By डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा | Sep 08, 2025
पूर्वजों के पुण्य स्मरण की परंपरा भले ही हमारे यहां श्राद्ध पक्ष के सोलह श्राद्धों के माध्यम से आदि काल से चली आ रही हो पर दुनिया के लगभग सभी धर्मावलंबियों और देशों में किसी ना किसी रुप में पूर्वजों के पुण्यस्मरण की परंपरा अनवरत काल से चली आ रही है। हालांकि हमारे देश के ही कुछ प्रतिक्रियावादी लोग श्राद्ध और श्राद्ध कर्म को लेकर मखौल उड़ाने में किसी तरह की कोई कमी नहीं छोड़ते पर वह यह भूल जाते हैं कि धरती के साक्षात् देवता हमारे जन्मदाता माता-पिता है। यह साफ हो जाना चाहिए कि माता-पिता के अस्तित्व को लेकर कोई किसी तरह का प्रश्न चिन्ह नहीं उठा सकता। उनके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। माता-पिता की यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है और पीढ़ी दर पीढ़ी उनके स्मरण का हमारा दायित्व हो जाता है। पितृपक्ष और मातृपक्ष दोनों ही पीढ़ियों के स्मरण और श्रद्धा या यों कहे कि श्राद्ध स्वरुप भोजन, वस्त्र, जल आदि आदि पत्र पुष्प के माध्यम से सम्मान स्वरुप स्मरण किया जाता है। श्राद्ध स्वरुप ब्राम्हणों को भोजन कराने और इसी तरह की अन्य व्यवस्थाओं के साथ जुड़ी पंच ग्रास की परंपरा को आलोचकों को ज्ञान ही नहीं होता। श्राद्ध निमित्त ब्राह्मण भोजन से पहले पंच ग्रास का विधान है। पंचग्रास के पीछे के रहस्य को समझना भी आवश्यक हो जाता है। पंचग्रास में गोग्रास, श्वान ग्रास, कोएं को ग्रास, चिंटी आदि को ग्रास और अभ्यागत ग्रास इस तरह से पंच ग्रास का विधान है। अब इसी से समझ सकते हैं कि इस पंच ग्रास में प्रकृति का कोई पक्ष शेष नहीं रह जाता है। गो ग्रास में पशुधन आ जाता है तो श्वान ग्रास में पशु, कोएं के ग्रास से पक्षिगण, चिंटी पतंगा के ग्रास से चिंटी आदि जीव और अंतिम अभ्यागत ग्रास में भिखारी आदि आ जाते हैं। ब्राह्मण भोजन को ढकोसला कह कर समझने वालों को श्राद्ध के मूल की सभी विधानों को समझना होगा। एक बात और साफ हो जानी चाहिए कि पंच ग्रास से अर्थ मात्र औपचारिकता से नहीं लिया जाना चाहिए।
हमारी शाश्वत परंपरा में प्रत्येक व्यक्ति पर तीन ऋण होते हैं और उनमें से पहला ऋण देव ऋण है तो दूसरा ऋषि ऋण और तीसरा ऋण पितृ ऋण है। प्रत्येक जन्म लेने वाले व्यक्ति को इन तीनों ऋणों से उऋण होने की शिक्षा दी जाती है तो यह उसका दायित्व भी हो जाता है। देव ऋण में सृष्टि के नियंता का स्मरण और उसके प्रति आभार प्रकट करना है। इसके लिए भजन-पूजन, स्मरण, सदाचरण आदि की बात है। जो अपने आप को नास्तिक कहते हैं और किसी शक्ति में विश्वास नहीं करते तो भी उन्हें प्रकृति पर तो विश्वास करना ही होगा। प्रकृति को विकृति से बचाना हमारी जिम्मेदारी होती है और प्रकृति व मानवमात्र के कल्याण की बात करना ही देव ऋण से उऋण होने का एक तरीका है। इसी तरह से हमको शिक्षा प्रदान करने वाले गुरु परंपरा का मान सम्मान और ज्ञान की इस परंपरा को अगली पीढ़ी तक पहुंचाना ही गुरु ऋण से उऋण होने का एक तरीका हो सकता है। जहां तक पितृ ऋण से उऋण होने का प्रश्न है तो इससे उऋण होने का भी आसान रास्ता बताया गया है और वह बच्चे होते ही पूरी होना शुरु हो जाती है और इन बच्चों की शिक्षा और संस्कारित करना और शादी विवाह आदि जिम्मेदारियों का निर्वहन तो आता ही है। यही कारण है कि पौत्र-प्रपौत्र या नाती-नातियों को देखना और पौत्र होने पर सोने की सीढ़ी चढ़ना आदि इसी और इषारा करता है कि हमारे कुल परंपरा में पूर्वजों के श्राद्ध यानी स्मरण करने वाली पीढ़ी हो गई है। कभी मृत्यु के बाद बारह दिन के संस्कारों को देखने का अवसर मिले या फिर बारहवें दिन की सपीण्डी क्रिया देखने को मिले तो कई बातें साफ हो जाती है। सपीण्डी में तीन पितृ पक्ष और तीन मातृ पक्ष के पूर्वजों के स्मरण, पूजा आदि के बाद जब सभी को एकाकार कर दिया जाता है तो उसे सपीण्डी कहा जाता है। हमारी परंपरा यहां तक ही सीमित नहीं रहती। विधान तो यहां तक है कि किसी भी यजन कार्य में पितृ पूजा अवश्य होती है और दोनों ही पक्षों की तीन-तीन पीढ़ी यहां तक कि विवाह संस्कार में भी तीन तीन पीढ़ियों का पुण्य स्मरण किया जाता है।
