥

 

चौपाई :

देखि रसाल बिटप बर साखा। तेहि पर चढ़ेउ मदनु मन माखा॥

सुमन चाप निज सर संधाने। अति रिस ताकि श्रवन लगि ताने॥1॥


भावार्थ:-आम के वृक्ष की एक सुंदर डाली देखकर मन में क्रोध से भरा हुआ कामदेव उस पर चढ़ गया। उसने पुष्प धनुष पर अपने (पाँचों) बाण चढ़ाए और अत्यन्त क्रोध से (लक्ष्य की ओर) ताककर उन्हें कान तक तान लिया॥1॥

 

छाड़े बिषम बिसिख उर लागे। छूटि समाधि संभु तब जागे॥

भयउ ईस मन छोभु बिसेषी। नयन उघारि सकल दिसि देखी॥2॥


भावार्थ:-कामदेव ने तीक्ष्ण पाँच बाण छोड़े, जो शिवजी के हृदय में लगे। तब उनकी समाधि टूट गई और वे जाग गए। ईश्वर (शिवजी) के मन में बहुत क्षोभ हुआ। उन्होंने आँखें खोलकर सब ओर देखा॥2॥

 

सौरभ पल्लव मदनु बिलोका। भयउ कोपु कंपेउ त्रैलोका॥

तब सिवँ तीसर नयन उघारा। चितवन कामु भयउ जरि छारा॥3॥


भावार्थ:-जब आम के पत्तों में (छिपे हुए) कामदेव को देखा तो उन्हें बड़ा क्रोध हुआ, जिससे तीनों लोक काँप उठे। तब शिवजी ने तीसरा नेत्र खोला, उनको देखते ही कामदेव जलकर भस्म हो गया॥3॥

 

हाहाकार भयउ जग भारी। डरपे सुर भए असुर सुखारी॥

समुझि कामसुख सोचहिं भोगी। भए अकंटक साधक जोगी॥4॥


भावार्थ:-जगत में बड़ा हाहाकर मच गया। देवता डर गए, दैत्य सुखी हुए। भोगी लोग कामसुख को याद करके चिन्ता करने लगे और साधक योगी निष्कंटक हो गए॥4॥

 

छंद :

जोगी अकंटक भए पति गति सुनत रति मुरुछित भई।

रोदति बदति बहु भाँति करुना करति संकर पहिं गई॥

अति प्रेम करि बिनती बिबिध बिधि जोरि कर सन्मुख रही।

प्रभु आसुतोष कृपाल सिव अबला निरखि बोले सही॥


भावार्थ:-योगी निष्कंटक हो गए, कामदेव की स्त्री रति अपने पति की यह दशा सुनते ही मूर्च्छित हो गई। रोती-चिल्लाती और भाँति-भाँति से करुणा करती हुई वह शिवजी के पास गई। अत्यन्त प्रेम के साथ अनेकों प्रकार से विनती करके हाथ जोड़कर सामने खड़ी हो गई। शीघ्र प्रसन्न होने वाले कृपालु शिवजी अबला (असहाय स्त्री) को देखकर उसको सान्त्वना देने वाले वचन बोले।


शेष अगले प्रसंग में -------------


राम रामेति रामेति, रमे रामे मनोरमे ।

सहस्रनाम तत्तुल्यं, रामनाम वरानने ॥


- आरएन तिवारी

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