2006 Mumbai Train Blasts: 180 लोगों की मौत मामले में 18 साल बाद आये अदालती फैसले ने क्या संदेश और सबक दिये हैं?

By नीरज कुमार दुबे | Jul 21, 2025

बंबई उच्च न्यायालय ने 11 जुलाई 2006 को हुए मुंबई ट्रेन विस्फोट मामले में 12 लोगों की दोषसिद्धि को रद्द करते हुए उन्हें बरी कर दिया और कहा कि अभियोजन पक्ष उनके खिलाफ मामला साबित करने में पूरी तरह विफल रहा है। हम आपको बता दें कि यह फैसला मुंबई के पश्चिमी रेलवे नेटवर्क को हिला देने वाले आतंकवादी हमले के 19 साल बाद आया है। पश्चिमी लाइन पर विभिन्न स्थानों पर मुंबई की लोकल ट्रेन में 11 जुलाई, 2006 को सात विस्फोट हुए थे जिनमें 180 से अधिक लोग मारे गए थे और कई अन्य लोग घायल हुए थे। बम धमाके मुंबई के भीड़-भाड़ वाले इलाकों— बांद्रा, माहिम, मीरा रोड, भायंदर, जोगेश्वरी, बोरीवली और अन्य स्थानों पर ट्रेन के डिब्बों में हुए थे।


इस हमले में 180 से अधिक लोगों की जान चली गई थी और कई अन्य लोग घायल हुए थे। न्यायमूर्ति अनिल किलोर और न्यायमूर्ति श्याम चांडक की विशेष पीठ ने कहा कि अभियोजन पक्ष द्वारा पेश किए गए साक्ष्यों के आधार पर आरोपियों को दोषी ठहराने का निर्णय नहीं लिया जा सकता। अदालत ने कहा, ‘‘अभियोजन पक्ष आरोपियों के खिलाफ मामला साबित करने में पूरी तरह विफल रहा है। यह विश्वास करना कठिन है कि आरोपियों ने यह अपराध किया है इसलिए उनकी दोषसिद्धि रद्द की जाती है।’’

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पीठ ने कहा कि वह पांच लोगों को मृत्युदंड और शेष सात को सुनाई गई आजीवन कारावास की सजा की पुष्टि करने से इंकार करती है और उन्हें बरी करती है। अदालत ने कहा कि अगर आरोपी किसी अन्य मामले में वांछित नहीं हैं तो उन्हें जेल से तुरंत रिहा कर दिया जाए। हम आपको याद दिला दें कि इस मामले में 2015 में एक विशेष अदालत ने 12 लोगों को दोषी ठहराया था, जिनमें से पांच को मृत्युदंड और शेष सात को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी।


अदालत का यह फैसला भारतीय आपराधिक न्याय व्यवस्था और आतंकवाद से जुड़े मुकदमों में सबक के तौर पर भी देखा जा रहा है। यह मामला न केवल मुंबई के इतिहास के सबसे बड़े आतंकी हमलों में शामिल रहा, बल्कि 18 वर्षों तक चली कानूनी लड़ाई के बाद जिस निष्कर्ष पर पहुँचा, उसने अभियोजन और पुलिस की जांच पर भी गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।


हाईकोर्ट के निर्णय में जो तर्क दिये गये हैं वो गौर करने लायक हैं। अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष यह साबित करने में असफल रहा कि विस्फोट में किस प्रकार के विस्फोटक का प्रयोग हुआ था। इसके अलावा, आरोपियों के कबूलनामे यातना और दबाव के ज़रिए लिए गए थे, इसलिए उन्हें कोर्ट ने कानूनी रूप से अस्वीकार कर दिया। साथ ही अदालत ने माना कि आरोपियों की पहचान परेड वैध नहीं थी, न ही उसकी प्रक्रिया उचित थी। इसके अलावा, गवाहों के बयान कोर्ट के मानकों पर खरे नहीं उतरे। साथ ही अदालत ने माना कि आरोपियों के साथ उचित प्रक्रिया नहीं अपनाई गई थी।


