चश्मा बदल कर देखें- देश में सिर्फ समस्याएं ही नहीं हैं

By नीरज कुमार दुबे | Jan 23, 2018

भारत को अब विश्व में पहले की अपेक्षा ज्यादा सम्मान के साथ देखा जाता है, उसकी बात अंतरराष्ट्रीय मंचों पर महत्व रखती है और उसके सुझाव पर गौर किया जाता है। इस बेहद खुशी के अवसर पर देश के घरेलू मोर्चे पर कई सवाल मन में कौंधते हैं जैसे− क्या हमारे नेतागण देश को प्रगति पथ पर सही तरह से ले जा रहे हैं? क्या देश के नागरिक भी अपनी कर्तव्य परायणता को पूरी तरह निभा रहे हैं? और क्या यही हमारे शहीदों के सपनों का भारत है?

देश के घरेलू परिदृश्य पर गौर करें तो देखेंगे कि देश का अन्नदाता किसान बेहद खस्ता हालत में है और महंगाई चरम पर होने से जनता बेहाल है। दूसरी ओर सरकार के अथक प्रयासों के बावजूद हर विभाग में भ्रष्टाचार कायम है।

 

इसके अलावा आजादी से पहले जो जातिगत भावनाएं समाज में व्याप्त थीं और जिनको सुधारने के लिए राजा राममोहन राय जैसी हस्तियों ने दिन−रात एक किया उसे हमारे राजनेताओं ने अपने वोट बैंक के स्वार्थों के चलते मंडल और कमंडल के द्वारा बांट दिया। जातिगत राजनीति करने के चक्कर में इन पार्टियों ने लोगों को कई वर्गों में विभाजित किया। यहां तक कि हर वर्ग को कई खंडों में विभाजित कर दिया। सत्ता तक पहुंचने के लिए कुछ पार्टियों ने नौकरियों में आरक्षण दिया। लेकिन इस आरक्षण पद्धति के चलते वह लोग जो सचमुच उक्त पद के हकदार थे, उसे हासिल नहीं कर सके।

 

आतंकवाद बड़ी समस्याओं में से एक है। इस मुद्दे पर हम भले ही अन्य देशों के साथ घोषणापत्र जारी करते हुए आतंकवाद के खिलाफ एकजुट होकर मुकाबला करने की बात करते हों परन्तु इस अभियान में घरेलू स्तर पर ही हममें एकता नहीं है। कोई एक दल कुछ करता है तो दूसरा उस पर राजनीति करने लगता है। सिमी पर प्रतिबंध लगता है तो बजरंग दल पर भी प्रतिबंध की मांग होती है। संसद हमले के दोषी अफजल की फांसी को लेकर राजनीति होती है। हमें याद रखना चाहिए कि 11 सितंबर को जब अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला हुआ था तो अमेरिकी जनता सहित विपक्षी पार्टी भी कदम से कदम मिलाकर सरकार के साथ चल रही थी लेकिन हमारे यहां राजनीतिक दल अपने फायदे के लिए किसी भी समय को गंवाना नहीं चाहते फिर चाहे वह समय देश पर संकट का ही क्यों न हो। 

 

राष्ट्रीयता की जगह क्षेत्रीयता के बोलबाले को देखते हुए हमें रूस का उदाहरण स्मरण करना चाहिए जो कि कभी विश्व का सबसे संगठित और शक्तिशाली देश था लेकिन कमजोर नेतृत्व और क्षेत्रीयता के बढ़ाव के कारण वह टुकड़े−टुकड़े होकर कई देशों में बंट गया और उससे जितने भी देश बने वह आज भी कमजोर नेतृत्व में पश्चिमी देशों की कृपा पर जी रहे हैं।

 

इसके अलावा, देश में राज्यों और केन्द्र में अलग−अलग विचारों की सरकार होने से देश के विकास में बाधा आ रही है, क्योंकि विभिन्न विचारों की सरकार होने के कारण कोई एक सोच निर्धारित नहीं हो पा रही है। 

 

देश की आधी आबादी यानि महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण की बात करते हुए देश के नेताओं को एक दशक से ज्यादा हो गया लेकिन अभी भी यह तय नहीं है कि यह वादा कब पूरा होगा। हालांकि वर्तमान सरकार ने इसे अपने चुनावी वादों में शामिल किया है लेकिन इस पर विभिन्न दलों में जिस प्रकार मत भिन्नता है उसे देखते हुए यह शीघ्र अमल में आता प्रतीत नहीं होता। बहरहाल, ऐसा नहीं है कि देश में सिर्फ समस्याएं ही समस्याएं हैं, देश ने कम समय में बड़ी तरक्की की है। परमाणु ताकत, भारत की विकसित होती स्थिति, विश्व की बड़ी ताकतों के लिए चिंता का सबब बनी हुई है। समस्याएं जरूर हैं लेकिन देश इनका समाधान निकाल ही लेगा, भारत पर हमें गर्व है।

 

− नीरज कुमार दुबे

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