बढ़ रही है स्मार्टनेस (व्यंग्य)

By संतोष उत्सुक | Nov 22, 2019

यह तो बहुत खुशी की बात है कि न्यू इंडिया में रहने वाले नयों के साथ पुराने लोगों की ज़िंदगी में स्मार्टनेस बढती जा रही है। स्मार्ट शहरों के चप्पेचप्पे में रोप दी गई स्मार्टनेस ने गांवों की गलियों में भी चुस्ती उगा दी है। ‘हर चीज़ की अधिकता बुरी होती है’ जैसी कही गई बातें अब पुरानी लगती हैं। लेकिन इसे अच्छी बात मान कर, अगर मान लिया जाए तो यह सच लगता है कि आधुनिक जीवन के लिए बेहद ज़रूरी चीज़ स्मार्टनेस, अब कुछ ज्यादा ही बढ़ चुकी है। क्या स्मार्टनेस अब यूटर्न लेकर अपने घर लौटना चाहती है। उधर सामने से आ रही ताज़ा खुशबू वाली नकली बुद्धि इंसानी दिमाग पर पूरी तरह कब्ज़ा करने के चक्कर में बेकरार हुई जा रही है और इधर परम आदरणीय विकासजी की प्रेरणा से हम फिर से मिटटी के बर्तनों में भोजन पकाना और खाना अपनाने लगे हैं। देश में अंतर्राष्ट्रीय स्तर के डिजाइन वाले कपड़े बनाए जा रहे हैं और माल में लोग ऐसे स्मार्ट कपड़े पहन कर विचरते देखे गए हैं मानो अपने बैड रूम से उठकर आ गए हों। 

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वैसे भी मॉल अब बाग की तरह हो गया है जहां आकर स्वास्थ्य सुधर जाता है और दिल बाग बाग हो जाता है। आनलाइन स्वाद मंगाकर, खाकर इतने स्मार्ट हो गए हैं कि सोशल मिडिया पर सुबह से रात तक बतियाते हैं लेकिन पास से गुज़र रहे हों तो वक़्त की ज़बर्दस्त कमी के कारण बिना बात किए स्मार्टली खिसक रहे हैं। अतिस्मार्टनेस राष्ट्रीय हित योजना के अंतर्गत कोई भी किसी से पिट सकता है और हिम्मत हो तो पीट भी सकता है। धार्मिक चुस्ती स्कीम के अनुसार एक सभ्य इंसान दूसरे इंसान को जानवर से बदतर समझ सकने का मौलिक अधिकार रखने लगा है। ओवर स्मार्टनेस सुविधा के अंतर्गत तनरंजन और मनोरंजन बढ़ता जा रहा है और सामाजिक समस्याएं स्मार्टली गायब होती जा रही हैं। शरीर के चौबीस घंटे जागने वाले हिस्से, स्मार्टफोन ने हर उम्र पर अपना सिक्का जमा लिया है। एक तरफ इसका प्रयोग बढ़ रहा है और दूसरी तरफ देश के न्याय स्तम्भ फीचर फोन की दुनिया में लौटना चाहते है। क्या यह एंटी स्मार्टनेस कार्यशैली है। बढती उम्र के साथ पुरानी चीज़ों के प्रति आकर्षण बढ़ता ही जाता है। 

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कहीं हम में से कुछ लोगों को वहम तो नहीं हो रहा कि हमारी भगदड़युक्त जीवन शैली को पीछे लौटने की ज़रूरत है। सोशल मिडिया अति ओवर स्मार्ट हो चुका है, उसे समझाया जा चुका है किसका नुकसान करने से किसका फायदा होगा। ज़िन्दगी फ़र्ज़ी खबर की मानिंद होती जा रही है लेकिन उसे झूठ साबित करने का हुनर सबके पास नहीं है। राजनीतिक स्मार्टनेस के कारण हर सफलता के मंगल की फ़िक्र हो रही है लेकिन स्वास्थ्य के चन्द्रमा पर पड़े खड्डे बेहतर डिजिटल तकनीक के कारण दिखते नहीं। यह शब्दों की स्मार्टनेस ही तो है कि बहुत लोग दिल से खुश नहीं हैं लेकिन शरीर से सब सहमत हैं। सुना है अब मानवीय संबंध पूरी तरह से व्यवसायिक हो चुके हैं और वहां व्यवसायियों को समझाया जा रहा है कि भावना भी कोई चीज़ होती है। मित्रों सावधान! ज़माना बदल चुका है, अब कम स्मार्ट लोगों के लिए नई बस्ती में जगह कम होती जा रही है।

 

- संतोष उत्सुक

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