जिस देश में गंगा.... (व्यंग्य)

By संतोष उत्सुक | Jun 24, 2023

पुरानी कार की सर्विस के लिए गया तो चाय पीने का मन हुआ लेकिन लंच का समय होने के कारण कोई खाना बनाने वाला चाय बनाने को तैयार नहीं हुआ। औद्योगिक क्षेत्र में अनेक जगह उपलब्ध गरमागरम भटूरे छोले खाते लोगों को देखकर लगा कि यह इंडिया के फिट रहने में सचमुच कितना योगदान दे रहे हैं। फिर किसी मज़दूर ने दूर इशारा कर बताया, वहां मिलेगी चाय। शहतूत के पेड़ के नीचे, काले फटे हुए पोलिथिन की छत के साथ लटके पुराने बैनर के गंदे टुकड़े, सड़े हुए कनस्तर के साथ बने काउंटर पर बनती चाय, उबलने लगी तो दुकान वाला बच्चा भाग कर कहीं फ्रिज से दूध लाया, खूब उबलकर पालिग्लास में ही मिली चाय। 


पालिथिन की विकल्पहीनता यहां भी पसरी हुई मिली। गमले में मिर्च के पौधे उगे हैं, रोशनी के लिए बल्ब भी लटका है। चाय अच्छी बनी थी आराम से पीने लगा। कहीं दूर से पुरानी फिल्म, जिस देश में गंगा बहती है, का गाना कानों में धीरे धीरे घुलने लगा। कभी बचपन में लोक संपर्क विभाग वालों ने, सार्वजनिक मैदान में पर्दा टांग कर यह फिल्म दिखाई थी। गाना जो मेरे कानों ने वास्तव में महसूस किया कुछ ऐसा रहा, होठों पर झुठाई रहती है हमारे दिल में सच की पिसाई रहती है, हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा साफ रहती थी।

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हां हम उसी देश के वासी हैं, जिसमें हमने जी भर कर गंदगी फैलाई है। मधुर संगीत वाला गीत भी अब प्रदूषित हो, अस्पष्ट सुन रहा था। कभी जो मेहमान हमारा होता था वह जान से प्यारा होता था लेकिन अब तो हम चाहते ही नहीं कि मेहमान हमारा हो। अब हमें ज़्यादा की ज़रूरत है, क्यूंकि हम लालचियों का थोड़े में गुज़ारा नहीं होता है। हम स्वार्थियों का पेट नहीं भरता है, पेट भर जाए तो मन नहीं भरता। हम गंदे ‘बच्चों’ ने उसी धरती मां का हाल बेहाल कर दिया है जिसने सदियों से इतना कुछ मुफ्त में दिया है। करोड़ों बार नारे लगाने, लाखों सेमीनार करवाने, अरबों भाषण देने के बाद और विज्ञापनों की गंगा बहाने के बाद भी अनगिनत जगह बिखरा पड़ा कूड़ा कर्कट दिखने लगा था मुझे। ऐसा लग रहा था जैसे गंदे, फटे हुए कपड़े पहने, स्वाद चाय बेचने वाला वह बच्चा, मेरे सामने हाथ उठाकर, हिला हिला कर गा रहा है, हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा बहती थी। 


वह चीख चीख कर गाए जा रहा था, कुछ लोग जो ज्यादा जानते हैं दूसरों को इंसान नहीं मानते हैं। वह आज का सच गा रहा था, ज़्यादा समझदार लोग दूसरों को बेवकूफ मानते हैं। यह पूरब है पूरब वाले अब हर जान की ‘कीमत’ जानते हैं। गाने का संदेश अब राजनीतिक लगने लगा था, बच्चा अब राजनीतिज्ञ की तरह चीख रहा था, मिलजुल के रहो और राज करो एक चीज़ यही सफल रहती है, हम उस देश के वासी थे, हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा बहती थी।


- संतोष उत्सुक

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