By नीरज कुमार दुबे | Aug 11, 2025
पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों में अब चूंकि एक साल से भी कम समय बचा है तो राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप तेज हो चले हैं और विभिन्न माध्यमों का उपयोग करके राजनीतिक संदेश भी दिये जा रहे हैं। राज्य में सत्तारुढ़ तृणमूल कांग्रेस ने खासतौर पर पहचान की राजनीति को लेकर जो अभियान शुरू किया है उसका असर इस वर्ष कोलकाता और पश्चिम बंगाल के कई हिस्सों में दुर्गापूजा पंडालों की थीम में देखने को मिलेगा। हम आपको बता दें कि इस बार विभिन्न दुर्गा पंडाल एक असामान्य लेकिन अत्यंत राजनीतिक संदेश लिए हुए दिखेंगे। यह संदेश अन्य राज्यों में बंगालियों के साथ कथित अत्याचार और उन्हें “बांग्लादेशी” ठहराने की प्रवृत्ति के खिलाफ है। आयोजकों के अनुसार यह रुझान केवल धार्मिक उत्सव की सजावट नहीं, बल्कि बंगाली अस्मिता, सांस्कृतिक धरोहर और राजनीतिक चेतना का एक सशक्त प्रदर्शन है।
हम आपको बता दें कि कई पंडाल समितियों ने बंगाली भाषी भारतीयों के योगदान, उनकी ऐतिहासिक भूमिका और सांस्कृतिक गौरव को रेखांकित करते हुए थीमें तय की हैं। अमी बंगला बोल्छि (मैं बांग्ला में बोल रहा हूँ) जैसी थीमें सीधे भाषाई पहचान से जुड़ती हैं। इसके अलावा, विभाजन के शरणार्थी, भाषा के आधार पर निर्वासन और बंगाल का प्राचीन इतिहास जैसी अवधारणाएँ न केवल लोकस्मृति को जाग्रत करती हैं, बल्कि वर्तमान विवादों को ऐतिहासिक संदर्भ भी देती हैं। साथ ही रवींद्रनाथ टैगोर, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, राजा राममोहन राय और फिल्मकार ऋत्विक घटक जैसे प्रतीकों के माध्यम से यह संदेश दिया जा रहा है कि बंगाल की सांस्कृतिक पहचान भारत की सामूहिक विरासत का हिस्सा है।
हम आपको बता दें कि असम में कथित NRC, “घुसपैठ” पर बहस और विभिन्न राज्यों में प्रवासी मजदूरों के साथ हुए टकरावों ने भाषा-आधारित पहचान के प्रश्न को संवेदनशील बना दिया है। दुर्गापूजा जैसे विश्व स्तर पर मान्यता प्राप्त उत्सव में इस मुद्दे को शामिल करना स्पष्टतः राजनीतिक संकेत देता है। टीएमसी लंबे समय से बंगाली अस्मिता और “बाहरी बनाम बंगाली” विमर्श पर राजनीति करती रही है। ऐसे में इस प्रकार की थीम्स उसके नैरेटिव को बल दे सकती हैं।
दूसरी ओर, भाजपा ने राज्य में “राष्ट्रीय एकीकरण” और “घुसपैठ विरोधी” नीति को प्रचारित किया है, पर इन थीमों के चलते उसे यह आरोप झेलना पड़ सकता है कि वह बंगालियों के साथ भेदभाव की अनदेखी कर रही है। वहीं विपक्षी वामदल और कांग्रेस इसे “संस्कृतिकरण बनाम राजनीतिकरण” के रूप में पेश कर रहे हैं। हम आपको यह भी बता दें कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा है कि देश के कुछ अन्य स्थानों पर, राज्य के लोगों को यह साबित करने के लिए सबूत देने पड़ते हैं कि वे भारतीय हैं, और बांग्ला भाषा बोलने पर उन्हें ‘विदेशी’ करार दिया जा रहा है। पश्चिम बंगाल में सत्तारुढ़ तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ने कहा कि अगर कोई अवैध प्रवासी है तो केंद्र सरकार कार्रवाई कर सकती है और राज्य को इस पर कुछ नहीं कहना है। मुख्यमंत्री ने पूछा, ‘‘लेकिन आप भारतीय नागरिकों को बांग्लादेश क्यों भेजेंगे।’’ उन्होंने कहा कि राज्य के प्रवासी बांग्लाभाषी श्रमिकों को उनकी नागरिकता को लेकर परेशान किया जा रहा है और दावा किया कि उनमें से कुछ को उचित भारतीय पहचान पत्र होने के बावजूद बांग्लादेश में धकेल दिया गया। उन्होंने कहा कि बंगाल के लोगों ने देश के स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी भूमिका निभाई है। उन्होंने कहा, ‘‘लेकिन अब आप कह रहे हैं कि राज्य के लोग विदेशी हैं।’’ तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ने पूछा कि उनके जैसे बहुत पहले पैदा हुए सभी लोगों के पास जन्म प्रमाण पत्र कैसे हो सकते हैं, क्योंकि कई लोग घर पर ही पैदा हुए थे या विभिन्न प्राकृतिक कारणों से उनके दस्तावेज खो गए हो सकते हैं। मुख्यमंत्री ने पूछा, ‘‘क्या कानून बनाने वालों के पास सभी उचित दस्तावेज हैं?’’ उन्होंने दावा किया कि पश्चिम बंगाल के प्रवासी मजदूरों को बांग्ला भाषा बोलने के कारण दूसरे राज्यों में अत्याचार का सामना करना पड़ रहा है।
दूसरी ओर, देखा जाये तो पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों के संदर्भ में इस तरह की थीमों का उपयोग एक सॉफ्ट पॉलिटिकल कैम्पेन की तरह काम कर सकता है। शहरी मतदाताओं के बीच यह बंगाली गौरव और पहचान के मुद्दे को भावनात्मक रूप से मजबूत करेगा। वहीं ग्रामीण इलाकों में, जहाँ प्रवासी मजदूरों की समस्याएँ सीधी अनुभूति का हिस्सा हैं, यह भाषाई असुरक्षा को राजनीतिक मुद्दा बना सकता है। यह राज्य बनाम केंद्र का विमर्श भी खड़ा कर सकता है, खासकर यदि थीमों में “अन्य राज्यों में बंगालियों पर अत्याचार” का चित्रण प्रमुख रहा।
वैसे देखा जाये तो दुर्गापूजा पंडालों में इस वर्ष जो थीमें देखने को मिलेंगी, वे सिर्फ कला या संस्कृति की अभिव्यक्ति नहीं बल्कि समकालीन राजनीतिक विमर्श का मंच भी होंगी। यह स्पष्ट है कि उत्सव के बहाने एक गहरी राजनीतिक कथा बुनी जा रही है, जो चुनावी मौसम के नज़दीक आते-आते और भी तेज़ हो सकती है। आने वाले समय में यह देखना रोचक होगा कि क्या यह सांस्कृतिक संदेश मतदाताओं को प्रभावित कर पाता है या केवल सांस्कृतिक जागरूकता तक सीमित रहता है।