महिला दिवस मनाने से क्या होगा? जरा महिलाओं की स्थिति पर नजर डालिये

By अनुराग गुप्ता | Mar 08, 2018

दिन, त्यौहार या फिर अवसर इस दौरान अकसर उन लोगों की बातें होती हैं जो इससे ताल्लुक रखते हैं। फिर जैसे ही ये निकलने लगते हैं इसी के साथ हम उन लोगों को भी भूलने लगते हैं। आज 8 मार्च है तो अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की हर जगह चर्चा है। दरअसल, इस दिन को पहली बार 1909 में मनाया गया था। हालांकि संयुक्त राष्ट्र में इसे 1975 से मनाया जा रहा है।

इस दिन को महिलाओं के आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक उपलब्धियों में मिली सफलता के उत्सव के तौर पर मनाया जाता है। हालांकि इससे महिलाओं का हौसला भी बुलंद होता है और महिलाएं दूसरी महिलाओं को देखकर आत्मनिर्भर भी बनती जा रही हैं।

 

लेकिन, इस बार मैं यह दिवस नहीं मनाने वाला...मेरी अंतर्चेतना इस दिन को इस बार मनाने की इजाजत नहीं दे रही है। दरअसल, बात यह है कि मैंने हाल ही में आई UN WOMEN की रिपोर्ट पढ़ी जिसके बाद मेरा मन आहत हो गया। Turning Promises Into Action: Gender Equality In 2030 Agenda...

 

इस रिपोर्ट में यह बताया गया कि देश में जो दलित तबका है उनके हालात तो किसी से छिपे नहीं हैं लेकिन इन्हीं में अगर हम बात दलित महिलाओं की करें तो हालात पहले से कई ज्यादा बदत्तर दिखाई देते हैं। रिपोर्ट के मुताबिक दलित महिलाओं की उम्र आम महिलाओं की तुलना में 14.6 साल कम होती है। जिसका मतलब है कि इन महिलाओं का जीवन आम महिलाओं के मुकाबले काफी कम होता है।

 

यह स्थिति आखिर ऐसी क्यों है। इस पर जब हमने गौर किया तो सामने आया कि इन महिलाओं के जीवन यापन का तरीका आम महिलाओं की तुलना में काफी खराब है। मतलब कि अगर ये महिलाएं बीमार हो जाएं तो इन्हें अस्पताल भी नसीब नहीं होते हैं। ऐसे में वह बड़ी बीमारियों का भी शिकार हो जाती हैं। स्वास्थ्य व्यवस्था में तो गरीब और दलित महिलाओं का स्तर काफी नीचे है।

 

दलित महिलाओं के हाल इतने नाजुक हैं जिसका पता हमें नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों में साफ दिखाई देता है। इन आंकड़ों के मुताबिक पिछले एक साल में घरेलू हिंसा से जुड़े जो मामले दर्ज हुए उसमें दलित महिलाओं की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा रही। यानी की 24.6 फीसदी...

 

महिला दिवस के इस अवसर पर अगर हम महिलाओं को अलग-अलग वर्गों में बांटे तो दिखाई देगा कि महिलाओं के हक की बातें करने वाले लोग उनके प्रति कितने जागरुक हैं। हालांकि, महिलाओं की भागीदारी हर वर्ग में बढ़ी है। लेकिन, हम जाति व्यवस्था के आधार पर बात करें तो दलित महिलाओं का तबका सामाजिक रूप से कहीं ज्यादा वंचित है। आम महिलाओं के मुकाबले दलित महिलाओं की स्थिति ज्यादा भयाभय है। इन महिलाओं के घर से बाहर निकलने पर रोक होती है। यह किसी से बात नहीं कर सकतीं। इनके पढ़ने-लिखने पर भी रोक होती है।

 

शिक्षा स्तर के आंकड़ों की बात करें तो हमारे देश में पुरूषों की साक्षरता दर 85 फीसदी है, जबकि महिलाओं की महज 65 फीसदी। जिनमें सबसे ज्यादा भागीदारी आम महिलाओं की है। अगर सिर्फ दलित महिलाओं की बात करें तो उनकी साक्षरता दर 8 फीसदी और भी कम है। इस रिपोर्ट में मुझे सबसे ज्यादा इस बात ने चौंकाया कि महिलाओं की शिक्षा और सामाजिक व्यवस्था उनकी हैसियत तय करती है कि महिला को कार्यस्थल में कितना शोषण सहना पड़ेगा। यानी कि जिनकी हैसियत ना के बराबर है तो उनका शोषण तो होकर ही रहेगा और हमारे समाज में इस सोच को बदलने का प्रयास भी नहीं किया जा रहा।

 

हालांकि, कई सारी गैरसरकारी संगठन दलित महिलाओं की स्थिति को सुधारने और उन्हें जागरुक करने को लेकर अभियान चला रहे हैं। ऐसे में महिलाओं का विकास देश की आवाम की तुलना में काफी धीरे हो रहा है। जरूरत है यूएन वोमेन की रिपोर्ट पर गौर करने की और महिलाओं के स्तर को सुधारने की। क्योंकि विकास की शुरूआत यहीं से होगी, जब महिलाएं देश के प्रति अपनी जिम्मेदारियों पर खरी उतरेंगी।

 

- अनुराग गुप्ता

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