दलित मुद्दे पर भाजपा को भीतर से ही मिल रही हैं ज्यादा चुनौतियाँ

By अजय कुमार | Apr 09, 2018

दलितों के मुद्दे पर बसपा के आंदोलन और सपा के समर्थन को देखते हुए भाजपा अपने दलित एजेंडे को धार देने में जुट गई है। भाजपा के सामने समस्या यह है कि दलित मुद्दे पर उसे बाहर से अधिक भीतर से चुनौती ज्यादा मिल रही है। जब से सपा−बसपा के बीच गठबंधन हुआ है तब से बीजेपी के कुछ दलित सांसदों का रवैया भी अचानक से बदल गया है। एक तरफ दलित वोट बैंक को मजबूत करने के लिये भाजपा हर 'टोटका' अपना रही है तो दूसरी तरफ बसपा को आईना दिखाने का भी काम कर रही है। बीजेपी आलाकमान द्वारा बनाई गई रणनीति के तहत ही दलितों को राजनीतिक भागीदारी देने से लेकर उनके आर्थिक विकास के लिए भी ताना−बाना बुना जा रहा है। कुछ एक अति महत्वाकांक्षी बीजेपी दलित सांसदों को छोड़ दिया जाये तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह से लेकर पार्टी के तमाम प्रमुख दलित नेता यह प्रचारित करने में लगे हैं कि भाजपा ही दलितों की असली हितैषी है। इन दलित नेताओं की लिस्ट में केंद्रीय मंत्री कृष्णा राज, अनुसूचित जाति, जन जाति आयोग के अध्यक्ष प्रोफेसर राम शंकर कठेरिया और संगठन के अन्य वरिष्ठ नेताओं के नाम शामिल हैं।

वैसे तो पूरे देश में दलितों की सियासत करने वाले बीजेपी को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं, लेकिन दलित सियासत के नाम पर उत्तर प्रदेश में बीजेपी की स्थिति कुछ ज्यादा खराब नजर आ रही है। बहराइच से बीजेपी की दलित सांसद सावित्री बाई फुले ने सबसे पहले आरक्षण के मुद्दे पर अपनी ही सरकार पर उंगली उठाई थी, अब इस लिस्ट में इटावा से बीजेपी सांसद अशोक दोहरे, राबट्र्सगंज से सांसद छोटे लाल खरवार का भी नाम शामिल हो गया है। दोहरे ने प्रधानमंत्री मोदी को खत लिखकर योगी राज में दलितों का उत्पीड़न किये जाने का आरोप लगाया है। अब इस लिस्ट में नगीना से बीजेपी के दलित सांसद डॉ. यशवंत सिंह का भी नाम जुड़ गया है। यशवंत ने आरोप लगाया है कि केन्द्र सरकार ने चार वर्षों में दलितों के हित में एक भी काम नहीं किया है।

 

चार−चार दलित सांसदों के बगावती तेवर दिखाने से बीजेपी आलाकमान हैरान जरूर है, लेकिन हाईकमान यह भी जानता है कि यह नेतागण भले ही केन्द्र सरकार पर दलित हितों की अनदेखी का आरोप लगा रहे हों लेकिन इस विरोध के पीछे की वजह सियासी ज्यादा है। माना जा रहा है कि कुछ दलित सांसद आलाकमान पर दबाव बनाकर अपना टिकट कटने से बचाने के साथ−साथ और कुछ सौदी बाजी भी करना चाह रहे हैं। असल में चर्चा यह है कि बीजेपी और आरएसएस इस बार के लोकसभा चुनाव में बाहरियों से अधिक अपने काडर के नेताओं को टिकट देने की रणनीति बना रहे हैं, जिसके चलते बाहर से आकर बीजेपी के सांसद कुछ नेताओं का टिकट कट सकता है। इसकी गाज कुछ दलित सांसदों पर भी गिरती दिख रही है इसीलिये यह सांसद बगावत कर पर उतर आये हैं। जिनकी सियासी जमीन भी खिसकी हुई है।

 

बगावती तेवर अख्तियार किये हुए यह सांसद पार्टी आलाकमान पर कितना प्रभाव डाल पायेंगे, यह तो समय ही बतायेगा लेकिन इन बागी सांसदों और बीएसपी−एसपी को सबक सिखाने के लिये बीजेपी उत्तर प्रदेश में विशेष सक्रियता बरतने लगी है। प्रधानमंत्री मुद्रा योजना, अटल पेंशन योजना, प्रधानमंत्री बीमा योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना समेत अनेक योजनाओं में दलित लाभार्थियों की संख्या सबसे ज्यादा सुनिश्चित की गई है। भाजपा विधान परिषद चुनाव के साथ−साथ जिला सहकारी बैंकों से लेकर भविष्य के अन्य चुनावों में भी दलित हिस्सेदारी बढ़ा सकती है। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष डॉ. महेंद्र नाथ पांडेय कहते हैं कि अनुसूचित जाति व जनजाति के लिए आरक्षित 131 लोकसभा सीटों में 66 दलित सांसद जबकि उप्र विधानसभा में 87 प्रतिशत दलित विधायक भाजपा के ही हैं। देश के सर्वोच्च पद पर राष्ट्रपति के रूप में दलित समुदाय से आने वाले रामनाथ कोविंद हैं।

