तारापुर शहीद दिवस: जब 34 लोगों की शहादत पाकर तारापुर थाना पर लहराने लगा तिरंगा

By कमलेश पांडेय | Feb 24, 2021

# "उस दिन तिरंगा फहराने पर अंग्रेजी अफसरों ने चलवा दी अंधाधुंध गोलियां, जिससे लगभग तीन दर्जन लोग शहीद हो गए थे"


फरवरी का महीना भारतीयों के स्वाभिमान और आन बान शान का प्रतीक है। इसी महीने की 15 फरवरी 1932 को बिहार के मुंगेर जिला के तारापुर वासियों ने अपने अदम्य साहस और राष्ट्रप्रेम का परिचय देते हुए वह कुर्बानी दी, जिस पर राष्ट्र का बच्चा-बच्चा गौरव करता आया है। वैसे तो देश प्रेम में निजी अथवा सामूहिक कुर्बानी देने के अनेक उदाहरण मौजूद हैं, लेकिन तारापुर गोली कांड ने पूर्वी भारत में स्वतंत्रता प्रेम की जो अलख जगाई, उसने महज 15 साल बाद ही 15 अगस्त 1947 के शुभ मुहूर्त को और ज्यादा संभव बना दिया। वैसे तो बचपन से ही तारापुर शहीद स्मारक का दीदार करता आया हूँ जिसे भारतवासियों को यह प्रेरणा मिलती है कि भारत माता के स्वाभिमान की रक्षा के लिए और राष्ट्रध्वज तिरंगा के सम्मान के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने का वैसा ही जज्बा हमारे दिल में होना चाहिए, जैसा कि हमारे अमर शहीदों ने वक्त वक्त पर प्रदर्शित किया है। 

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यूं तो तारापुर शहीद दिवस के बारे में सभी जानते हैं, लेकिन इतिहास के पन्नों में आज से लगभग 9 दशक पहले क्या हुआ था, शायद कई लोग आज भी इससे अनजान होंगे। दरअसल, आजादी के लिए देश के कोने-कोने में लड़ी गई लड़ाइयां समय-समय पर कहानी और किताबों के माध्यम से सामने आती रही हैं। तारापुर के शहीदों की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मन की बात कार्यक्रम में बिहार राज्य में स्थिति मुंगेर जिले के तारापुर के शहीदों का जिक्र किया था। जिससे इस घटना को एक बार पुनः चर्चा में आने का मौका मिला है। इस बात में कोई दो राय नहीं कि तिब्बत सीमा पर 2020 की गलवान घाटी शहादत देने के पीछे भी हमारे देश के सैनिकों के समक्ष ऐसी ही गिनी चुनी घटनाओं से मिली प्रेरणाएं शामिल हैं। इसलिए हम सभी का यह पुनीत कर्तव्य है कि 15 अगस्त और 26 जनवरी जैसे राष्ट्रीय पर्व के मौके पर ऐसे बलिदान स्थलों पर वैसा स्वाभिमान रक्षा पर्व मनाएं कि भावी पीढ़ियों के लोग न केवल उस पर गौरव कर सकें, बल्कि वक्त आने पर वैसा ही उदाहरण प्रस्तुत करने का मौका मिलने पर कतई नहीं हिचकिचाएं। राष्ट्र की सीमाओं की रक्षा के लिए और देश में आतंकवाद, नक्सलवाद और अंडरवर्ल्ड की कारगुजारियों से लोहा लेते हुए हमारे वीर जवानों ने और आम वीर पुरुषों ने जो शहादत दी है, उसी से स्थापित अमन-चैन के माहौल में हमलोग सांस ले पा रहे हैं, अन्यथा गुलामी की घुटन महसूस करनी हो तो इतिहास के पन्ने पलट लें।


बता दें कि पीएम मोदी ने 31 जनवरी 2021 को मन की बात कार्यक्रम में कहा, "इस वर्ष भारत अपनी आजादी के, 75 वर्ष का समारोह- अमृत महोत्सव शुरू करने जा रहा है। ऐसे में यह हमारे उन महानायकों से जुड़ी स्थानीय जगहों का पता लगाने का बेहतरीन समय है, जिनकी वजह से हमें आजादी मिली। साथियों, हम आजादी के आंदोलन और बिहार की बात कर रहें हैं, तो, मैं, NaMo App पर ही की गई एक और टिप्पणी की भी चर्चा करना चाहूंगा। मुंगेर के रहने वाले एक समाजसेवी ने मुझे तारापुर शहीद दिवस के बारे में लिखा है। 15 फरवरी 1932 को, देशभक्तों की एक टोली के कई वीर नौजवानों की अंग्रेजों ने बड़ी ही निर्ममता से हत्या कर दी थी। उनका एकमात्र अपराध यह था कि वे ‘वंदे मातरम’ और ‘भारत मां की जय’ के नारे लगा रहे थे। मैं उन शहीदों को नमन करता हूं और उनके साहस का श्रद्धापूर्वक स्मरण करता हूं।" 


# ......तब अंग्रेजी अफसरों के सामने ही थाने पर फहरा दिया तिरंगा और हंसते हंसते मौत को गले लगा लिया


मसलन, 1930 के दशक में तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत से आजादी के लिए देश के कोने-कोने से स्वतंत्रता आंदोलन की चिंगारी निकल रही थी। उनमें से एक बिहार राज्य के मुंगेर के तारापुर भी है। जहां 15 फरवरी की दोपहर में क्रांतिवीरों का जत्था घरों से बाहर निकला। क्रांतिवीरों का दल तारापुर तत्कालीन ब्रिटिश थाना पर राष्ट्रीय झंडा फहराने के लिए तिरंगा हाथों में लिए बेखौफ बढ़ते जा रहे थे और उनका मनोबल बढ़ाने के लिए जनता खड़ी होकर भारत माता की जय, वंदे मातरम आदि का जयघोष कर रही थी। तभी मौके पर मौजूद कलेक्टर ई ओली व एसपी डब्लू. एस. मैग्रेथ ने निहत्थे स्वतंत्रता सेनानियों पर अंधाधुंध गोलियां चलवा दीं। गोलियां चलती रहीं और आजादी के दीवाने वहां से हिले तक नहीं। देखते ही देखते 34 लोगों की शहादत के बीच धावक दल के मदन गोपाल सिंह, त्रिपुरारी सिंह, महावीर सिंह, कार्तिक मंडल, परमानन्द झा ने ब्रिटिश थाने पर तिरंगा फहरा दिया। अंग्रेजी हुकूमत की इस बर्बर कार्रवाई में 34 स्वतंत्रता प्रेमी शहीद हुए। हालांकि विद्रोह को दबाने के लिए आनन-फानन में अंग्रेजों ने कायरतापूर्वक वीरगति को प्राप्त कई सेनानियों के शवों को वाहन में लदवाकर सुल्तानगंज भिजवाकर गंगा में बहवा दिया था।

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1932 की इस घटना ने उन दिनों एक बार फिर 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग गोलीकांड की बर्बरता की याद ताजा कर दी थी। तभी से हर साल तारापुर शहीद दिवस प्रत्येक वर्ष 15 फरवरी को मनाया जाता है। इतिहासकार डी सी डीन्कर ने अपनी किताब "स्वतंत्रता संग्राम में अछूतों का योगदान" में भी तारापुर की इस घटना का जिक्र किया है। इसके अलावा, लोक श्रुतियों, लोक गीतों, स्थानीय पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं में भी इस घटना के बारे में विस्तृत जानकारियां मौजूद हैं। इस पर कई शोध भी हो चुके हैं, लेकिन आधुनिक परिवेश के मद्देनजर इस पर नए सिरे से शोध होना चाहिए, ताकि राष्ट्रप्रेम के साथ साथ सामाजिक सद्भावना को भी बढ़ावा मिले, जिसका अकाल पड़ता जा रहा है।


- कमलेश पांडेय

वरिष्ठ पत्रकार व स्तम्भकार

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