आह से उपजी कविता (व्यंग्य)

By अरुण अर्णव खरे | Apr 27, 2020

हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि मुरारी जी परेशान हैं इन दिनों। उन्हें अनेक व्हाट्सएप समूहों से बाहर किया जा चुका है। कुछ मित्रों ने फेसबुक पर भी उनको अनफ्रेंड कर दिया है। आज सुबह-सुबह मुझे उनके भूतपूर्व मित्र त्रिलोकी जी टकरा गए तो मैंने उनसे मुरारी जी का जिक्र छेड़ दिया। सुनते ही वह बिफर गए, बोले- "वह कवि ही नहीं है.. इस कोरोना काल में उसने अब तक एक भी कविता किसी पटल पर नहीं लिखी तो उसको कैसे कवि मानें।"


"भाई.. कोरोना को हराना है, कोरोना हुआ धड़ाम, जैसी कविताएँ लिखने से तो अच्छा है कि कविताएँ न लिखी जाएँ"- मैंने मुरारी जी का पक्ष लिया- "वह त्रासदियों पर कविता नहीं लिखता"  "त्रासदी पर न लिखे .. आहों पर तो लिखे, क्या उसे मालूम नहीं कि आह से गीत उपजते हैं"- त्रिलोकी जी का स्वर अब भी तल्ख था।

 

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त्रिलोकी जी का कथन सुनकर मुझे सुमित्रानंदन पंत जी की पंक्तियाँ याद आ गईं। मैंने कहा- "हाँ पंत जी ने लिखा है.. "वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान".. पर इसका और कोरोना का क्या सम्बन्ध"


"है जी है.. सीधा सम्बन्ध है.. क्या तुम्हें पता है कि पंत जी ने ये क्यों लिखा था.. नहीं, तो सुनो, मैं बताता हूँ। उन्होंने महर्षि वाल्मीकि की कहानी सुनकर ये पंक्तियाँ लिखी थीं"- त्रिलोकी जी बोले- "वाल्मीकि जी डाकू थे। महर्षि बनने से पूर्व एक दिन सुबह-सुबह जब वह नदी पर स्नान कर रहे थे कि उन्होंने क्रौंच पक्षियों के एक जोड़े को प्रणय में मगन देखा। तभी किसी शिकारी ने तीर मारकर नर क्रौंच का वध कर दिया। इसके बाद मादा क्रौंच की आह से वाल्मीकि जी इतना आहत हुए कि उनके मुंह से निकल पड़ा- "मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती समा:। यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधी: काममोहितम् ।" आह से उपजा यह श्लोक भारतीय रामायण का आधार माना जाता है। अनजाने में मुँह से निकले इस श्लोक ने वाल्मीकि को आदिकवि का दर्जा दिलवा दिया।"


त्रिलोकी जी की बात सुनकर मैं सोच में पड़ गया। कुछ देर बाद वह स्वयं बोले- "आहों का जीवन में बहुत महत्व है.. पक्षी की आह की वजह से वाल्मीकि जी आदिकवि बने.. कलिंग युद्ध के बाद घायल योद्धाओं की आहें सुनकर सम्राट अशोक ने अपने हृदय में जीवन-गान का अनुभव किया। परिणामस्वरूप उन्हें युद्ध से वितृष्णा हो गई और मानव कल्याण को उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया।"

 

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"जी आप सही फरमा रहे हैं"- मैंने उनकी हाँ में हाँ मिलाई।


"आज पूरी दुनिया कराह रही है। आहों का लेवल उस खतरनाक स्तर तक जा पहुंचा है जहां आजतक दिल्ली का प्रदूषण नहीं पहुंचा। एक टुच्चे से वायरस के आगे सब असहाय हैं.. सबका मन व्यथित है.. आमजन कराह रहे हैं.. खासजन कराह रहे हैं.. हाशिए के लोग कराह रहे हैं.. मेनस्ट्रीम के लोग कराह रहे हैं.. नेता कराह रहे हैं.. कवि कराह रहे हैं.. सब कराह रहे हैं। कवि इतनी कराहों से व्यथित हो अपनी व्यथा का इजहार चार कविताएं प्रतिदिन के मान से लिखकर जगह-जगह चेंप रहे हैं.. व्हाट्सएप पर गोष्ठियां कर रहे हैं.. गा गाकर यू-ट्यूब की भंडारण क्षमता टेस्ट कर रहे हैं। तो सोचो भाई.. जो कवि इतनी आहों और उत्सवधर्मी माहौल के बीच भी कवि-धर्म नहीं निभा पा रहा है तो उसे कैसे कवि कहें.. तुम समझाओ मुरारी को, आहों की परम्परा का पालन करे और लिखे कुछ"- जैसे त्रिलोकी जी ने पूरी तैयारी कर रखी थी कि उन्हें किसी के छेड़ने पर क्या-क्या बोलना है। मुझे उनमें नेताओं की तरह अच्छे खासे तर्क को अपने कुतर्क से परास्त करने की क्षमता के अद्भुत दर्शन हुए।


त्रिलोकी जी से छूटकर मैंने मुरारी जी का रुख किया, उनको समझाया। अगले दिन सुबह जब नींद खुली तो देखा व्हाट्सएप के एक समूह में मुरारी जी की कोरोना-कविता धूम मचाए हुए है।


- अरुण अर्णव खरे

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