Gyan Ganga:जब बालि से प्रभु ने कहा, तुमने अपराध नहीं महाअपराध किया है

By सुखी भारती | Apr 27, 2021

प्रभु वैसे तो किसी के प्रति कोई रुष्टता नहीं रखते लेकिन बालि का अपराध ही ऐसा था कि प्रभु क्रोधित हुये बिना रह ही न सके। प्रभु ने कहा कि हे बालि! पहले तो तू अपनी यह व्यर्थ की रागिनी अलापना बंद कर कि मैं तुम्हें, तुम्हारा अपराध तो बता देता। वास्तव में तुम्हारा अपराध कोई साधारण अपराध नहीं अपितु महाअपराध है-


अनुज बंधु भगिनी सुत नारी।

सुनु सठ कन्या सम एह चारी।।

इन्हहि कुदष्टि बिलोकइ जोई।

ताहि बधें कछु पाप न होई ।।


क्या तुम्हें इतना भी नहीं पता था कि सुग्रीव की पत्नी के साथ तुम्हें क्या व्यवहार करना चाहिए था। मान लिया  कि सुग्रीव के प्रति तुम्हारे मन में रोष था, लेकिन सुग्रीव को भगाने के पश्चात् उसकी पत्नी के साथ तुम्हारा व्यवहार पिता समान संरक्षक का होना चाहिए था। क्योंकि छाटे भाई की पत्नी, अपनी छोटी बहन, पुत्र की स्त्री व कन्या इन चारों को समान दृष्टि से देखना चाहिए। अर्थात इन्हें कन्या के रूप में ही देखना चाहिए। अगर कोई इस पावन मर्यादा की अवहेलना करता हो, उन्हें कुदृष्टि से देखता है, उसे मारने में किचिंत भी पाप नहीं है। और बालि तुमने सुग्रीव की निर्दोष व अबला पत्नी के साथ पिता सा व्यवहार न करके पति का व्यवहार किया, यही तुम्हारी सबसे कमजोर व दंडनीय कड़ी है। सुग्रीव का तो कोई दोष भी नहीं था। वह बेचारा क्या करता, तुमने जब डींग हांक ही दी थी कि इस मायावी राक्षस को मारकर एक पखवाड़े में अगर तुम नहीं लौटे तो हे भाई सुग्रीव! तुम मुझे मरा समझ लेना। क्या तुम एक पखवाड़े के पश्चात् गुफा से बाहर निकले? नहीं न! जब तुम्हारे संकल्प की अवधि तय समय पर परिणाम नहीं दे पाई, वास्तव में मर तो तुम्हें उसी क्षण चाहिए था। लेकिन तुम थे कि पूरे दो पखवाड़े उस राक्षस से लड़े। और उसे मार डाला। शर्म होती तो एक पखवाड़ा जैसे ही गुजरा, तो तुम्हें पराजय स्वयं ही स्वीकार लेनी चाहिए थी। क्योंकि जिस राजा का बल अपने वचनों को सार्थक करने के काम न आए, वह राज सिंघासन जैसे संवैधानिक पद पर बैठने योग्य रहता ही कहाँ है? 

 

