पहले आम चुनाव में बलिया ने दिखाए बागी तेवर

Ballia first general election
Prabhasakshi

आजादी के बाद का पहला ही चुनाव था..आजादी के आंदोलन की अगुआ रही कांग्रेस की पूरे देश में तूती बोल रही थी। तपे-तपाए नेताओं के आभामंडल से भारतीय राजनीतिक क्षितिज दैदीप्यमान था, इसके बावजूद पंडित नेहरू देश की राजनीतिक धुरी बने हुए थे..चुनावों में नेहरू जहां भी जाते, वहां भीड़ लग जाती।

आम चुनावों के बीच तमाम तरह से मुद्दे छाये हुए हैं.. कुछ जगहों पर बाहरी उम्मीदवार को लेकर स्थानीय वोटर और पार्टी कार्यकर्ता नाराज हैं। ऐसी कहानियां तमाम पार्टियों की हैं। कभी पार्टी अनुशासन का भय दिखाकर तो कहीं पुचकार कर कार्यकर्ताओं को मनाया जा रहा है। ताकि वे समर्थक वोटरों को मतदान केंद्र तक ला सकें। लेकिन कई जगह वोटरों को मनाना पार्टियों के लिए टेढ़ी खीर साबित हो रहा है। तो कई जगहों पर बाहरी उम्मीदवार के पीछे स्थानीय कार्यकर्ता अभिभूत नजर आ रहे हैं। जितनी भारत की संस्कृति विविधरंगी है, जितना बहुरंगी अपना समाज है, उतने ही रंग चुनाव में भी दिख रहे हैं। 

आजादी के बाद का पहला ही चुनाव था..आजादी के आंदोलन की अगुआ रही कांग्रेस की पूरे देश में तूती बोल रही थी। तपे-तपाए नेताओं के आभामंडल से भारतीय राजनीतिक क्षितिज दैदीप्यमान था, इसके बावजूद पंडित नेहरू देश की राजनीतिक धुरी बने हुए थे..चुनावों में नेहरू जहां भी जाते, वहां भीड़ लग जाती। लेकिन उसी नेहरू की बात को बलिया ने एक नहीं सुनी। ठीक उसी अंदाज में कांग्रेसी आलाकमान से बगावत कर दिया, जिस अंदाज में एक दशक पहले अंग्रेजों से बलिया का शासन छीन लिया था। 

इसे भी पढ़ें: Ranaghat इलाके में बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस रहे लोग, पूछ रहे कब ममता दीदी को हम पर आएगा तरस?

दूसरे आम चुनाव में पंडित नेहरू ने गोविंद मालवीय को बलिया में कांग्रेस का उम्मीदवार बनाकर मैदान में उतार दिया था। गोविंद मालवीय कोई मामूली शख्सियत नहीं थे। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के संस्थापक, कांग्रेस और हिंदू महासभा के अध्यक्ष रहे पंडित मदनमोहन मालवीय के बेटे थे। गोविंद मालवीय की भी ख्याति मशहूर शिक्षाविद् के रूप में थी। नेहरू को लगा कि महामना मालवीय की प्रतिष्ठित विरासत और कांग्रेसी साख के साथ गोविंद मालवीय बलिया से चुनावी नैया पार लगा ले जाएंगे। नेहरू ने तब बलिया के कांग्रेस नेताओं से सलाह लेना भी उचित नहीं समझा। 

बलिया के वरिष्ठ पत्रकार अशोक जी बताते हैं कि दरअसल बलिया की कांग्रेस कमेटी ने पहले चुनाव की उम्मीदवारी के लिए दो लोगों मुरली मनोहर श्रीवास्तव और उनके पिता और मशहूर पत्रकार दुर्गा प्रसाद गुप्त के नाम सुझाए थे। लेकिन कांग्रेस आलाकमान ने संविधान सभा के सदस्य रहे और कुछ ही दिन पहले काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति पद से हटे गोविंद मालवीय को उम्मीदवार बना दिया। बलिया के लोगों को यह नागवार गुजरा। उन्हें गोविंद मालवीय की उम्मीदवारी मंजूर नहीं हुई। 

