काव्य रूप में पढ़ें श्रीरामचरितमानस: भाग-43

By विजय कुमार | Feb 23, 2022

उनकी विपद महान है, उनके कष्ट अपार

लंका चलकर कीजिए, अब उनका उद्धार।

अब उनका उद्धार, राम बोले हनुमाना

कहीं नहीं उपकारी जग में तोर समाना।

कह ‘प्रशांत’ मैं उऋण नहीं तुमसे हो सकता

हे हनुमत, यह सोच-सोच मेरा मन भरता।।51।।

-

यह सुनकर हनुमानजी, चरणों में रख माथ

बोले रक्षा कीजिए, शरण तिहारी नाथ।

शरण तिहारी नाथ, राम ने उन्हें उठाया

बतलाओ तो लंका को किस भांति जलाया।

कह ‘प्रशांत’ हनुमत बोले सब कृपा तुम्हारी

जिस पर आप प्रसन्न, नहीं कुछ उसको भारी।।52।।

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यह सुनकर रघुनाथ ने, दिया कृपा का दान

उसको पाकर हो गये, धन्य-धन्य हनुमान।

धन्य-धन्य हनुमान, लगी होने तैयारी

पा करके आदेश, जुट गयी सेना सारी।

कह ‘प्रशांत’ सेनापतियों ने व्यूह बनाये

रामचंद्र की जय कह करके कदम बढ़ाये।।53।।

-

गर्जन-तर्जन कर चले, सेनानी रणधीर

आगे-आगे राम थे, पीछे वानर वीर।

पीछे वानर वीर, रीछ-भालू थे संगा

मचल रहे थे सब करने भारी रणरंगा।

कह ‘प्रशांत’ सागर तट पर पहुंचे रघुराया

समाचार पा लंका में घर-घर भय छाया।।54।।

-

लंका नगरी के लिए, दूत बना था काल

उसके स्वामी आ गये, क्या होगा अब हाल।

क्या होगा अब हाल, घोर आतंक समाया

मन्दा रानी ने रावण को जा समझाया।

कह ‘प्रशांत’ हे स्वामी मेरी सम्मति मानो

सीता को दो छोड़, राम से बैर न ठानो।।55।।

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लेकिन रावण ने नहीं, करी तनिक परवाह

राजसभा में बैठकर, करने लगा सलाह।

करने लगा सलाह, शत्रु आ गया किनारे

क्या करना होगा हमको, बतलाओ सारे।

कह ‘प्रशांत’ मंत्री बोले चिन्ता मत कीजे

मच्छर जैसे मसल समूची सेना दीजे।।56।।

-

ठकुरसुहाती कर रहे, थे सब मंत्री लोग

तभी विभीषण आ गये, बना उचित संयोग।

बना उचित संयोग, मिली जब आज्ञा बोले

अपने दिल का कष्ट सभी के सम्मुख खोले।

कह ‘प्रशांत’ हम सबकी इसमें छिपी भलाई

छोड़ जानकी मैया, भजें राम-रघुराई।।57।।

-

परमेश्वर प्रत्यक्ष ने, लिया मनुज अवतार

दुष्टों के वे काल हैं, भक्तों के रखवार।

भक्तों के रखवार, बैर उनसे मत कीजे

दूर करेंगे कष्ट, शरण उनकी ले लीजे।

कह ‘प्रशांत’ जग का द्रोही भी तर जाता है

अगर शरण में रघुनंदन की वह आता है।।58।।

-

चरण पकड़ करके कही, बार-बार यह बात

रावण क्रोधित हो उठा, मारी कस कर लात।

मारी कस कर लात, अन्न मेरा खाता है

फिर भी लगातार राघव के गुण गाता है।

कह ‘प्रशांत’ है भाई, लेकिन लाज न तुझको

निकल यहां से, चेहरा नहीं दिखाना मुझको।।59।।

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भक्त विभीषण चल दिये, कुछ मंत्री थे साथ

चुप्पी साधे थी सभा, जैसे हुई अनाथ।

जैसे हुई अनाथ, विभीषण ने चेताया

रावण तेरा काल शीश पर है मंडराया।

कह ‘प्रशांत’ मैं शरण राम की अब जाता हूं

दोष न देना मुझको, पहले बतलाता हूं।।60।।


- विजय कुमार

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