हम आपको याद दिला दें कि विशेष मकोका अदालत ने 2015 में जिन पाँच आरोपियों को फांसी दी थी, वे थे- कमाल अंसारी (बिहार, जेल में कोविड से मृत्यु), मोहम्मद फैसल शेख (मुंबई), एहतेशाम सिद्दीकी (ठाणे), नावेद हुसैन खान (सिकंदराबाद) और आसिफ खान (जलगांव)। इसके अलावा अन्य को उम्रकैद दी गई थी।


अभियोजन और बचाव पक्ष की दलीलों पर गौर करें तो आपको बता दें कि अभियोजन पक्ष (राजा ठाकरे, विशेष लोक अभियोजक) का दावा था कि ये आरोपी 'मौत के सौदागर' हैं और उनके खिलाफ कबूलनामों और परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर सजा बिल्कुल उचित थी। उन्होंने कहा कि विस्फोट पाकिस्तानी और स्थानीय आतंकियों के सहयोग से किए गए थे। वहीं बचाव पक्ष (युग चौधरी, नित्या रामकृष्णन, एस. नागमुथु सहित वरिष्ठ अधिवक्ता) ने जोर देकर कहा कि आरोपियों के कबूलनामे अमान्य, यातना से प्राप्त, झूठे और कानून की प्रक्रिया के विरुद्ध थे। आरोप लगाया गया कि ATS ने झूठे सबूत गढ़े और निर्दोष लोगों को फंसाया। कई आरोपियों ने अदालत में खुद कहा कि वे इन धमाकों से अनजान थे और 18-19 साल जेल में बेवजह सजा भुगती।


इसके बाद हाईकोर्ट की विशेष टिप्पणी आई कि "सिर्फ कबूलनामे के आधार पर किसी को फांसी नहीं दी जा सकती, जब बाकी साक्ष्य अनुपलब्ध या कमजोर हों।" अदालत ने यह माना कि पुलिस द्वारा की गई पूछताछ और सबूत जुटाने की प्रक्रिया भरोसेमंद नहीं रही।


देखा जाये तो यह फैसला भारत में आतंकवाद से जुड़े मामलों में न्यायिक समीक्षा के महत्व को रेखांकित करता है। जब कोई मामला भावनाओं या जनदबाव में नहीं, बल्कि सबूतों के आधार पर तय होता है तो न्यायपालिका की साख और विश्वसनीयता बढ़ती है। इसलिए बचाव पक्ष के वकीलों ने कहा कि यह फैसला न्यायपालिका पर जनता का विश्वास मजबूत करेगा। वहीं अभियोजन ने भी अदालत की प्रक्रिया और सुनवाई को सराहा।


बहरहाल, 7/11 धमाकों जैसे संवेदनशील मामलों में आये निर्णय ने दो संदेश दिये— आतंकवाद के नाम पर बिना पुख्ता सबूत किसी को फांसी या उम्रकैद नहीं दी जा सकती। तथा न्यायपालिका हर परिस्थिति में कानून के मुताबिक काम करेगी, चाहे मामला कितना ही संवेदनशील क्यों न हो।


इस प्रकरण के प्रमुख सबक को देखें तो साफ होता है कि सबूतों की गुणवत्ता सर्वोपरि है। यातना से लिया गया कबूलनामा कानूनन अस्वीकार्य है। मीडिया ट्रायल और जनदबाव का असर न्यायिक फैसलों पर नहीं पड़ना चाहिए और 18 साल के लंबे कारावास के बाद भी न्याय हो सकता है, भले देर से ही सही। हम आपको यह भी बता दें कि राज्य भर की विभिन्न जेल से वीडियो कॉन्फ्रेंस के माध्यम से अदालत में पेश किए गए आरोपियों ने उच्च न्यायालय के फैसला सुनाने के बाद अपने वकीलों को धन्यवाद दिया।

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