By नीरज कुमार दुबे | Dec 06, 2025
पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद ज़िले में आज निलंबित टीएमसी विधायक हुमायूं कबीर ने बेलडांगा में प्रस्तावित बाबरी मस्जिद-शैली की मस्जिद का शिलान्यास किया। इस कार्यक्रम को लेकर जिले में अभूतपूर्व सुरक्षा बंदोबस्त किए गए थे क्योंकि भारी भीड़ उमड़ने की आशंका थी। साथ ही प्रशासन का प्राथमिक लक्ष्य राष्ट्रीय राजमार्ग-12 पर यातायात सुचारु रखना था।
आयोजकों के मुताबिक दो क़ाज़ी सऊदी अरब से विशेष काफ़िले में शामिल हुए और करीब 3 लाख लोगों की संभावित भीड़ के मद्देनज़र 3,000 से अधिक स्वयंसेवकों तथा लगभग 3,000 पुलिसकर्मियों की तैनाती की गई थी। बताया जा रहा है कि कार्यक्रम के लिए विशाल मंच, भोजन, लॉजिस्टिक और सुरक्षा समेत कुल खर्च 60–70 लाख रुपये तक आया है।
हम आपको बता दें कि हुमायूं कबीर, जिन्हें हाल ही में पार्टी के लिए बार-बार शर्मिंदगी पैदा करने के आरोप में टीएमसी से निलंबित किया गया था, इस कार्यक्रम के माध्यम से एक राजनीतिक ताक़त का प्रदर्शन करते दिखाई दिए। उन्होंने कहा कि बेलडांगा में केवल मस्जिद ही नहीं, बल्कि अस्पताल, शैक्षणिक संस्थान और सभी समुदायों के लिए गेस्ट हाउस भी बनाया जाएगा।
देखा जाये तो मुर्शिदाबाद में बाबरी मस्जिद-शैली की मस्जिद का शिलान्यास अपने आप में केवल धार्मिक कार्यक्रम नहीं है; यह एक राजनीतिक संदेश भी बनकर उभर रहा है। हुमायूं कबीर जिस तरह भीड़, बाहरी धार्मिक नेताओं, विशाल व्यय और टकरावभरी भाषा का उपयोग कर रहे हैं, वह स्पष्ट रूप से आग से खेलने जैसा है। सांप्रदायिक विभाजन की ज़मीन पर लोकप्रियता की इमारत खड़ी करने की कोशिशें भारत जैसे विविधतापूर्ण देश के लिए अत्यंत खतरनाक हैं।
साथ ही, यह सवाल भी उठता है कि आखिर हम किन प्रतीकों को आगे बढ़ा रहे हैं। जब किसी मस्जिद को बाबरी मस्जिद-शैली या बाबर के नाम पर स्थापित करने की बात होती है, तो यह केवल स्थापत्य शैली का मामला नहीं रह जाता, यह इतिहास के उन पन्नों को कुरेदने का प्रयास बन जाता है जो आज भी समाज में संवेदनशीलता रखते हैं। बाबर, जो एक मध्यकालीन आक्रांता था और जिसकी सेना द्वारा मंदिरों के विध्वंस के उल्लेख इतिहास में दर्ज हैं, उसके नाम पर मस्जिद निर्माण की ज़िद करना क्या हिंदुओं को यह संदेश देने का प्रयास नहीं है कि हम उस ऐतिहासिक पीड़ा के प्रतीक का महिमामंडन करेंगे? किसी भी धर्म के लिए पूजा स्थल बनाना उसका अधिकार है, लेकिन क्या वह अधिकार इस रूप में इस्तेमाल होना चाहिए कि वह सामाजिक समरसता को पीछे धकेल दे?
ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि स्वयं अयोध्या में नई मस्जिद परियोजना, जहाँ कानूनन तय स्थान पर शांतिपूर्वक निर्माण होना है, वह वर्षों से धीमी गति और न्यूनतम दानराशि के चलते संघर्ष कर रही है। इससे यह प्रश्न और तीखा हो जाता है कि वास्तविक उद्देश्य क्या है? हम आपको बता दें कि इंडो-इस्लामिक कल्चरल फ़ाउंडेशन (IICF) के अध्यक्ष ज़फ़र फ़ारूकी ने स्वीकार किया है कि अयोध्या में मस्जिद निर्माण के लिए अनुमानित 65 करोड़ रुपये की तुलना में अभी तक केवल तीन करोड़ रुपये के आसपास ही धनसंग्रह हुआ है। यदि हुमायूं कबीर को मस्जिद की इतनी ही चिंता है तो उन्हें सुप्रीम कोर्ट के आदेश से बनवाई जा रही मस्जिद के लिए आगे आना चाहिए था ना कि अपनी राजनीति चमकाने और सांप्रदायिक विभाजन पैदा करने का प्रयास करना चाहिए था।
देखा जाये तो भारत में किसी भी समुदाय का गर्व इतिहास के संघर्षों को दोहराने में नहीं, बल्कि नए भविष्य का निर्माण करने में है। चाहे मंदिर हो या मस्जिद, अगर उनका नाम, आकार, भाषा या आयोजन समाज को विभाजित करता है, तो हमें यह सोचने की जरूरत है कि आखिर हम किस दिशा में जा रहे हैं। धर्म का सम्मान करें, इतिहास से सीखें, पर राजनैतिक लाभ के लिए भावनाओं की आग पर घी न डालें। यही संदेश आज सबसे अधिक प्रासंगिक है।