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सर्वस्व त्याग कर या तो तुम मृत्यु का वर्ण करते या फिर वनों में सन्यासी जीवन व्यतीत करते। पर वह तो तुम्हें करना नहीं था, क्योंकि दोनों ही अवस्थाओं में विषयों का त्याग जो हो रहा था। जो कि तुम्हारे वश की बात ही नहीं थी। तुम्हें तो अपनी तथाकथित जीत का जश्न भी मनाना था। और मद में चूर हो, सर्प की तरह फुंफकारते हुए तुम तो बढ़ चले अपने महलों की ओर। और भाई को राज सिंघासन पर बैठे देख यूं आग बबूला हुए कि सीधे सुग्रीव को मारने ही दौड़ पड़े। कम से कम भाई की अवस्था को तो समझने की चेष्टा की होती। पूछा होता कि सुग्रीव राज सिंघासन पर बैठने का निर्णय इतनी शीघ्रता में क्यों ले लिया? तुम्हें थोड़ा विचार करना चाहिए था, कि सुग्रीव को अगर तुम्हारे राज सिंघासन की इतनी लालसा होती, तो वह एक पखवाड़े से एक क्षण भी अधिक तुम्हारे इंतजार में न रुकता। यद्यपि सुग्रीव तो पूरे दो पखवाड़े तक गुफा के बाहर तुम्हारा इंतजार करता रहा। अर्थात तुम्हारी दी हुई समय अवधि से सीधे-सीधे दोगुना। इसका अर्थ वह अपनी भावना पर एकनिष्ठ व एकमत था, कि तुम किसी भी क्षण विजयी होकर बाहर आने वाले हो। और इसी आस में उसने एक-एक पल में एक-एक युग सा जीआ। बार-बार अपने मन को समझाया कि नहीं भईया बालि की दी समयावधि भले ही बीत गई, लेकिन तब भी भईया शत प्रतिशत सकुशल लौटेंगे। एक बार भी अपने मन में नहीं आने दिया कि बालि का एक पखवाड़े के इंतजार का  प्रण अगर टूट गया, तो हो सकता है उसके प्राण ही टूट गए हाें। उसे तो तुम पर भगवान ही तरह भरोसा था। लेकिन दो पखवाड़े बीतने पर भी जब तुम्हारी जगह गुफा से रक्तधारा बहती बाहर निकली तो सुग्रीव डर गया और उसे लगा कि अवश्य ही तुम मारे गए हो। और जो बालि को मार सके, वह भला मुझे क्यों नहीं मार सकता। यही सोचकर सुग्रीव ने गुफा के द्वार पर बड़ी सी सिला लगा दी, ताकि राक्षस बाहर न निकलने पाए। 

 

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लेकिन बालि तुम तो अहंकार के र्स्वोच्च स्वामी हो। तुम्हें भला सुग्रीव की कोई बात क्यों सुननी थी? यद्यपि सुग्रीव बार-बार कहता रहा, कि भईया मंत्री जनों ने राज सिंघासन सूना जान मुझे बलपूर्वक व आग्रह पूर्वक सिंघासन पर बिठा दिया। साधारण से साधारण बुद्धि वाला मानव भी सुग्रीव की निष्कपटता व विवशता को समझ लेता। लेकिन तुम भाई होकर भी न समझे और सुग्रीव को मारने दौड़ चले। यद्यपि वह तो बार-बार आग्रह करता रहा, कि भईया यह राज्य आपका ही है। आप ही इसे संभालीये। मैं तो बस आपकी सेवा करुंगा। पर तुम थे कि बस पत्थर के  कान लेकर उस पर झपट पड़े। अरे मूर्ख बालि! तुम सुग्रीव पर झपटे तो एक बार के लिए क्षमायोग्य है। भाईयों-भाईयों में अनेकों बार झगड़ा संभव है और स्नेह भी। लेकिन तुम सुग्रीव की पत्नी पर भी यूं झपट पडे़ जैसे भूखा खुंखार सींह निरीह हिरणी पर झपट पड़ता है। यह पाप कृत्य करते तुम्हें रत्ती भी लज्जा नहीं आई, कि छोटे भाई की पत्नी तो बेटी के समान होती है। और उसका शील भंग करते समय तुम्हारा हृदय किचिंत भी नहीं कांपा। तब से लेकर आज तक तुम निरंतर उस बेचारी का शोषण करते आ रहे हो। और प्रश्न कर रहे हो, कि मैं तुम्हारा अपराध तो बता देता। वे बेचारी मरती क्या न करती। तिल-तिल कर मरती रही, और इस कष्ट को हृदय में दफन करके सहती रही। उसके सहमे मौन को तुमने उसकी स्वीकृति मान लिया। क्या असहनीय पीड़ा दी तुमने उसे, तुम कल्पना नहीं कर सकते! और अभी भी सोच रहे हो कि मैंने तुम्हें क्यों मारा? बालि तुम मृत्यु के ही योग्य हो और तुम्हें मारने में पाप कैसा?

 

बालि प्रभु की बातें सुनकर आगे क्या कहता है, क्या उसे पश्चाताप होता है या नहीं? जानने के लिए आगामी अंक अवश्य पढि़एगा---(क्रमशः)---जय श्रीराम 

 

- सुखी भारती 

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