हमारी शाश्वत परंपरा में व महाभारत व अन्य पौराणिक ग्रन्थों में उल्लेख आता है कि महर्षि अत्रि ने सबसे पहले निमि को श्राद्ध का उपदेश दिया और महर्षि निमि ने सबसे पहले अपने पूर्वजों के निमित्त श्राद्ध कर्म किया। श्राद्ध कर्म में अग्नि को भी खास महत्व दिया गया है और यह माना जाता है कि अग्नि देव के माध्यम से श्राद्ध पूर्वजों को अर्पित किया जाता है। हमारे यहां पूर्वजों के स्मरण या श्राद्ध के खासतौर से दो अवसर होते हैं। पहला अवसर तो जिस दिन दाग तिथि यानि अंतिम संस्कार या यों कहें कि देहावसान की तिथि को प्रतिवर्ष श्राद्ध का विधान है तो दूसरा महालय श्राद्ध यानि की कन्यागत सूर्य के समय के पन्द्रह दिवस। भाद्रपद मास की पूर्णिमा से लेकर आश्विन कृष्ण पक्ष की अमावस्या के कुल सोलह दिन सोलह श्राद्ध के दिन होते हैं। स्वर्गागमन किसी भी पक्ष में हो पर कन्यागत श्राद्ध जिसे हम बोलचाल की भाषा में कनागत कहते है उन सोलह दिनों की तिथि के अनुसार श्राद्ध निकाला जाता है। जैसे पूर्णिमा को पूर्णिमा तो प्रतिपदा का प्रतिपदा को और इसी तरह से संबंधित तिथि को। यहां एक बात और अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। शास्त्राचार व लोकाचार में एक बात पर अवश्य जोर दिया गया है कि हमारे पूर्वज श्राद्ध के दिन पुत्री पक्ष की उपस्थिति से अधिक प्रसन्न होते हैं। इसमें श्राद्ध भोजन कि निमित्त या अवसर पर दोयते-दोयती, भांजें-भांजी को भोजन कराना अत्यधिक फलदायक बताया गया है। परिवार की पुत्रियों का इस अवसर पर स्वागत और भी अधिक प्रसंसनीय हो जाता है। स्वागत का अर्थ उनकी उपस्थिति से हो जाता है। पुत्रि पक्ष में बहन, बुआ, बेटियां आदि आ जाती है। अब इसे सामाजिक और वैज्ञानिक तरीके से भी समझने का प्रयास करें तो श्राद्ध कर्म परिवार के जुड़ाव और कुल-कुटुंब में प्रेमाचार-भाईचारा बढ़ाने का अवसर है। इससे हमारे पितृगण प्रसन्न होते हैं। अब इसी से समझा जा सकता है कि श्राद्ध के माध्यम से परिवार को एकजुट होने, एक दूसरे से मिलने-मिलाने और प्रेम और स्नेह को बढ़ाने का अवसर मिल जाता हैै। यह सब में इसलिए लिख रहा हूं कि श्राद्ध के विधान को लेकर तो मर्मज्ञ विस्तार से चर्चा कर ही लेते हैं। यह भी सब जानते हैं कि श्राद्ध को जहां तक संभव हो विसम संख्या में भोजन कराना चाहिए। योग्यता एक अन्य शर्त कही जा सकती है तो शुद्धता भी आवश्यक होती है। इस सबके साथ ही विधान की लंबी फेहरिस्त हो जाती है और धर्म के आलोचक उसको लेकर टीका-टिप्पणी करते ही रहते है। पर श्राद्ध कर्म से दो बातें साफ हो जानी चाहिए कि यह केवल और केवल हमारे यहां ही होता हो तो ऐसा है नहीं चीन में छिंग-मिंग, जापान में ओबोन, फ्रांस में ला टेसेंट, योरापीय देषों में आल सेंट्स डे, बौद्धों में घोस्ट फेस्टिवल आदि पूर्वजों के स्मरण और पूजन आदि के अवसर है।
इसलिए यह साफ हो जाना चाहिए कि श्राद्ध, श्राद्ध पक्ष और श्राद्ध कर्म के पीछे हमारे पूर्वजों की गहन सोच है। यह मात्र औपचारिकता या ब्राह्मण भोजन तक सीमित नहीं है तो भोजन कराने से पूर्वजों तक भोजन पहुंचने को लेकर मजाक उड़ाने वालों को बहुत कुछ समझने और उसके मूल को समझना होगा। यदि यह ढ़कोसला होता तो चीन में छिंग-मिंग, जापान में ओबोन, बौद्ध देशों में घूस्ट फेस्टिवल या योरोपीय देशों में टेसेंट या आल सेंट्स डे आदि नहीं होते। इन सबसे भी इतर हमें हमारे जन्मदाताओं के प्रति कृतज्ञता तो व्यक्त करना हमारा दायित्व हो जाता है और यही तो हम श्राद्ध कर्म के माध्यम से करते हैं। बस श्राद्ध में श्रृद्धा का जो महत्व है उसकी पालना हमें करनी ही होगी।
- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा