By नीरज कुमार दुबे | Feb 25, 2025
तमिलनाडु की सरकार के पास गिनाने के लिए कुछ उपलब्धियां नहीं हैं तो उसने अब देश की राजभाषा और राष्ट्रभाषा हिंदी के ही खिलाफ युद्ध छेड़ने का ऐलान कर दिया है। देखा जाये तो तमिल भारत की ‘राष्ट्रीय भाषाओं’ में से एक है जबकि हिंदी देश की राजभाषा है। लेकिन राजभाषा के खिलाफ जिस तरह तमिलनाडु में राजनेता माहौल को भड़का रहे हैं वह सर्वथा गलत है। तमिलनाडु में जिस तरह सत्तारुढ़ द्रमुक के नेता हिंदी के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं, रेलवे स्टेशन पर हिंदी में लिखी पटि्टका पर कालिख पोती जा रही है, साइनबोर्डों पर हिंदी में लिखे गये शब्द मिटाये जा रहे हैं, डाकघर, बीएसएनएल कार्यालय के बोर्ड पर हिंदी शब्दों पर कालिख पोती जा रही है, गली-गली हिंदी विरोधी अभियान चलाये जा रहे हैं वह दर्शा रहा है कि राजनेता अपने हिंदी विरोधी अभियान में सफल हो रहे हैं। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने तो सीधा-सीधा ऐलान तक कर दिया है कि राज्य ‘एक और भाषा युद्ध’ के लिए ‘तैयार’ है। एक संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति के मुंह से देश की राजभाषा के खिलाफ युद्ध जैसा शब्द निकलना चौंकाता भी है और उनके मन की नफरत का इजहार भी करता है। यही नहीं, द्रमुक ने राज्य में "कोलम अभियान" शुरू किया है जिसमें चावल के आटे से सड़कों पर रंगोली बनाकर विरोध दर्ज कराया जाता है।
हम आपको बता दें कि यह सारा विवाद राष्ट्रीय शिक्षा नीति में तीन-भाषा की नीति को लेकर खड़ा हुआ है। तमिलनाडु सरकार का आरोप है कि मोदी सरकार हिंदी थोपने का प्रयास कर रही है। जबकि केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने तमिलनाडु सरकार की ओर से राष्ट्रीय शिक्षा नीति के विरोध को ‘राजनीतिक’ करार दिया है। उन्होंने कहा है कि तीन भाषा के फॉर्मूले में छात्रों पर हिंदी नहीं थोपी जा रही और राज्य सरकार स्कूली शिक्षा पर कोई भी तीन भारतीय भाषाएं चुन सकती है। वहीं द्रमुक तीन भाषा नीति का विरोध कर रही है और जोर दे रही है कि तमिलनाडु, तमिल एवं अंग्रेजी से संतुष्ट है। पार्टी ने केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली राजग सरकार पर ‘‘हिंदी थोपने’’ का आरोप लगाया है। हालांकि केंद्र सरकार ने इस आरोप का खंडन किया है।
देखा जाये तो द्रमुक हिंदी को खारिज करके तमिलनाडु को ‘देश की प्रगति की मुख्यधारा’ से अलग करना चाहती है जबकि प्रख्यात शिक्षाविदों का मानना है कि यह नई पीढ़ी सहित लोगों की प्रगति सुनिश्चित करने और उन्हें अच्छे नागरिक बनाने के लिए एक अच्छी पहल है। जहां तक तमिल को बढ़ावा देने की बात है तो यह हर भारतीय का कर्तव्य है कि वह तमिल समेत सभी भारतीय भाषाओं को सीखने और उसे आगे बढ़ाने में अपना योगदान दे लेकिन यह हक किसी को नहीं है कि वह किसी भारतीय भाषा या भारत की राजभाषा के खिलाफ नफरत प्रकट करे या उसके खिलाफ युद्ध का ऐलान करे।
तमिलनाडु में सत्तारुढ़ द्रमुक को देखना चाहिए कि हिंदी ही वह भाषा है जो देश में सर्वाधिक बोली जाती है और यही पूरे देश में समन्वय की भाषा बनने की ताकत भी रखती है। प्रयागराज महाकुंभ में तमिलनाडु से जो श्रद्धालु आये वह भी टूटी-फूटी हिंदी में ही अपने भाव प्रकट कर रहे थे क्योंकि वह जानते हैं कि दिल की भाषा क्या है। अभी हाल ही में द्रमुक सांसद दयानिधि मारन ने लोकसभा सचिवालय के उस कदम का संसद में विरोध किया था, जिसमें सदन की कार्यवाही का संस्कृत में अनुवाद करने की बात कही गई थी। ऐसा तब है जब तमिलनाडु में देश का सबसे पुराना संस्कृत महाविद्यालय है और द्रमुक भी संस्कृत शब्द है। देखा जाये तो दुनिया में संस्कृत जैसी वैज्ञानिक, व्याकरण सम्मत और समृद्ध भाषा कोई और नहीं है। यह दुनिया की सबसे प्राचीन भाषा तो है ही, शब्द भंडार इतना बड़ा है कि उसके मुकाबले दुनिया की समस्त भाषाओं का संपूर्ण शब्द-भंडार भी छोटा