सबसे बड़ी समस्या क्यों है मजहबी उन्माद ? क्यों एक वर्ग की बढ़ती आबादी से बढ़ जाती हैं समस्याएं?

By अश्विनी उपाध्याय | Aug 27, 2022

हमारे देश के लिए जातिवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद, माओवाद और नक्सलवाद से भी बड़ा खतरा है कट्टरवाद, चरमपंथ, पाखंड और मजहबी उन्माद लेकिन इसके मूल कारण और स्थाई समाधान पर संसद-विधानसभा में सार्थक बहस नहीं हो रही है। कट्टरवाद, चरमपंथ, पाखंड और मजहबी उन्माद किसी भी मजहब में हों, वह मानवता के लिए हमेशा खतरा ही होते हैं। वैसे तो कट्टरवाद सभी धर्मों में बढ़ा है लेकिन आंकड़े बताते हैं कि पिछले कई दशकों से इस्लाम के मानने वालों की हिंसक गतिविधियां पूरी दुनिया के लिए सिरदर्द बनी हुई हैं।


प्रसिद्ध समाजशास्त्री डॉ. पीटर हैमंड ने 2005 में विस्तृत शोध के बाद इस्लाम धर्म के मानने वालों की प्रवृत्ति पर एक पुस्तक लिखी थी जिसका शीर्षक है “स्लेवरी, टैररिज्म एंड इस्लाम-द हिस्टोरिकल रूट्स एंड कंटेम्पररी थ्रैट’। डॉ. पीटर हैमंड के अतिरिक्त ‘द हज’ के लेखक लियोन यूरिस ने भी कट्टरवाद, चरमपंथ, पाखंड और मजहबी उन्माद पर अपनी पुस्तक में विस्तार से लिखा है और जो तथ्य सामने आए हैं वे चौंकाने वाले ही नहीं बल्कि चिंताजनक भी हैं।


डॉ. पीटर हैमंड और लियोन यूरिस के शोध ग्रंथों के अनुसार जब तक मुसलमानों की जनसंख्या किसी देश, प्रदेश या क्षेत्र में 2% या उससे कम होती है तब तक वे एकदम शांतिप्रिय और कानून पसंद नागरिक बन कर रहते हैं और शासन या समाज के अन्य लोगों को शिकायत का कोई मौका नहीं देते। उदाहरण के लिए अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, चीन, इटली और नॉर्वे में मुसलमानों की संख्या 2% या कम है इसलिए इन देशों में मुसलमानों से किसी को कोई परेशानी नहीं है लेकिन जब मुसलमानों की जनसंख्या 2% से 5% के बीच हो जाती है तब वे अन्य धर्मावलम्बियों के बीच अपने साम दाम दंड भेद द्वारा अपने मजहब का प्रचार प्रसार शुरू कर देते हैं। उदाहरण के लिए डेनमार्क, जर्मनी, ब्रिटेन, स्पेन और थाईलैंड में मुस्लिम अब यही कर रहे हैं।


जब मुसलमानों की जनसंख्या किसी देश प्रदेश या क्षेत्र में 5 से 10% होती है तब वे अन्य धर्मावलंबियों पर अनैतिक दबाव बढ़ाने लगते हैं और अपना प्रभाव जमाने की कोशिश करने लगते हैं। उदाहरण के लिए वे केवल यह नहीं कहते हैं कि ‘हलाल’ का मांस न खाने से उनकी धार्मिक मान्यताएं प्रभावित होती हैं बल्कि सरकार और शॉपिंग माल पर ‘हलाल’ का मांस रखने का दबाव भी बनाने लगते हैं। मुस्लिमों के इस कदम से कई पश्चिमी देशों में खाद्य वस्तुओं के बाजार में मुसलमानों की तगड़ी पैठ बन गई है और अब उन्होंने कई देशों के सुपर मार्केट के मालिकों पर दबाव डालकर उनके यहां ‘हलाल’ का मांस रखने को बाध्य भी कर दिया है। दुकानदार भी आर्थिक लाभ को देखते हुए उनका कहना मान लेते हैं। वे यहीं पर नहीं रुकते हैं बल्कि इसके बाद सरकार पर यह दबाव भी बनाने लगते हैं कि उन्हें शरीयत कानून के हिसाब से चलने दिया जाए। वर्तमान समय में 5% से 10% मुस्लिम आबादी वाले फ्रांस, फिलीपींस, स्वीडन, स्विट्जरलैंड, नीदरलैंड, त्रिनिदाद और टोबैगो में यही हो रहा है।


