By नीरज कुमार दुबे | Sep 26, 2025
अमेरिका और पाकिस्तान के संबंधों में हाल के दिनों में जो तेजी आई है, वह केवल कूटनीतिक नहीं बल्कि गहरे सामरिक कारणों से जुड़ी है। शिकागो विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर पॉल पोस्ट (Paul Poast) ने इस पर कई अहम खुलासे किए हैं। उनके अनुसार, वाशिंगटन की प्राथमिकता अब पाकिस्तान को एक "कूटनीतिक साझेदार" के रूप में देखने की नहीं है, बल्कि एक ऐसे "लॉजिस्टिकल एनाब्लर" की तरह है जो अमेरिकी सैन्य शक्ति को चीन और ईरान के निकट पहुँचाने में सहायक हो।
प्रोफेसर पोस्ट बताते हैं कि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के प्रशासन ने विदेश नीति को सैन्य दृष्टिकोण से परिभाषित कर दिया है। हाल ही में डिपार्टमेंट ऑफ डिफेंस का नाम बदलकर डिपार्टमेंट ऑफ वॉर रखना इसी मानसिकता का प्रतीक है। यह संदेश स्पष्ट है कि अमेरिकी शासन के लिए युद्ध और सैन्य शक्ति अब सिर्फ एक साधन नहीं, बल्कि नीतिगत ढांचे का केंद्र बन गए हैं। इस सोच का सीधा असर पाकिस्तान पर पड़ रहा है। पॉल पोस्ट के अनुसार, पाकिस्तान का भौगोलिक स्थान अमेरिका को "गेटवे" उपलब्ध कराता है—एक ऐसा मार्ग जिससे अमेरिकी संसाधन सीधे चीन और ईरान की दहलीज पर पहुँच सकते हैं।
देखा जाये तो ट्रंप प्रशासन की रणनीति में पाकिस्तान की अहमियत अब केवल आतंकवाद विरोधी सहयोग तक सीमित नहीं है। प्रोफेसर पोस्ट कहते हैं कि "अगर अमेरिका की मौजूदगी पाकिस्तान में है, तो वह चीन और ईरान के नजदीक हो जाता है।" इसी दृष्टि से पाकिस्तान को फिर से अमेरिकी सामरिक ढांचे में जगह दी जा रही है। यहाँ यह भी ध्यान रखने की बात है कि वाशिंगटन बगराम एयरबेस (अफगानिस्तान) को फिर से सक्रिय करने की मांग कर रहा है। इसका मकसद सिर्फ अफगानिस्तान में पैर जमाना नहीं, बल्कि चीन की पश्चिमी सीमा और ईरान की सामरिक स्थापनाओं पर निगाह रखना है।
पॉल पोस्ट ने अपने तर्क को और ठोस बनाने के लिए ऑपरेशन मिडनाइट हैमर का हवाला दिया। 22 जून को अमेरिका ने ईरान के फोर्दो, नतान्ज़ और इस्फ़हान स्थित परमाणु ठिकानों पर हमले किए। यह अभियान सफल इसलिए हो सका क्योंकि अमेरिका के पास क्षेत्रीय देशों में सैन्य अड्डे और तैनाती पहले से मौजूद थी। पोस्ट का कहना है कि पाकिस्तान की ओर बढ़ती अमेरिकी रुचि भी इसी तर्क से संचालित है— निकटता और पहुंच।
दिलचस्प यह है कि जब राष्ट्रपति ट्रंप ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ और पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल आसिम मुनीर से व्हाइट हाउस में मुलाकात की, तो उसका कोई आधिकारिक विवरण या तस्वीरें अमेरिकी पक्ष से जारी नहीं की गईं। जबकि उसी दिन तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगान से मुलाकात के बाद संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस का आयोजन हुआ। पाकिस्तान से मुलाकात की खबर केवल इस्लामाबाद के आधिकारिक सोशल मीडिया अकाउंट्स पर साझा की गई। यह तथ्य बताता है कि अमेरिका इस साझेदारी को अभी "खुले कूटनीतिक मंच" पर लाने से हिचक रहा है।
देखा जाये तो पॉल पोस्ट के विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि अमेरिका-पाकिस्तान समीकरण का मौजूदा दौर पूरी तरह सामरिक है, कूटनीति की परतें केवल औपचारिक हैं। पाकिस्तान की भौगोलिक स्थिति अमेरिका के लिए अनिवार्य है, विशेषकर तब जब वाशिंगटन का ध्यान चीन और ईरान की गतिविधियों पर है।
बहरहाल, भारत के लिए यह संकेतक है कि आने वाले वर्षों में दक्षिण एशिया की भू-राजनीति और जटिल होगी। पाकिस्तान को लेकर अमेरिकी झुकाव सीमित रूप से "मदद" के रूप में न होकर सीधे सैन्य प्राथमिकताओं का हिस्सा है। ऐसे में नई दिल्ली को न केवल वाशिंगटन की रणनीति को बारीकी से पढ़ना होगा बल्कि बीजिंग और इस्लामाबाद के बदलते समीकरणों पर भी लगातार नजर रखनी होगी।