उप्र की राजनीति का नया गणित SP+BSP= बहुजन समाजवादी पार्टी

By अजय कुमार | Mar 09, 2018

बहुजन समाजवादी पार्टी पहली नजर में यह शब्द किसी राजनैतिक संगठन का नाम लगता है लेकिन हकीकत में यह किसी पार्टी का नाम नहीं बल्कि एक 'सियासी तंज' है जो सपा−बसपा की दोस्ती के बाद राजनैतिक क्षितिज पर उभर कर आया है। बीजेपी द्वारा गोरखपुर और इलाहाबाद की फूलपुर संसदीय सीट पर उप−चुनाव के लिये माया−अखिलेश की जुगलबंदी पर हमलावर होने के लिये बहुजन समाजवादी पार्टी का जुमला छोड़ा गया है। सपा−बसपा को यह नया नाम मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने दिया तो हर तरफ 'बहुजन समाजवादी पार्टी' का जुमला सुर्खियां बटोरने लगा। कहने को तो अखिलेश−मायावती उप−चुनावों के लिये साथ आये हैं, मगर 'बुआ−भतीजे' का यह साथ अगले वर्ष होने वाले आम चुनाव में भी देखने को मिले तो किसी को आश्चर्य नहीं होगा।

जिस तरह विधानसभा चुनाव के समय राहुल गांधी और अखिलेश यादव एक−दूसरे की तारीफ में कसीदे पढ़ रहे थे, वैसे ही अब मायावती और अखिलेश की तारीफ के पुल बांधे जा रहे हैं। बीजेपी ही नहीं कांग्रेस को भी अखिलेश−मायावती का साथ पसंद नहीं आ रहा है। इसीलिये उसके प्रदेश अध्यक्ष राज बब्बर तंज कस रहे हैं कि सपा−बसपा का गठबंधन स्वार्थ का बंधन है। चर्चा यह भी चली थी कि कांग्रेस भी सपा प्रत्याशी को समर्थन दे सकती है, लेकिन इन अफवाहों के उलट कांग्रेस दोनों ही लोकसभा सीटों पर पूरे दमखम के साथ ताल ठोंक रही है। सपा−बसपा के साथ आने से गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीट का चुनाव रोचक जरूर बन गया है, परंतु फूलपुर संसदीय सीट के लिये बाहुबली नेता अतीक अहमद के भी ताल ठोंकने से सपा−बसपा की बेचैनी बढ़ गई है। अतीक इस समय जेल में बंद है और वहीं से चुनाव लड़ रहा है। उप−चुनाव में वोटों के ध्रुवीकरण का भी प्रयास किया जा रहा है।' इसी क्रम में हाल ही में विधानसभा के भीतर मुख्यमंत्री योगी द्वारा दिया गया बयान, 'मैं हिन्दू हूं, ईद नहीं मनाता' भी खूब उछाला जा रहा है। वहीं मुख्यमंत्री योगी द्वारा मायावती के घाव कुरेदने के लिए लखनऊ के उस गेस्ट हाउस कांड का जिक्र बार−बार किया गा, जो सपा−बसपा के बीच गहरी खाई की तरह चला आ रहा था। हालांकि यह भी सही है कि सपा में काफी बदलाव आ चुका है, सपा का नेतृत्व भी मुलायम सिंह यादव और शिवपाल यादव के हाथ से फिसल कर अखिलेश यादव के हाथ आ गया है। अखिलेश अपनी ओर से कोई तीखा बयान नहीं देते और हमेशा मायावती को बुआ कहकर संबोधित करते हैं। मायावती के तेवर भी अखिलेश के लिए उतने तल्ख नहीं हैं। लेकिन इस व्यक्तिगत पसंदगी−नापसंदगी से ज्यादा बड़ा वह सामाजिक समीकरण है, जो सपा−बसपा की विभाजक रेखा रहा है।

 

यूपी की सियासत में यह बदलाव पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में भगवा रंग चटक होने के बाद ज्यादा तेजी से देखने को मिल रहा है, जब बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती ने अपनी निजी दुश्मनी को भूल कर  समाजवादी पार्टी से हाथ मिला लिया। ऐसा इसलिये कहा जा रहा है क्योंकि 02 जून 1995 को मुलायम के मुख्यमंत्री रहते लखनऊ में स्टेट गेस्ट हाउस कांड हुआ था। तब मायावती ने आरोप लगाया था कि उन्हें बंधक बनाकर समाजवादी पार्टी के गुंडे जान से मार देना चाहते थे। उस समय स्टेट गेस्ट कांड पर खूब सियासत हुई थी। यह मामला आज भी कोर्ट में चल रहा है और मायावती हाल−फिलहाल तक स्टेट गेस्ट हाउस कांड को नहीं भूल पाने की बात कहती रही थीं। लेकिन उसी सपा से लोकसभा की दो सीटों पर होने वाले उप−चुनाव के लिये बसपा ने गठबंधन कर लिया तो बीजेपी को माया के साथ अखिलेश पर भी हमला करने का मौका मिल गया।

 

