By डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ | Aug 22, 2025
एक समय की बात है, भारत की संसद में एक महान ऋषि प्रकट हुए। उनका नाम था श्रीश्रीश्री समोसानंद, पर उनके भक्त उन्हें 'समोसेश्वर' के नाम से पुकारते थे। समोसेश्वर जी ने देखा कि देश की सबसे बड़ी समस्या भुखमरी नहीं, बेरोजगारी नहीं, बल्कि समोसे का साइज़ है! कहीं समोसा बड़ा है, तो कहीं छोटा! यह देख उनका हृदय दुख से भर आया।
"हे सभापति महोदय!" समोसेश्नवर जी ने अपनी बुलंद आवाज़ में कहा, "मेरा हृदय पीड़ा से कराह रहा है! ग्यारह साल में हमारे प्रधानमंत्री ने देश में 'युगों' का परिवर्तन कर दिया, लेकिन समोसे के साथ घोर अन्याय जारी है। यह क्या बात हुई? एक समोसा गोरखपुर में दस रुपए का, तो दिल्ली में बीस का, और साइज़ भी अलग-अलग! यह राष्ट्र की आत्मा पर प्रहार है!"
संसद में बैठे सारे सांसद, जो अभी तक अपनी-अपनी पार्टियों के हिसाब से देश की समस्याओं पर लड़ रहे थे, इस 'दिव्य' ज्ञान को सुनकर सन्न रह गए। कुछ ने सोचा, "वाह! क्या दूरदर्शिता है! हमें तो लगा था कि महंगाई और बेरोजगारी ही मुद्दा है, पर असली मुद्दा तो समोसे का साइज़ है!"
समोसेश्वर जी ने आगे कहा, "इस विशाल भारत में करोड़ों ग्राहक हैं। वे भूखे प्यासे ढाबों पर जाते हैं, समोसा खाते हैं, और उन्हें पता ही नहीं चलता कि उन्हें कितने ग्राम आलू मिला और कितने ग्राम मैदा। यह तो सरासर धोखा है! यह कोई मामूली बात नहीं है, यह तो सांस्कृतिक पतन का संकेत है! अगर समोसे ही सिकुड़ गए, तो राष्ट्र की आत्मा का विस्तार कैसे होगा?"
संसद में सन्नाटा छा गया। समोश्वेर जी ने अपनी बात जारी रखी, "मेरा सुझाव है कि एक 'समोसा-मानकीकरण आयोग' बनाया जाए। यह आयोग तय करे कि एक समोसे का आदर्श वज़न क्या होगा? कितना आलू, कितनी मटर, और कितना मैदा? और तो और, चटनी की मात्रा भी निर्धारित हो! ताकि कोई ग्राहक ठगा न जाए।"
एक सांसद ने फुसफुसाते हुए कहा, "समोसेश्वर जी, भूख हड़ताल से अच्छा, समोसा हड़ताल करते हैं!" दूसरे ने कहा, "समोसेश्वर जी, आप सही कह रहे हैं। हमने कभी सोचा ही नहीं कि अगर समोसे ही सिकुड़ गए, तो भारत की महानता का क्या होगा!"
समोसेश्वर जी का चेहरा दमक रहा था। उन्हें लगा कि उन्होंने आज देश को एक नई दिशा दी है। उन्होंने 'शून्य काल' को 'समोसा काल' बना दिया था। उन्होंने सिद्ध कर दिया था कि एक सच्चा जन-प्रतिनिधि वही होता है, जो बड़े से बड़े मुद्दों को छोड़कर जनता के सबसे 'समोसे' वाले दर्द को समझे! और इस तरह, संसद में 'समोसे पर बहस' शुरू हो गई। कोई कह रहा था कि समोसे का साइज़ 'राष्ट्रवाद' से जुड़ा है, तो कोई कह रहा था कि समोसे का मानकीकरण 'आर्थिक' प्रगति के लिए ज़रूरी है। बाहर, जनता सोच रही थी कि वे भुखमरी की कांवड़ ढो रहे हैं और उनके सांसद 'समोसे की कांवड़' ढो रहे हैं।
समोसेश्वर जी ने कहा, "हमारी आने वाली पीढ़ियाँ हमें धन्यवाद देंगी। जब वे इतिहास पढ़ेंगे, तो जानेंगे कि जब दुनिया परमाणु बम और गरीबी की बात कर रही थी, तब भारत के एक महान सांसद ने समोसे के न्याय के लिए अपनी आवाज़ उठाई थी। क्योंकि अगर समोसे में न्याय नहीं, तो फिर किसी में नहीं!"
- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,
(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)