By अभिनय आकाश | Feb 03, 2025
दिल्ली में चुनाव प्रचार के शोर थमने के साथ ही पांच फरवरी को वोटिंग और 8 फरवरी के नतीजों पर सभी की निगाहें अब टिक जाएंगी। यानी वक्त काफी कम है और जैसे जैसे समय नजदीक आ रहा है। केजरीवाल की धड़कने भी बढ़ रही है। इस बार के चुनाव में बीजेपी ने केजरीवाल को ऐसे चक्रव्यूह में फंसा दिया जिससे केजरीवाल बड़ी संकट में हैं। चुनाव के आखिरी दौर में बीजेपी ने अपने सांसदों की पूरी फौज को प्रचार के लिए उतार दिया। इसमें एनडीए के सांसद भी शामिल हैं। एनडीए के 246 सांसदों को काम पर लगाया गया। ये सांसद दिल्ली में विभिन्न मंडलों में वोट मांगते नजर आए। बीजेपी की तरफ से माइक्रोमैनेजमेंट इस स्तर पर किया गया कि हर वोटर के परिवारों वालों तक खबर पहुंच सके। एक एक वोटर को जोड़ने के लिए हर संभव प्रयास किए जा रहे हैं। ऐसे में हर किसी के मन में ये सवाल है कि दिल्ली पर केंद्रित योजनाओं के साथ क्या बीजेपी पिछले तीन दशकों से राजधानी के प्रमुख विपक्ष की भूमिका से बाहर निकल कर सत्ता पर काबिज हो पाएगी या फिर आप लगातार तीसरी बार सत्ता बरकरार रखेगी?
रेवड़ी वाला नैरेटिव कैसे हुआ फेल?
फ्री वाला नैरेटिव केजरीवाल लेकर चले थे। वो असरदार नहीं रह पाया। अरविंद केजरीवाल ने चुनाव की घोषणा से पहले ही 2100 रुपये देने का वााद कर दिया। अब तो आलव ये हो गया कि झुग्गी झोपड़ियों में ऐसे ही वादों के फॉर्म बीजेपी और कांग्रेस की तरफ से भी भरवाए जा रहे हैं। फिर आप के वादे में खास क्या रह गया। लोगों को लगने लगा कि ये तो सब दे रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी बार बार आकर कह रहे हैं कि जो जो योजनाएं चल रही हैं, उससे ज्यादा दूंगा। अब फ्रीबीज वाली नैरेटिव को इसी तरह के वादे करते हुए कांग्रेस और बीजेपी ने पलीता लगा दिया। केजरीवाल को झुग्गी झोपड़ी में रहने वाले लोग, ऑटो वाले लोग, मुस्लिम लोग वोट करते थे। लेकिन ये केजरीवाल के परमानेंट वोटर नहीं रहा है। इसमें बहुत सारे कांग्रेस के वोटर रहे हैं। वहीं पूर्वांचल से आने वाले मीडिल क्लास वर्ग के लोग बीजेपी के वोटर हैं। लेकिन दिल्ली में मुफ्त रेवड़ी के चक्कर में इनका झुकाव आप की तरफ होता था। बीजेपी ने सारा खेल यहीं कर दिया।
माइक्रो लेवल पर काम कर रही बीजेपी
प्रधानमंत्री के दो ब्रह्मास्त्र सटीक निशाने पर लगे। 8वां वेतन आयोग कि घोषणा हुई, दिल्ली में सरकारी अधिकारियों की संख्या अच्छी खासी है। केजरीवाल अपनी सीट को लेकर भी फंसे हुए नजर आ रहे हैं। ये सब उनकी पत्र लिखकर स्पेशल ऑब्जर्बर नियुक्त करने की मांग से झलक भी रहा है। 12 लाख का इनकम टैक्स में रिबेट मिलने से लोकसभा में बीजेपी के साथ और विधानसभा में केजरीवाल के साथ जाने वाले वोटरों पर भी बड़ी स्ट्राइक कही जा सकती है। उदाहरण के लिए अगर हम सबसे अहम नई दिल्ली सीट को देखें तो 17-18 प्रतिशत उत्तराखंड के वोटरों को लुभाने के लिए उत्तराखंड के विधायकों को लगा दिया गया है। कहा जा रहा है कि तमाम सांसदों को लिस्ट दी गई है। जिन्हें घर घर जाकर वोटरों से मिलना है।
कैसे हो सकता है वोटरों में स्विंग
कुछ राज्य ऐसे हैं, जो कुछ ही समय के अंतराल पर होने वाले लोकसभा और विधानसभा चुनावों में अलग-अलग परिणाम देते हैं। लेकिन दिल्ली में तो एक के बाद एक होने वाले चुनावों में परिणाम पूरी तरह से उलट जाते हैं। दिल्ली में जहां भाजपा लोकसभा चुनाव में भारी जीत दर्ज करती है, वहीं आप भारी बहुमत से विधानसभा चुनाव जीत लेती है। ऐसा एक बार होता तो संयोग माना जा सकता था, लेकिन दो बार हो चुका है। इसका कारण यह है कि दिल्ली में बड़ी संख्या में स्विंग बोटर्स हैं, जो लोकसभा में भाजपा को वोट देते हैं पर विधानसभा में आप के पीछे लामबंद हो जाते हैं।
लोकसभा और विधानसभा में कौन वोटर बदल जाते हैं
कौन आम चुनाव में बीजेपी को वोट देता है लेकिन विधानसभा चुनाव में नहीं? अगर हम आप के उदय से देखें तो 2014 के लोकसभा चुनाव तक दिल्ली में आप लोकप्रिय हो चुकी थी और उसे 32.9% वोट मिले थे, लेकिन यह एक भी सीट नहीं जीत सकी थी। दूसरी ओर, भाजपा ने 46.4% वोटों के साथ सभी 7 सीटें चीत ली थीं। लेकिन जब 2015 में विधानसभा चुनाव हुए तो आप को 54.3% वोट मिले और उसने कुल 70 विध्धनसभा सीटों में से 67 पर जीत हासिल कर ली। अगले चुनावों में फिर यही कहानी दोहराई गई। 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान आप को 18.1% वोट मिले और यह एक भी सीट नहीं जीत सकी। भाजपा 56.5% वोटों के साथ एक बार फिर सभी 7 सीटों पर जीत गई। जब 2020 में विधानसभा चुनाव हुए तो आप को 53.5% वोट मिले और उसने 62 विधानसभा सीटें जीती। 2024 में हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा को दिल्ली को 54.3% पोट मिले और उसने 2014 और 2019 की तरह सभी 7 सीटें जीतकर हैट्रिक पूरी कर ली। कांग्रेस के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ने वाली आप को 24.1% वोट ही मिले। जाहिर है कि दिल्ली में कम से कम 12 से 15% ऐसे स्विंग-बोटर्स हैं, जो दो चुनावों के बीच अपनी राजनीतिक पसंद को एक पार्टी से दूसरी पार्टी में बदल लेते हैं।