दरअसल, बीजेपी को उपचुनाव की जंग में पटखनी देने के चक्कर में मायावती को यह भी याद नहीं रहा कि उस समय केन्द्र की अटल सरकार ने तत्काल मुलायम सरकार को बर्खास्त नहीं कर दिया होता तो मायावती को और भी गंभीर नतीजे भुगतने पड़ सकते थे, लेकिन शायद सियासत में कुछ भी खास मायने नहीं रखता है। लगता है पूर्वोत्तर के राज्यों में जिस तरह से भाजपा का परचम फहराया, उससे समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के आका सहम गये और दोनों के करीब आने की वजह गोरखपुर और फूलपूर उप−चुनाव बन गये। जबकि मायावती अभी भी समझ नहीं पा रही हैं कि सपा के साथ जाने से उनका राजनैतिक भविष्य क्या होगा। इसीलिये तो मायावती ने सपा प्रत्याशी को समर्थन देने के साथ ही यह भी साफ कर दिया कि सपा उम्मीदवारों को यह समर्थन तात्कालिक है और इसका अर्थ यह न लगाया जाए कि यह 2019 के आम चुनाव में भी दोहराया जा सकता है। बताते चलें कि अतीत में यह देखने में आया था कि बसपा उप−चुनावों में अपना प्रत्याशी नहीं उतारती है, तो वह अपने वोटरों को यह भी नहीं बताती कि उसकी गैरमौजूदगी में किसे वोट दिया जाये, इस बार जरूर बसपा सुप्रीमो ने सपा प्रत्याशी को वोट देने की अपील की है।

 

गोरखपुर और इलाहाबाद में बसपा के पार्टी प्रभारियों के बयानों पर गौर करें तो लगता है कि बसपा के पास इसके अलावा कोई चारा ही नहीं था। मायावती की घोषणा के बाद फौरन अजित सिंह की अगुआई वाले राष्ट्रीय लोकदल ने भी दोनों उप−चुनावों में सपा उम्मीदवारों को समर्थन का ऐलान कर दिया। रालोद का पूर्वी उत्तर प्रदेश में समर्थन सांकेतिक महत्त्व का ही है, मगर इससे सियासी हवा का अंदाजा लगता है। गोरखपुर और फूलपुर दोनों संसदीय सीटें मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी आदित्यनाथ और उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के इस्तीफे से खाली हुई हैं इसलिए योगी और मौर्या के साथ−साथ भाजपा के लिए यह नाक का सवाल बना हुआ है।

 

आंकड़ों पर नजर डालें तो 2014 के लोकसभा चुनाव में इन दोनों सीटों पर भाजपा को करीब 51 प्रतिशत वोट मिले थे, जबकि सपा को करीब 23 प्रतिशत और बसपा को करीब 17.5 प्रतिशत वोट मिले थे। यानी दोनों के वोटों में कांग्रेस के करीब आठ प्रतिशत वोट को भी जोड़ लें तब भी भाजपा का वोट प्रतिशत ज्यादा ही बैठता है, लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव का गणित थोड़ा अलग था। दोनों ही सीटों पर पांच विधान सभाओं में से चार पर सपा−बसपा को बढ़त मिली थी। इसी गणित के सहारे सपा−बसपा की भाजपा को चुनौती देने की उम्मीद जगी है। हालांकि योगी सरकार से लोगों के मोहभंग का अभी वैसा कोई बड़ा संकेत नहीं है। केन्द्र की मोदी सरकार के प्रति नाराजगी जरूर देखने को मिल रही है। इसका असर हिन्दी पट्टी के राज्यों राजस्थान और मध्य प्रदेश के उपचुनाव में देखने को मिला भी था। इसलिए कुछ लोगों का अनुमान है कि पूर्वोत्तर के नतीजे भले माहौल बनाएं और भाजपा में नया उत्साह भर दें लेकिन भाजपा को अपने शासन वाले राज्यों में लोगों की नाराजगी से दो−चार होना पड़ेगा। जैसा कि हाल के गुजरात विधानसभा चुनाव में दिखा भी। वहां भाजपा किसी तरह जीत तो गई लेकिन जश्न मनाने का मौका कांग्रेस के हाथ लगा था।

 

सपा−बसपा साथ जरूर आ गये हैं, लेकिन इसके राजनैतिक निहितार्थ भी निकाले जा रहे हैं, सपा का वोट बैंक मुख्य रूप से यादव और मुसलमान हैं जबकि बसपा का मुख्य आधार जाटव हैं। यादवों और जाटवों के बीच सामाजिक तनाव ऊंची जातियों के मुकाबले भी ज्यादा ही माना जाता है। इसलिए दोनों को एक पाले में खड़ा करना आसान नहीं है। इसमें दो राय नहीं कि अब 21 राज्यों में परचम लहरा चुकी भाजपा देश में मुख्य दल का स्थान ग्रहण करती जा रही है और अब वह सिर्फ ब्राह्मण, बनिया पार्टी नहीं रही है। अब उस पर साम्प्रदायिक होने का आरोप लगाने वालों के मुंह भी बंद हो गये हैं। यह बीजेपी की बदली रणनीति का ही असर है, जैसे कि पूर्वोत्तर में उसने ईसाई समूहों की संवेदना को देखते हुए बीफ पर लचीला रुख अपना लिया। इसलिए दूसरे मध्यमार्गी दल एक होकर ही उसका मुकाबला कर सकते हैं। यह देखना होगा कि सपा−बसपा की यह दोस्ती कितने समय तक रहती है, क्योंकि दोनों की दोस्ती का अतीत अच्छा नहीं रहा है। तमाम बातों को भुलाकर की गई दोस्ती के बाद भी यदि गोरखपुर और फूलपुर का चुनाव सपा हार जाती है, तब बसपा और सपा के लिये भविष्य की राह और भी मुश्किल हो सकती है।

 

- अजय कुमार

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