ऐसा नहीं कि बलिया के लोग महामना मालवीय को नहीं जानते थे। ऐसा भी नहीं कि गोविंद मालवीय के बारे में स्थानीय लोगों को पता नहीं था। लेकिन बलिया को बाहरी उम्मीदवार मंजूर नहीं था। बलिया के कांग्रेसी नेताओं और कार्यकर्ताओं ने कांग्रेस के तत्कालीन आलाकमान के सामने स्थानीय उम्मीदवार देने की मांग रखी। लेकिन उनकी मांग नकार दी गई। नेहरू ने गोविंद मालवीय की उम्मीदवारी हटाने से इनकार कर दिया। बलिया के लोगों को यह बात नागवार लगी। बयालिस के आंदोलन में अंग्रेजों से आजादी हासिल कर लेने वाले बलिया के लोगों को बाहरी उम्मीदवार पसंद नहीं आया। बलिया के गांवों, चट्टी-चौराहों पर बाहरी उम्मीदवार की चर्चा आम हो गई। गोविंद मालवीय से लोगों को निजी तौर पर किसी को एतराज नहीं था। लेकिन बलिया को ऐसा लगा कि बाहरी उम्मीदवार एक तरह से उनके स्वाभिमान को चुनौती है। 

बलिया में बाहरी बनाम स्थानीय की चर्चा आम हो गई। गांव-गांव एक राय बनती चली गई कि स्थानीय उम्मीदवार को ही वोट देना है। बलिया के कांग्रेस कार्यकर्ताओं और नेताओं पर स्थानीय उम्मीदवार देने का दबाव बढ़ने लगा। इस दबाव में कांग्रेस के स्थानीय नेतृत्व ने उम्मीदवार की खोज शुरू की और उसकी निगाह जाकर बलिया के प्रतिष्ठित वकील मुरली मनोहर लाल पर टिक गई। मुरली मनोहर लाल को स्थानीय लोग मुरली बाबू के नाम से जानते थे। मुरली बाबू की वकील के रूप में प्रतिष्ठा थी। 

1942 में बलिया पर कब्जा करने के बाद अंग्रेज सरकार ने लोगों पर खूब अत्याचार किए। लोगों के खिलाफ तमाम तरह के मुकदमे दर्ज किए गए। संपत्ति को नुकसान पहुंचाया गया। लोगों की इस पीड़ा की कहानी फिरोज गांधी तक पहुंची। फिरोज गांधी ने बलिया का दौरा किया था। तब सड़कें नहीं थी, आवागमन के साधन नहीं थे। तब फिरोज गांधी तांगे से पीड़ितों के पास पहुंचे। लोगों पर हुए अत्याचार और नुकसान की रिपोर्ट तैयार की। उसके बाद उन्होंने मुरली बाबू की अगुआई में वकीलों का एक समूह तैयार किया, जो लोगों पर हुए अंग्रेजी शासन के अत्याचार को अदालत में चुनौती दे सके। फिरोज गांधी से मिली जिम्मेदारी का मुरली बाबू ने पूरी शिद्दत से निभाया था। इस वजह से भी बलिया में उनकी प्रतिष्ठा थी।

उस दौर के लोग बताते हैं कि शुरू में मुरली बाबू चुनाव लड़ने को तैयार नहीं हुए। लेकिन जन दबाव में उन्होंने चुनावी मैदान में उतरना स्वीकार किया और कांग्रेस के आधिकारिक उम्मीदवार गोविंद मालवीय के खिलाफ ताल ठोक दिया। गोविंद मालवीय के सम्मान में कांग्रेसी दिग्गजों की बलिया में सभा भी हुई। लेकिन बाहरी बनाम स्थानीय का मामला नहीं थमा। यह मामला इतना तूल पकड़ा कि गोविंद मालवीय चुनाव हार गए। निर्दलीय लड़े मुरली मनोहर लाल चुनाव जीत गए। आजादी के बाद के पहले ही चुनाव में बलिया ने अपना बागी रूख दिखा दिया।

-उमेश चतुर्वेदी

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़