टैग बिना चैन कहाँ रे (व्यंग्य)

By अरुण अर्णव खरे | Apr 30, 2022

कुछ ही महीने बीते हैं जब सुदूर प्रांत से उनका मित्रता अनुरोध आया था। मैं स्वभाव से जितना धर्मनिरपेक्ष हूँ उतना ही लिंगनिरपेक्ष भी हूँ। बिना लैंगिक भेदभाव किए मैं समान रूप से सभी के मित्रता अनुरोध पर्याप्त छानबीन के उपरांत स्वीकार कर लेता हूँ। उनका मित्रता अनुरोध स्वीकार करने से पहले मैंने उनकी प्रोफाइल में जाके ठीक-ठाक पड़ताल भी कर ली थी। वह भी साहित्यिक रुचि के व्यक्ति थे यद्यपि उनकी वाल पर बहुत ही चलताऊ ढंग की तुकबंदियों ही ज्यादा थीं। मैंने कुछ पल सोचा भी था कि उन्हें मित्र बनाया जाए या नहीं। पर मन के किसी अंदरूनी कोने से आवाज आई कि हो सकता है वह तुम्हें बड़ा साहित्यकार मानते हों और तुम्हें मित्र बनाकर कुछ सीखना चाहते हों। ये मन का भीतरी कोना मुझे अक्सर दुविधा की स्थिति से उबार देता है और मुझे खुश होने की स्थिति में ला देता है। खुद पर गुरूर करने की इच्छा होने लगती है। जिस तरह की तार्किक किरणें इस कोने से उत्सर्जित होती हैं वैसी ही मुझे लगता है या तो आर्कमिडीज के "यूरेका .. यूरेका" चिल्लाते समय हुई होंगी या फिर पेड़ से सेव को टपकता देख न्यूटन के दिल में फूटी होंगी। उन्हीं किरणों से प्राप्त ज्ञान ने उनको मेरा मित्र बना दिया था।

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शाम होते होते उन्होंने तीन तुकबंदियाँ अपनी वाल पर पोस्ट की और मुझे टैग कर दिया। सौजन्यतावश मैंने उनकी सभी पोस्ट पर सुंदरम् लिखकर एक अंगूठा भी साथ में भेज दिया। अगले दिन भी उनने तीन और तुकबंदियों में मुझे नत्थी कर दिया। सौजन्यता के साथ-साथ विनयशीलता भी मुझमें कूट-कूट कर भरी हुई है अतएव इस बार भी मैंने 'वाह, क्या बात है' लिखकर अंगूठे के साथ जवाब दे दिया। एक हफ्ते तक यह सिलसिला उनकी ओर से बदस्तूर जारी रहने के बाद उनके दूसरे मित्रों ने भी मुझे टैग करना शुरु कर दिया। उनके मित्र तो और भी उस्ताद थे। वे मुझे मुंडन से लेकर शवयात्रा तक की तस्वीरों में टैग करने लगे। कुछ दिन बाद उनके मित्रों के मित्र भी मुझे टैग करने लगे। अब मेरी वाल पर मेरी पोस्ट दिखती ही नहीं और टैग की गई पोस्टों में मैं अपना अस्तित्व ढूढ़ता रहता। इसी तरह कुछ दिन और बीत गए कि एक दिन अचानक एक वरिष्ठ साहित्यकार का मैसेज आ गया- "तुम्हारी कलई खुल गई है.. कैसा साहित्यिक स्तर है तुम्हारा मुझे समझ में आ गया है.. तुम्हारी मित्रता सूची में रहने से मेरी प्रतिष्ठा पर आँच आ रही है.. मैं यह सब बर्दास्त नहीं कर सकता।" और स्पष्ट करने की जरूरत नहीं कि इसके तुरंत बाद उन्होंने मुझे अपनी मित्रता सूची से विदा कर दिया। अगले ही दिन दो और वरिष्ठों ने अपनी सूची से मेरा नाम उड़ा दिया।

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वरिष्ठों का इस तरह जाना मुझे खतरे की घंटी लगा। ये सभी किसी न किसी साहित्यिक संस्था की पुरस्कार समितियों में थे या फिर से उनके आने की संभावना थी। उनकी नाराजगी यानि कि छोटे-मोटे पुरस्कार-सम्मान तक से बेदखल हो जाना था। मेरी सौजन्यता और विनयशीलता के बारे में आप जान ही चुके हैं.. पर संकोच के साथ बताना चाहता हूँ कि मैं सज्जन भी उसी दर्जे का हूँ। इसके लिए इतना प्रमाण ही काफी है कि मैंने आजतक अपने स्मार्टफोन में न तो कोई पासवर्ड डाला है और न ही किसी पैटर्न लॉक का इस्तेमाल किया है। उनको मित्र बनाने से मेरी सज्जनता मुझे ही मुँह चिढ़ाने लगी थी। इसके बाद मैंने उनकी पोस्ट को 'रिमूव टैग' करना शुरु कर दिया। पर इसका भी उनपर कोई असर नहीं हुआ.. मानो मुझे टैग किए बिना उन्हें चैन ही नहीं मिलता था। मुझे लगने लगा कि वह मेरी कुंडली में उच्च के शुक्र को अपदस्थ कर आ विराजे हैं। मैंने अपनी सज्जनता के थोड़े और पर कतरे तथा सैटिंग में जाके मेरी सहमति के बिना टैग करने पर रोक लगा दी। संभवतया उनको यह मेरी बदतमीजी लगी होगी, वे बहुत मर्माहत हुए होंगे तभी तो अगले ही दिन उन्होंने मुझे अपनी फ्रेंड लिस्ट से बेमुरब्बत तरीके से बेदखल कर दिया था।


- अरुण अर्णव खरे

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