आपातकाल में प्रेस सेंसरशिप के जरिए मीडिया का गला घोटा गया

By डॉ. आशीष वशिष्ठ | Jun 28, 2025

25 जून 1975 की वो तारीख जब आधी रात को देश में आपातकाल की घोषणा की गई। देश में आपातकाल लग चुका है इसका ऐलान खुद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने रेडियो पर किया। आपातकाल की घोषणा के दो दिन के भीतर ही राजनीतिक विरोधियों और आंदोलनकारियों की गतिविधियों पर तो पहरा बिठा ही दिया गया। इस अवधि के दौरान मानवाधिकारों के उल्लंघन की रिपोर्ट व्यापक रूप से प्रसारित और बहस की गई हैं, लेकिन इस अवधि का सबसे महत्वपूर्ण पहलू प्रेस पर सेंसरशिप थी। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार ने मीडिया पर शिकंजा कसा और प्रेस की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के लिए सभी प्रयास किए।


उस दौरान लोगों तक सूचना पहुंचाने का एकमात्र स्रोत अखबार और रेडियो हुआ करते थे। आपातकाल स्वतंत्र प्रेस के लिए उस वक्त का कोरोना काल साबित हुआ। उस दौर में प्रमुख अखबारों के कार्यालय दिल्ली के जिस बहादुर शाह जफर मार्ग पर थे, वहां की बिजली लाइन काट दी गई, ताकि अगले दिन के अखबार प्रकाशित नहीं हो सकें। जो अखबार छप भी गए, उनके बंडल जब्त कर लिए गए। हॉकरों से अखबार छीन लिए गए। 28 जून 1975 को भारत में आपातकाल के दौरान सरकार विरोधी प्रदर्शनों की पृष्ठभूमि में केंद्र ने स्वतंत्रता के बाद मीडिया पर भी सबसे कठोर प्रेस सेंसरशिप लागू किया।

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इस तरह की सेंसरशिप के खिलाफ सीमित ही सही, अपने-अपने ढंग से प्रतिरोध भी हुआ। सेंसरशिप के विरोध में 28 जून को इंडियन एक्सप्रेस, स्टेट्समैन और नई दुनिया जैसे अखबारों और हिम्मत पत्रिका ने सम्पादकीय की जगह को खाली यानी ब्लैंक स्पेस (खाली जगह) छोड़ दिया था। यह आपातकाल और सेंसरशिप के विरोध का ही एक तरीका था। बाद में सरकार ने पत्र-पत्रिकाओं में ‘ब्लैंक स्पेस’ छोड़ने पर भी पाबंदी लगा दी थी। एक अखबार ने सेंसरशिप की आंखों से बचकर शोक संदेश के कॉलम में छापा-‘आजादी की मां और स्वतंत्रता की बेटी लोकतंत्र की 26 जून, 1975 को मृत्यु हो गई।’


आपातकाल से जुड़ी खबरें सामने न आने पाए इसके लिए इंदिरा गांधी की सरकार ने कई तरह के उपाय किए थे। इनमें से एक अखबारों की बिजली काट देना। इसके पीछे की सोच यह थी कि जब बिजली ही नहीं रहेगी तो मशीने नहीं चल पाएंगी। जब मशीनें नहीं चल पाएंगी तो अखबार कैसे छपेगा। दिल्ली में बहादुर शाह जफर रोड पर अधिकांश अखबारों के दफ्तर हैं। ऐसे में दिल्ली में सरकार ने इस रोड पर स्थिति अखबारों के दफ्तरों की बिजली काट दी थी। इसके अलावा सरकार ने अखबारों और पत्रिकाओं को आर्थिक रूप से नुकसान पहुंचाने के लिए उनको मिलने वाले सरकारी विज्ञापनों पर रोक लगा दी थी। न्यूज पेपर के ऑफिस में अधिकारियों की तैनाती कर दी गई। उनकी बिना इजाजत राजनीतिक खबरों को छापने की मंजूरी नहीं थी।


आपातकाल के दौरान 3801 समाचार-पत्रों के डिक्लेरेशन जब्त कर लिए गए। 327 पत्रकारों को मीसा में बंद कर दिया गया और 290 अखबारों के विज्ञापन बंद कर दिए गए। 50 से अधिक पत्रकारों और कैमरामैन की मान्यता रद्द कर दी गई। हालात इस कदर बिगड़े कि टाइम और गार्जियन अखबारों के समाचार-प्रतिनिधियों को भारत से जाने के लिए कह दिया गया। रॉयटर सहित अन्य एजेंसियों के टेलेक्स और टेलीफोन काट दिए गए। सरकार की ओर से दिए गए आदेश के मुताबिक काम करने से मना करने पर पत्रकारों को जेल में भेजा जाने लगा था। जिन पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया था उनमें मशहूर पत्रकार कुलदीप नैयर और केआर मलकानी शामिल थे। इसके अलावा महात्मा गांधी के पौत्र राजमोहन गांधी के नेतृत्व में निकलने वाली साप्ताहिक पत्रिका 'हिम्मत' को कुछ आपत्तिजनक खबरें प्रकाशित करने के आरोप में जुर्माना लगाया गया था।