जब मुस्लिम जनसंख्या किसी देश में 10% से अधिक हो जाती है तब वे उस देश प्रदेश क्षेत्र में कानून-व्यवस्था के लिए परेशानी पैदा करना शुरू करते हैं। पहले अपराध करते हैं और पकड़े जाने पर गरीबी बेरोजगारी की शिकायत करते हैं और आर्थिक स्थिति का रोना रोते हैं। छोटी-छोटी बातों पर तोड़-फोड़ करना शुरू करते हैं और किसी भी विवाद को बातचीत से खत्म करने की बजाय उसे लगातार बढ़ाते हैं। उदाहरण के लिए फ्रांस के दंगे हों या डेनमार्क का कार्टून विवाद या फिर एम्सटर्डम में कारों का जलाना हो, यह सब इसलिए हुआ क्योंकि इन देशों में मुस्लिम जनसंख्या 10% से अधिक हो चुकी है। गुयाना, इसराईल, केन्या और रूस में अशांति का मूल कारण भी 10% अधिक जनसंख्या है।


जब किसी क्षेत्र में मुसलमानों की जनसंख्या लगभग 20 प्रतिशत या अधिक हो जाती है तब इनके संगठन जेहाद का नारा ही नहीं लगते हैं बल्कि असहिष्णुता और धार्मिक हत्याओं का दौर भी शुरू हो जाता है, जैसा भारत और इथियोपिया और में अक्सर देखा जाता है। मुसलमानों की जनसंख्या 30 प्रतिशत से अधिक होने पर आए दिन दंगे शुरू होते हैं, सामूहिक हत्याएं शुरू होती हैं और आतंकवादी हमले भी बढ़ने लगते हैं जैसा कि आजकल बोस्निया और लेबनान में हो रहा है। डॉ. पीटर हैमंड लिखते हैं कि जब किसी देश में मुसलमानों की जनसंख्या 40 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है तब अन्य धर्मावलंबियों का ‘जातीय सफाया’ शुरू होता है, उन्हें जबरन मुसलमान बनाया जाता है, उनके धार्मिक स्थलों को तोड़ा जाता है, जजिया कर वसूलना शुरू किया जाता है और पलायन के लिए विवश किया जाता है। अल्बानिया, कतर और सूडान ही नहीं भारत के कई राज्यों में भी अब यही हो रहा है। 


किसी देश में जब मुसलमान 50 प्रतिशत हो जाते हैं तब उस देश में पहले सत्ता प्राप्त करते हैं और अन्य धर्मों की शासन प्रायोजित जातीय सफाई की जाती है। अन्य धर्मों के लोगों को उनके मूल नागरिक अधिकारों से भी वंचित कर दिया जाता है। सभी प्रकार के अनेक हथकंडे अपनाकर मुस्लिम जनसंख्या को 100 प्रतिशत तक ले जाने का लक्ष्य रखा जाता है। जैसे बांग्लादेश, मिस्र, गाजा पट्टी, ईरान, इराक, जॉर्डन, मोरक्को, पाकिस्तान और सीरिया में देखा जा रहा है। 


ये ऐसे कड़वे तथ्य हैं जिन्हें मजहबी चश्मे से नहीं बल्कि ठंडे दिमाग से प्रत्येक नागरिक को देखना और समझना चाहिए, चाहे वे हिंदू हो मुसलमान, पारसी हो या ईसाई। वैसे तो सामाजिक सद्भाव सबकी जिम्मेदारी है लेकिन ज्यादा जिम्मेदारी उन लोगों की है जो वास्तव में धर्मनिरपेक्ष हैं। उन्हें संगठित होकर आगे आना चाहिए और इस्लाम धर्म के साथ जुड़ने वाले आतंकवाद, कट्टरवाद, अलगाववाद और मजहबी उन्माद जैसे विश्लेषणों से इस्लाम को मुक्त कराएं अन्यथा न तो इस्लाम के मानने वालों का भला होगा और न ही दुनिया का।


-अश्विनी उपाध्याय

(लेखक उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता हैं)


नोटः आलेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं। प्रभासाक्षी समाचार पोर्टल किसी भी लेखक के विचारों का समर्थन या विरोध नहीं करता है बल्कि समाज के विभिन्न वर्गों को अपनी बात रखने का अवसर प्रदान करता है।

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