जब भी कोई संकट आता है तो सबसे पहले खामियाजा मजदूरों को ही भुगतना पड़ता है

By अजय कुमार | May 03, 2021

मोदी सरकार ने विषम परिस्थितियों में भी लॉकडाउन नहीं लगाने का जो फैसला किया है, उसका कामगार यानी मजदूरों के जीवनयापन पर काफी प्रभाव देखने को मिल रहा है। सबसे खास बात यही है कि अबकी मजदूरों के पलायन का वैसा नजारा नहीं देखने को मिला जैसे बीते वर्ष कोरोना महामारी के प्रथम चरण में देखने को मिला था, मोदी सरकार ने लॉकडाउन को अंतिम विकल्प ऐसे ही नहीं बताया था। दरअसल लॉकडाउन नहीं लगाने के पीछे का मकसद सिफ यही है कि कोरोना महामारी के कारण पहले से ही जीवनयापन के लिए जूझ रहे मजदूरों की और ‘कमर’ न टूट जाए। क्योंकि लॉकडाउन का सबसे अधिक खामियाजा मेहनत-मजदूरी करने वाले दिहाड़ी और उद्योगों में लगे मजदूरों, सब्जी-फल का ठेला खोमचा लगाने वाले लोगों, छोटी-छोटी दुकानों में काम करने वालों को उठाना पड़ता है। प्रधानमंत्री मोदी सही कह रहे हैं कि लॉकडाउन अंतिम विकल्प होना चाहिए, लेकिन इस पर राजनीति भी हावी है, इसीलिए जहां मोदी लॉकडाउन को अंतिम विकल्प के तौर पर देखने की बात कहते हैं तो कई राज्यों की गैर भाजपाई सरकारों ने ओछी सियासत के चलते लॉकडाउन लगाने में जरा भी देरी नहीं की। इसी के चलते दिल्ली, महाराष्ट्र जैसे राज्यों से बेरोजगार मजदूर पलायन को मजबूर हो गए। इसमें अधिकांश मजदूर यूपी-बिहार के थे। ऐसे में मजदूरों की दुर्दशा देखकर किसी का भी चिंतित होना लाजिमी है।


खैर, मौजूदा हालातों से इतर देखा जाए तो इस सच्चाई को अनदेखा नहीं किया जा सकता है कि मजदूर पहली बार परेशान नहीं हुआ है, जब भी देश में कोई हलचल होती है। दंगे फसाद, साम्प्रदायिक हिंसा या फिर अन्य प्रकार का संकट आता है तो सबसे पहले मजदूर को ही इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है। आजादी के करीब 75 वर्षों के बाद भी मजदूरों की माली हालत में कोई बड़ा सुधार नहीं हुआ है। सरकारें कोई भी रही हों, उद्योग-धंधे जितने भी पनप रहे हों, लेकिन मजदूर कल भी खाली हाथ था, आज भी खाली हाथ है। एक दिन काम न मिले तो मजदूर के घर का चूल्हा नहीं जलता है। मजदूर के चलते ही देश का विकास हो रहा है। इसीलिए तो देश में अरबपति उद्योगपतियों की संख्या बेतहाशा बढ़ती जा रही है, जबकि तमाम सरकारों द्वारा इस बात को पूरी तरह से अनदेखा किया जाता रहा है कि देश की अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा आधार उद्योगपति नहीं श्रमिक ही होता है। इतिहास गवाह है कि आदि काल से अपने श्रम के बूते पर श्रमिक ने दुनिया की प्रगति और उत्थान में अभूतपूर्व योगदान दिया है। हर छोटी-बड़े विकास कार्यों में मजदूरों का पसीना बहता है। कहा जाता है कि मजूदर का पसीना सूखने से पहले उसको उसकी मजदूरी मिल जाना चाहिए, लेकिन ऐसे होने की बजाए मजदूरों से काम अधिक लिया जाता है और पैसा कम दिया जाता है। इस श्रेणी में पढ़े लिखे और अनपढ़ दोनों मजदूर शामिल हैं।

 

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श्रमिकों की महत्ता की बात की जाए तो कहीं सड़क बननी हो या भवन, सुई बनानी हो या बड़े-बड़े कल कारखानों की नींव या निर्माण की बात हो कहीं भी श्रमिक के योगदान को अनदेखा नहीं किया जा सकता। पहाड़ से लेकर समुंदर तक श्रमिकों ने अपने पराक्रम से विकास की गाथा लिखी है। धरती माँ के हरे-भरे खेत, खलिहान या नदियों पर पुल निर्माण हर जगह मजदूरों ने अपनी श्रम की शौर्यगाथा लिखी ? भले ही इतिहास के पन्नों में उसकी मेहनत की कहानियाँ दर्ज नहीं की गईं पर उस की बनाई कृतियों में चाहे वे रिहायशी महल, किले अथवा हवेलियां हों या मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे या फिर पत्थरों पर उकेरी गई कलाकृतियाँ हर जगह श्रमिक का समर्पण और श्रम मुंह चढ़कर बोलता है। आज की कंक्रीट की जंगलनुमा आधुनिक सभ्यता को नई शक्ल देने में तो श्रमिक ने कहीं अधिक पसीना बहाया है। कारखानों की निर्माण इकाइयां हों या हस्तकला उद्योग, हर जगह मजदूरों और कारीगरों ने अपनी मेहनत और हुनर से निर्माण और कला जगत में चार चाँद लगाये हैं। श्रमिक ही एकमात्र ऐसा वर्ग है, जिसने जाति, धर्म या नस्ली भेदभाव के बिना श्रम को अपना ईश्वर मान हर जगह मेहनत को प्राथमिकता दी है। वह हिन्दू के लिए काम करता हो या मुस्लिम अथवा सिख ईसाई के लिए। श्रम में निष्ठा उसका एक मात्र धर्म होता है, पर श्रमदाता की खुद की स्थिति किसी भी युग में अच्छी नहीं रही है। मजदूरों को अथक मेहनत के बावजूद उसे ना कभी पेट भर खाना मिल पाया ना उसके बच्चों और महिलाओं को अच्छा स्वास्थ्य, शिक्षा और सुरक्षित जीवन नसीब हुआ। श्रमिकों की पीढ़ियां नित नई विकास गाथा लिखने के बाद झाोपड़-पट्टी या फिर सड़कों के किनारे तक ही सीमित रहती हैं। जीवन की विपरीत परिस्थितियों से जूझते और घोर विपन्नता से दो चार होते हुए एक ढंग की छत तक उन्हें कभी मुहैया नहीं हो सकी। उद्योगपतियों को शिखर पर बिठाने वाले उनकी फौलादी ताकत हमेशा अर्थ सुख से वंचित रही है। युगों से शोषित श्रमिक अपने स्वामियों और देश के भाग्य निर्माताओं द्वारा सदैव छला गया है। स्वार्थ में रत तंत्र ने कभी उसके कल्याण और बेहतर जीवन के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किया।

 

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शायद इसीलिए उद्योगपतियों के लिये खून-पसीना बहाने वाले श्रमिकों को स्वयं ही अपने और अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए सोचना पड़ा। मजदूरों की मजदूरी की अवधि कभी नियत नहीं रही, इसी के बाद शिकागो में मई 1886 में मजदूर यूनियनों ने कामगारों के काम की अवधि को 8 घंटे तक निश्चित करने के लिए हड़ताल की शुरुआत की। महात्मा गांधी ने भी इस वर्ग को देश की अर्थव्यवस्था और सामाजिक प्रणाली की रीढ़ की हड्डी की संज्ञा देते हुए प्रशासन से इनकी बेहतरी की दिशा में काम करने की तथा उनके स्वास्थ्य और सुरक्षा के प्रति सचेत रहने की अपेक्षा की थी। जिससे वे किसी भी मसले अथवा झगड़े का शिकार हुए बिना अपना काम ठीक ढंग से कर सकें। भले ही आज मजदूरों की औसत दशा पहले से थोड़ी ठीक हो लेकिन आज भी श्रमिकों का विकास करने के लिए नए संकल्पों और नए विचारों की बेहद जरूरत है, जिससे मजदूर वर्ग और उसकी आने वाली पीढ़ियां एक अच्छा, सुरक्षित और स्वच्छ जीवन जीने योग्य बन सकें। इसके लिए उनके बच्चों की शिक्षा पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिये तो वहीं श्रमिक वर्ग को नई तकनीक का ज्ञान मुहैया करवाना सरकार की प्रमुख कोशिश होनी चाहिए ताकि रोटी, कपड़ा और मकान जैसी जरूरतों के लिए उन्हें सदियों से प्रचलित शारीरिक और मानसिक शौषण और प्रताड़ना से ना गुजरना पड़े।


देश में धर्मनिरपेक्षता की सबसे सुन्दर मिसाल यदि कोई है तो वह है श्रमिक वर्ग, जिसने जाति, धर्म या नस्ली भेदभाव के बिना श्रम को अपना ईश्वर मान कर हर जगह मेहनत कर्म को प्राथमिकता दी है। वह हिन्दू के लिए काम करता हो या मुस्लिम अथवा सिख, ईसाई के लिए, श्रम में निष्ठा उसका परम कर्तव्य और धर्म है, पर श्रमदाता की खुद की स्थिति किसी भी युग में संतोषजनक नहीं रही। मजदूरों को अथक मेहनत के बावजूद ना कभी पेट भर अन्न मिल पाया ना उसके बच्चों और महिलाओं को अच्छा स्वास्थ्य और सुरक्षित जीवन। श्रमिकों की पीढ़ियां सड़कों और उद्योगों के निर्माण में रत रहकर भी सड़कों तक ही सीमित रहती हैं। जीवन की विपरीत परिस्थितियों से जूझते और घोर विपन्नता से दो चार होते हुए एक ढंग की छत तक उन्हें कभी मुहैया नहीं हो सकी।


-अजय कुमार

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