नेपाल को चीन का हो जाने से बचा लिया प्रधानमंत्री मोदी ने

By डॉ. वेदप्रताप वैदिक | May 14, 2018

कोई भी भारतीय प्रधानमंत्री अपनी 10 या 15 साल की अवधि में भी कभी तीन बार नेपाल नहीं गया लेकिन सिर्फ चार साल में ही नरेंद्र मोदी को तीसरी बार नेपाल क्यों जाना पड़ा ? यदि इस प्रश्न का हम सही उत्तर पा जाएं तो हमें मालूम पड़ेगा कि मोदी का इस बार नेपाल जाना कितना जरूरी था। पिछले चार साल में भारत-नेपाल संबंध इतने बिगड़ गए थे कि अभी वहां केपी शर्मा ओली की जो सरकार बनी है, वह मुख्यतः भारत-विरोध के आधार पर ही बनी है।

2015 में नेपाल की जो घेराबंदी हुई थी और जिसके कारण नेपाल में दमघोंटू माहौल खड़ा हो गया था, उसकी सारी जिम्मेदारी भारत के मत्थे मढ़ दी गई थी। उस समय केपी ओली ही प्रधानमंत्री थे। उन्होंने उस समय चीन के लिए नेपाल के सारे दरवाजे खोल दिए थे। चीन के लिए कुछ खिड़कियां खोलने का साहस बीपी कोइराला और नेपाल नरेश वीर विक्रम शाह ने भी किया था लेकिन यदि इस बार मोदी ने अपनी अकड़ को ढीला नहीं किया होता तो नेपाल भारत का नहीं, चीन का पड़ौसी कहलाने लगता, क्योंकि ओली कम्युनिस्ट पार्टी के नेता हैं और भारत-विरोध के मुद्दे पर जीते हैं। उनके चुनाव जीतते ही मोदी ने व्यक्तिगत बधाई दी और कुछ दिन बाद भारत-नेपाल घावों पर मरहम रखने के लिए विदेश मंत्री सुषमा स्वराज काठमांडों पहुंच गईं।

 

अब मोदी ने नेपाल जाकर जानकी मंदिर, पशुपतिनाथ और मुक्तिनाथ में पूजा-पाठ किया। अगर नेपाल में हिंदू कार्ड नहीं चलेगा तो कहां चलेगा ? ‘पड़ौसी पहले’ का कार्ड भी चला। मोदी ने बोला नेपाल के बिना भारत के राम और धाम दोनों अधूरे हैं। क्या गजब की तुकबंदी की है। अयोध्या से जनकपुर तक बस चल पड़ी। 100 करोड़ रु. जनकपुर के विकास के लिए दे दिए। 600 करोड़ रु. के 900 मेगावाट के पनबिजली घर, अरुणा-तीन, का उदघाटन कर दिया। मोदी और ओली ने यह भी तय किया है कि वे अब नेपाल को अनेक थल मार्गों और जल मार्गों से जोड़ देंगे। किसी भी जमीन से घिरे राष्ट्र के लिए इससे बड़ा वरदान क्या हो सकता है। दोनों पक्षों ने हर मुद्दे को अब प्रेमपूर्वक सुलझाने का संकल्प किया। मोदी (और ओली के खिलाफ भी) काठमांडों में छोटे-मोटे प्रदर्शन भी हुए लेकिन यह यात्रा सफल रही। फिर भी हमें यह मानकर नहीं बैठ जाना चाहिए कि इस यात्रा के कारण नेपाल-चीन संबंधों में कुछ पतलापन आ जाएगा।

 

- डॉ. वेदप्रताप वैदिक

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