 

बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष को लगता है कि दलित हितों के नाम पर दौलत से खेलने वाली मायावती ने तो हमेशा दलितों के वोट का कारोबार किया है। लेकिन उनकी सरकारी में प्रत्येक स्तर पर चलने वाली सरकारी योजनाओं में भी दलित हितों को प्राथमिकता देने की हिदायत है। उत्तर प्रदेश सहकारी ग्राम विकास बैंक लिमिटेड भविष्य में नेशनल शिड्यूल कास्ट फाइनेंस डेवलपमेंट कारपोरेशन से प्रदेश के गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले अनुसूचित जाति के किसानों को भी कम ब्याज दर पर (छह प्रतिशत वार्षिक) ऋण दिया जाना प्रस्तावित है।

 

बीजेपी के दावों को खोखला भी नहीं कहा जा सकता है। दलितों को लुभाने के लिये ही मोदी और योगी सरकार संविधान निर्माता बाबा साहब डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर को महत्व देने के साथ ही दलित महापुरुषों को पाठ्यक्रमों भी लाने जा रही है। मोदी सरकार डॉ. आंबेडकर के जीवन से जुड़े स्थानों को पंचतीर्थ पहले ही घोषित कर चुकी है। सरकारी दफ्तरों में डॉ. आंबेडकर का चित्र भी अनिवार्य कर दिया गया है। ग्राम स्वराज अभियान में भी ग्राम विकास, गरीब कल्याण और सामाजिक न्याय पर अलग−अलग कार्यक्रमों के अलावा दलित हितों को विशेष प्राथमिकता मिलेगी और डॉ. आंबेडकर के संदेशों का प्रसारण होगा।

 

बात बसपा की कि जाये तो, उसके लिये दलित वोट बैंक की सियासत की राह आसान नहीं है। दलित एक्ट पर अपने ही शासनादेश पर पलटी मार लेने के बाद छिड़ी सियासी जंग में बसपा सुप्रीमो मायावती द्वारा दोहरा मापदंड अपनाने से उनके सर्व समाज वाले नारे की हवा निकल गई है। वर्ष 2007 में मायावती द्वारा अपने मुख्यमंत्रित्व काल में जारी किए गए शासनादेश पर यू−टर्न लेना भारी पड़ सकता है। बता दें कि गत दो अप्रैल को भारत बंद का समर्थन करने वाली बसपा प्रमुख मायावती ने दलित एक्ट का दुरुपयोग रोकने की पहल वर्ष 2007 में सत्ता में रहते की थी। तब बसपा को बहुमत की सरकार बनाने का मौका मिला तो मायावती ने अन्य वर्गों के वोटों को लुभाने के लिए सर्वजन हिताय व सर्वजन सुखाय फार्मूले को महत्व देते हुए दो आदेश जारी किए थे, जिससे दलित कानून का दुरुपयोग न हो। तत्कालीन मुख्य सचिव प्रशांत कुमार मिश्र द्वारा 29 अक्टूबर, 2007 को जारी आदेश में कहा गया था कि वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक और पुलिस अधीक्षक हत्या और दुष्कर्म जैसे अपराधों पर संज्ञान लें। प्राथमिकता के आधार पर जांच कराएं, यह सुनिश्चित करें कि किसी निर्दोष का उत्पीड़न न होने पाए। आदेश में कहा गया था कि अगर जांच में पाया गया कि कोई फर्जी मामला बनाया है तो भारतीय दंड संहिता की धारा 182 के तहत कार्रवाई होनी चाहिए।

 

इससे पहले तत्कालीन मुख्य सचिव शंभूनाथ द्वारा 20 मई, 2007 को एक आदेश जारी किया गया था, जिसमें 18वें बिंदु में उक्त कानून के तहत पुलिस शिकायतों के बारे में विस्तृत विवरण था। यह आदेश मायावती ने मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के कुछ समय बाद ही जारी किया था। इसमें एससी−एसटी एक्ट में दुष्कर्म की शिकायत पर आरोपी के खिलाफ कार्रवाई तभी शुरू की जानी थी जब मेडिकल जांच में पुष्टि हो जाए लेकिन अब मायावती कह रही हैं कि उन्होंने सीएम रहते जो आदेश दिया था, बीजेपी वाले उसकी व्याख्या तोड़−मरोड़कर कर रहे हैं। इस पूरे खेल में समाजवादी पार्टी फूंक−फूंक कर कदम रख रही है। बसपा से गठबंधन करने के बाद सपा को दलित वोट से अधिक चिंता अपने वोट बैंक को बचाये रखने की है। सपा नेता जानते हैं कि दलित वोट बैंक उनका कभी नहीं रहा। फिर भी अगर सपा दलित वोट बैंक के चक्कर में फंसती है तो इसका फायदे की जगह नुकसान ज्यादा हो सकता है। अन्य बिरादरी के वोटर पार्टी से दूरी बना सकते हैं। पूरे खेल में कांग्रेस ही ऐसी पार्टी है जिसके पास न तो पाने को कुछ है न खोने को, प्रदेश में उसकी स्थिति लगातार दयनीय होती जा रही है। कांग्रेस प्रत्याशी जीतना तो दूर जमानत भी नहीं बचा पा रहे हैं।

 

-अजय कुमार

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