सरकार की ओर से प्रेस के लिए दिशानिर्देश जारी कर दिए गए थे। अफवाहों और आपत्तिजनक खबर को छापने की सख्त मनाही थी, जो सरकार के खिलाफ विपक्ष को भड़का सकता था। ऐसे सभी कार्टूनों, तस्वीरों और विज्ञापनों को पहले सेंसरशिप के लिए सौंपना पड़ता था, जो सेंसरशिप के दायरे में आते थे। अधिकारियों को न्यूज एजेंसियों के दफ्तरों में तैनात कर दिया गया था, ताकि ये आपत्तिजनक खबरों को उनके स्रोत पर ही दबा दें। विदेशी न्यूज एजेंसियों की आने वाली कॉपी को जांच की जाती थी। जब इंद्र कुमार गुजराल सरकार के मनोनुकूल मीडिया को नियंत्रित नहीं कर पाए तो आपातकाल के शुरुआती दिनों में उन्हें हटा कर विद्याचरण शुक्ल को नया सूचना एवं प्रसारण मंत्री बनाया गया। प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया भंग कर दिया गया। इतना ही नहीं आयकर, बिजली, नगरपालिका के बकाये की आड़ में अखबारों पर छापे डाले गए। बैंकों को कर्ज देने से रोका गया।


इनसाइड स्टोरी ऑफ इमरजेंसी में वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर लिखते हैं- "आपातकाल के दौरान दिल्ली के संपादकों की एक बैठक बुलाई और उन्हें कड़े शब्दों में कह दिया गया था कि सरकार कभी बकवास बर्दाश्त नहीं करेगी। यह सरकार रहेगी और राज करेगी।" किसी संपादकीय, लेख या कहीं और खाली जगह को भी विरोध माना जाएगा। बता दें यह तरीका अंग्रेजी राज में सेंसरशिप का विरोध करने के लिए भारतीय अखबार आमतौर पर अपनाते थे।


सेंसरशिप के कारण जेपी सहित अन्य कौन-कौन नेता कब गिरफ्तार हुए, उन्हें किन-किन जेलों में रखा गया, ये खबरें समाचार पत्रों को छापने नहीं दी गईं। यहां तक कि संसद एवं न्यायालय की कार्यवाही पर भी सेंसरशिप लागू थी। संसद में अगर किसी सदस्य ने आपातकाल, प्रधानमंत्री या सेंसरशिप के खिलाफ भाषण दिया तो वह कहीं नहीं छप सकता था। सीपीएम नेता नंबूदरीपाद ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पत्र लिख कर कहा था कि आजादी के आंदोलन में भी अंग्रेजों ने विरोधी नेताओं के नाम और बयान छापने पर रोक नहीं लगाई थी। न्यायालय द्वारा सरकार के विरुद्ध दिए गए निर्णयों को भी छापने की मनाही थी।


हालांकि आपातकाल की ज्यादतियों के समाचार को विदेशी अखबारों में छपने से सरकार रोक नहीं पा रही थी। इंदिरा जी विदेशी पत्रकारों पर काफी नाराज थीं। लोग विश्वसनीय समाचार के लिए आकाशवाणी के बजाय बीबीसी न्यूज पर भरोसा करने लगे थे। भारत में बीबीसी के प्रमुख संवाददाता मार्क टुली को 24 घंटे के भीतर देश छोड़ने के लिए बाध्य किया गया था। सरकार ने दि टाइम्स, लंदन, वाशिंगटन पोस्ट, लास एंजेलिस टाइम्स सहित सात विदेशी अखबारों के संवाददाताओं को भारत से निष्कासित कर दिया। दि इकोनॉमिस्ट और दि गार्जियन सहित कुछ अन्य विदेशी अखबारों के पत्रकार धमकियां मिलने के बाद स्वदेश लौट गए। 29 विदेशी पत्रकारों के भारत में प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया गया।


आपातकाल के दौरान प्रेस की स्थिति को लेकर एक श्वेत पत्र 1 अगस्त 1977 में संसद में पेश किया गया। सत्या सी पेज के श्वेत पत्र से यह स्पष्ट हुआ कि आपातकाल के दौरान प्रेस की नीति खुद तानाशाह इंदिरा गांधी ने तय की थी। तानाशाही की इच्छा रखने वाली इंदिरा गांधी ने अपनी अध्यक्षता में तय किया था कि प्रेस काउंसिल को भंग कर दिया जाए और तत्कालीन चारों समाचार एजेंसियों को मिलाकर एक कर दिया जाए, जिससे उन्हें सेंसर करने और संभालने में आसानी होगी।


पूर्व उप मुख्यमंत्री, बिहार एवं सदस्य, राज्य सभा सुशील मोदी लिखते हैं कि, ''प्रेस पर ऐसे कठोर अंकुश लगाने का दुष्परिणाम यह हुआ कि इंदिरा गांधी जमीनी हकीकत से काफी दूर हो गईं। जनता के बड़े वर्ग में भीतर-भीतर ऐसा आक्रोश पनपा कि जब आपातकाल हटने के बाद मार्च 1977 में संसदीय चुनाव हुए, तब लगभग पूरे उत्तर भारत से कांग्रेस का सफाया हो गया। प्रेस की आजादी छीनने की कीमत इंदिरा गांधी को अपनी सत्ता गंवा कर चुकानी पड़ी थी।''


- डॉ. आशीष वशिष्ठ

(स्वतंत्र पत्रकार)

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