है। अमेरिकी संस्था ‘नासा’ के एक अनुमान के अनुसार संस्कृत चाहे तो 102 अरब से भी ज्यादा शब्दों का शब्दकोश जारी कर सकती है, क्योंकि उसकी धातुओं, लकार, कृदंत और पर्यायवाची शब्दों से लाखों नए शब्दों का निर्माण हो सकता है। संस्कृत की बड़ी खूबी यह भी है कि उसकी लिपि अत्यंत वैज्ञानिक और गणित के सूत्रों की तरह है। जैसा बोलना, वैसा लिखना और जैसा लिखना, वैसा बोलना। ‘नासा’ ने अपने वैज्ञानिक अनुसंधानों और कंप्यूटर के लिए संस्कृत को सर्वश्रेष्ठ भाषा बताया है। संस्कृत सचमुच में विश्व भाषा है। इसने दर्जनों एशियाई और यूरोपीय भाषाओं को समृद्ध किया है। संस्कृत को किसी धर्म-विशेष से जोड़ना भी गलत है। संस्कृत जब प्रचलित हुई, तब पृथ्वी पर न तो हिंदू, न ईसाई और न ही इस्लाम धर्म का उदय हुआ था। संस्कृत भाषा किसी जाति-विशेष की जागीर नहीं है।
हिंदी का विरोध कर रही द्रमुक को यह भी पता होना चाहिए कि इसी भाषा ने भारत में भाषाओं की विविधता को एकता के सूत्र में पिरोने का काम किया है और इसने अलग-अलग भारतीय भाषाओं और बोलियों के साथ-साथ कई वैश्विक भाषाओं को सम्मान दिया है और उनकी शब्दावलियों, पदों और व्याकरण के नियमों तक को अपनाया है। हिंदी की किसी भी भारतीय भाषा से न कभी कोई स्पर्धा थी और न ही कभी हो सकती है। हिंदी तो सभी स्थानीय भाषाओं को सशक्त बनाने का माध्यम है। देखा जाये तो भारत, विविध भाषाओं का देश है और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की भाषाओं की विविधता को एकता के सूत्र में पिरोने का नाम हिंदी है। हिंदी भाषा ने स्वतंत्रता आन्दोलन के मुश्किल दिनों में देश को एकसूत्र में बांधने का अभूतपूर्व कार्य किया था। इसने अनेक भाषाओं और बोलियों में बंटे देश में एकता की भावना स्थापित की थी। देश में पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक स्वतंत्रता की लड़ाई को आगे बढ़ाने में संवाद भाषा के रूप में हिंदी की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही थी।
वैसे स्टालिन चाहे कुछ भी कहें लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि भारतीय भाषाओं के संरक्षण और उनके प्रचार के लिए मोदी सरकार का कार्यकाल गौरवशाली समय रहा है और सरकार ने भाषाओं के व्यापक उपयोग के लिए अनेक कदम उठाए हैं। पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में पांच और भारतीय भाषाओं को शास्त्रीय भाषा दर्जा दिया गया है, इसी के साथ भारत 11 भाषाओं को शास्त्रीय भाषाओं के रूप में मान्यता देने वाला एकमात्र देश बन गया है। प्रधानमंत्री ने भारतीय भाषाओं के संरक्षण, प्रचार और व्यापक उपयोग के लिए कई पहल की हैं, जिससे 2014 से 2024 तक की अवधि भारतीय भाषाओं के संरक्षण और प्रचार के लिए एक समर्पित युग बन गई है। भारतीय भाषाओं में इंजीनियरिंग की पढ़ाई, चिकित्सा, प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा की उपलब्धता ने सभी भाषाओं के विकास के लिए एक अनुकूल वातावरण तैयार किया है।
बहरहाल, द्रमुक नेताओं को यह भी समझना होगा कि तमिल गौरव की बात करने भर से काम नहीं चलेगा। यह देखना होगा कि तमिल गौरव बढ़ाने का काम सबसे ज्यादा किसने किया है। द्रमुक नेताओं को देखना चाहिए कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वास्तविक तमिल गौरव को बरकरार रखा है। उन्होंने नए संसद भवन में तमिल सेनगोल स्थापित किया और भारत मंडपम के सामने नटराज की प्रतिमा (भगवान शंकर की नटराज प्रतिमा, जो महान चोल राजाओं द्वारा निर्मित तंजावुर में मिली) स्थापित की। राष्ट्रीय स्तर पर तमिल गौरव को इससे अधिक मान्यता पहले कभी नहीं मिली थी। लेकिन इन पार्टियों को तमिल "सांस्कृतिक गौरव" में कोई दिलचस्पी नहीं है, वे तो बस "राजनीतिक विभाजन" में अधिक रुचि रखते हैं इसलिए हिंदी का विरोध कर रहे हैं। ऐसे लोगों को समझना होगा कि सभी भारतीय भाषाएं देश की सांस्कृतिक धरोहर हैं, जिन्हें हमें साथ लेकर चलना है।